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बैंगनी फूलों वाला पेड़

डॉ.स्वाति तिवारी
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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चाणक्यपुरी वाला हमारा सरकारी बंगला,जहां दिल्ली,दिल्ली है ऐसा कम ही लगता। साफ-सुथरा वीआईपी एरिया। इतनी हरियाली दिल्ली के किसी और इलाके में शायद ही देखने को मिले। हमारे घर के सामने तो जैसे सघन अशोक वाटिका ही बनी थी। यह एक हरा-भरा सरकारी बगीचा है। बगीचे में तमाम तरह के पेड़-पौधे हैं,पर मेरी दृष्टि में बगीचे में सबसे खूबसूरत पेड़ वही है जिसके ऊपर गर्मी-भर बैंगनी रंग के फूल खिलते हैं। हर बार जब भी वह पेड़ बैंगनी फूलों से लद जाता,मैं उसका नाम जानने को उतावली होती-कई बार किताबों,पत्र-पत्रिकाओं के पन्ने पलटती,शायद इस पेड़ का वर्णन या तस्वीर दिख जाए,पर आज तक नहीं जान पाई इसका नाम। लंबे तनेवाले इस पेड़ के शीर्ष पर फैले छोटे-छोटे जामुनी रंग के फूल और कलियों के गुच्छे मुझे किसी ग्रामीण स्त्री की वायल की फूलोंवाली चुनरी जैसे लगते। घर के बाईं तरफवाली खिड़की खोलते ही ध्यान उधर चला जाता। काफी बड़े क्षेत्र में पेड़ की छत्रछाया फैली हुई। गुलमोहर जैसे आकार-प्रकार के इस पेड़ पर तरह-तरह के पंछी अपना बसेरा बनाए रहते हैं। फागुन के बाद तपती दोपहर में जब ज्यादातर पेड़ पतझड़ का गम मना रहे होते हैं,या फिर अंगारे जैसे सुर्ख रंग के फूलों से धधकते लगते हैंl ऐसे में शांत बैंगनी रंग के फूलों से ढका यह पेड़ आँखों और दिल को सकून देता है। पेड़ के नीचे ज्यादातर छांव रहती है। शायद इसीलिए, वहां एक बेंच भी लगी है। अक्सर राहगीर उस बेंच पर सुस्ता लेते हैं। शाम को मोहल्ले के कुछ बुजुर्ग एकत्र होते हैं। बहुत बार मेरा भी मन करता,उस ठंडक में जाकर कुछ बिखरे बैंगनी फूल उठा लाऊं। एक दोपहर जब गर्मी अभी शेष थी,और ठंडी-गरम मिली-जुली हवा स्पर्श कर रही थी,मैं सोनरंग की वायल में फूल टांकती अपने कमरे में बैठी थी। खिड़की खुली थी और रेडियो पर मेरा मनपसंद गजलों का कार्यक्रम बज रहा था-उस भरी दोपहर में खिड़की से मेरी नजर पेड़ की तरफ गई तो मैंने देखा,पेड़ के नीचे एक लड़का और एक लड़की बैठे हैं। वे दोनों अपने-आपमें ही मगन थे-जाने क्यूं अच्छा लगा उन्हें दुखकर। मैं कुछ देर देखती रही। फिर अनायास ही मैं मुस्करा उठी,और खिड़की बंद कर,आँखें मूंद लेट गई। लड़का और लड़की खयालों में ही रहे-प्यार की गुनगुनी दोपहर ऐसी ही होती है- एक राहत भरी छांह को तलाशती हुई। धुंधलाती स्मृतियों में ऐसी ही किसी दोपहरी में बरसों पहले एक ग्रीटिंग कार्ड स्केच के ऊपर खिली गुलजार की पंक्तियों का शब्द-शब्द याद आने लगा-

“याद है,एक दिन

मेरे मेज पे बैठे-बैठे

सिगरेट की डिबिया पर तुमने

छोटे-से इस पौधे का

एक स्केच बनाया था!

आकर देखो,

उस पौधे पर फूल आया है!”

जब-जब भी अपने बगीचे के आम पर बौर आते रहे,ये पंक्तियां याद करती रही…हाँ, चुपचाप पौधे पर फूल खिलते रहे। यह विचार उठता रहा कि यह पेड़ इन पंछी जैसे लड़के-लड़की को भी एक बसेरा बसाने का सुंदर सपना दे रहा है। करवट बदल सोने की कोशिश करती,पर थकान के बावजूद नींद नहीं आनी थी,न आई! सधे रिकॉर्ड की तरह दिमाग पर कुछ विस्मृत तरंगें उठने लगीं। मैं बेचैन अहसास के साथ फिर करवट बदलती हूँ,पर लगा,वह लड़का और लड़की और वह बैंगनी फूलोंवाला पेड़ मेरे स्मृति-पटल से विस्मृत होने के भ्रम की धूल झाड़ रहे हैं-क्या हो गया है मुझे ? उठकर बैठ जाती हूँ। एक कुनमुनाहट-सी भीतर रेंगने लगती है। मैंने खिड़की खोल दी। तपी हुई हवा का एक झोंका घर में प्रवेश कर गया। मेरी नजरें फिर पेड़ के नीचे गईं,अब लड़का और लड़की जा चुके थे। वहां कोई नहीं था। उस रिक्त हुए स्थान पर कुछ बैंगनी फूल झड़े हुए थे। फूल मुस्करा रहे थे। शायद प्यार की उनकी छोटी-सी मुलाकात का अहसास वहां मौजूद था। मैं पलटी। रेडियो पर अंतिम ग़ज़ल बज रही थी-

“पसीने-पसीने हुए जा रहे हो,

तुम दोनों कहां से चले आ रहे हो…”

जगजीत सिंह-चित्रा सिंह के प्यार की सारी कशिश उनक स्वर में उतर आती है। उठकर मैं किचन में गई और चाय बनाकर ले आई। खाली घर में जाने क्यूं लगने लगा,मैं अकेली नहीं हूँ। एक अहसास है जो मेरे साथ-साथ चल-फिर रहा है। चाय का कप पकड़े-पकड़े खयाल आया कि लंबे अरसे बाद आज फिर दोपहर में चाय की तलब ? क्या मतलब है इसका ? नौकरी छोड़ने और शादी होने के बाद से दोपहर में चाय तो मैंने पी ही नहीं थी।अगला दिन-फिर वही दोपहर,वही मैं और मेरा खालीपन। आम के पेड़ पर तोते बोल रहे थे-उनकी आवाज के साथ मैं कमरे से बाहर आ गई और आम के पेड़ के नीचे चली गई। एक अलग ही अहसास फैलने लगा मेरे वजूद पर। आम की पत्तियां तोड़कर हथेली पर मसल डाली,पत्तियों की महक अच्छी लगती है मुझे। यादों की महक-सी छाने लगी मुझ पर…तुम कितना चिढ़ते थे,मेरी इस आदत पर…सारे हाथ गंदे कर लेती हो तनु,एलर्जी हो जाएगी। मैं इन पत्तियों को सूंघती थी और छींकें तुम्हें आती थीं। कितना सुखद होता था वो लंच टाइम,जब हम चाय की गुमटी के पीछेवाले आम के पेड़ों के झुरमुट के नीचे जा बैठते थे। तुम मेरे लंच बॉक्स में रोज आम का अचार देखते ही मुस्कराने लगते थे। “तनु, थोड़े आम के पत्ते घर ले जाओ,सब्जी बना लेना। तुम्हारा बस चले तो तुम आम के पत्ते भी खाने लगोगी।”

“हाँ तो,तुम्हें भी खिलाऊंगी,क्या बिगाड़ा है आम के पेड़ ने तुम्हारा ? बैठते तो रोज यहीं हैं ?”

“अच्छा बाबा,अच्छा है,जनाब यह छत्रछाया आपकी है हम पर खट्टी-मिट्ठी।”

‘हाँ,अब आई अकल।”

“अच्छा तनु,अगर ये नीम का पेड़ होता तो क्या तुन निंबोली का अचार डालतीं ?’

“हाँ डालती,प्रणव छाप निंबोली अचार। डालती और तुम्हें ही खिलाती,समझे!”

“प्रणव,तुमसे अलग हो यादों की निंबोली ही तो समेट रही हूँ…”

अगली दोपहर फिर तोते मेरे बगीचे के अमरूद कच्चे ही गिराकर उड़ गए। मैं अमरूद उठा अंदर आने लगी तो अनायास ही नजर सामनेवाली बेंच पर चली गई। आज फिर वही लड़का और लड़की वहां आकर बैठे थे। मैंने घड़ी पर नजर डाली-एक बजकर तीस मिनट। ओ…लंच टाइम! मैं कमरे में आ गई। रेडियो चालू किया,दर्द-भरा एक अहसास बहने लगा-

“हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू

हाथ से छू के इसे रिश्तों का इलजाम ना दो

सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो-”

मैं चाहकर भी आज खिड़की बंद नहीं कर पाई। आज शनिवार,दूसरा शनिवार। विनय का ऑफ होता है और मेरा फुल डे वर्किंग डे। विनय का सब काम आराम से करने का दिन। विनय सुबह गार्डन ठीक करते हैं,फिर अखबार और बार-बार चाय। एक बजे लंच। किचन समेट मैं कमरे में आई,रेडियो चालू किया और खिड़की खोली। पेड़ के नीचे वही लड़का-लड़की आकर बैठे थे। विनय ने मुझे टोका,-“क्या तनु,भरी दोपहरी में खिड़की से गरम लपट आएगी।” मैं अपनी धुन में थी,बोल पड़ी,-“नहीं विनय,पिछले कुछ दिनों से मैं जब भी ये खिड़की खोलती हूँ, एक पॉजिटिव एनर्जी कमरे में आती है। एक ऐसा अहसास जो दोपहर की गर्मी को छांट देता है,और गाने सुनते दोपहर कट जाती है।” अच्छा विनय मुस्करा उठे। “तुम औरतें भी ना,पॉजिटिव एनर्जी के रास्ते ढूंढ ही लेती हो,जैसे चाय के प्याले,रेडियो के बोर करते गानों में…” “आप भी ना…बस हर बात का मजाक बना देते हैं।” विनय उठकर मेरे पास आ गए। हाथ में चाय का प्याला देखकर बोले,-“अच्छा! तो दफ्तरवालों की तरह घरवालियां भी लंच टाइम में चाय पी लेती हैं। पॉजिटिव एनर्जी वाली।” विनय भी खिड़की के पास मेरे साथ आ खड़े हुए थे।

“ऐ…तनु,देखो,तुम्हारे बैंगनी फूलोंवाले पेड़ के नीचे प्यार की कोंपलें फूटने लगी हैं।” ये चहक कर बोले।

“हाँ,आजकल यह जोड़ा रोज ही आकर यहां बैठता है।”

“तो पॉजिटिव एनर्जी यहीं से आती है! “विनय मुस्करा उठे।

मैं खिसिया गई,जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो।

“आप भी ना…’

विनय ने मुझे बाँहों में समेटते हुए,आँखें मूंदकर कहा,-“सदियों से एक ही लड़का है,एक ही लड़की है,एक ही पेड़ है। दोनों वही मिलते हैं,बस,नाम बदल जाते हैं और फूलों के रंग भी। कहानी वही होती है। किस्से वही होते हैं। पेड़ कभी-कभी गुलमोहर का होता है या बैंगनी फूलोंवाला,क्या फर्क पड़ता है। द एंड सभी का एक-सा ही…l”

विनय खिड़की बंद कर लेट गए। पास ही के तकिये पर करवट बदलते हुए मैं महसूस कर रही थी। विनय के अंदर भी यादों का कोई पन्ना खुल गया है शायद। तो क्या,बैंगनी फूलोंवाले पेड़ ने इनके अंदर भी स्मृतियों के विस्मृत होते किसी पन्ने की धूल झाड़ दी ? मेरे आम के पेड़ का राज समझते हुए इन्हें कोई गुलमोहर याद आ गया। रेडियो चालू किया…शुरू हो रही थी गुलजार साहब की एक नई नज्म:

“मैं कायनात में,सय्यारों से भटकता था

धुएं में,धूल में उलझी हुई किरण की तरह

मैं इस जमीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक

गिरा है वक्त से कट के जो लम्हा,उसकी तरह”

मैंने उठकर देखा,खिड़की से,जोड़ा चला गया था। शायद कल फिर मिलने का वादा लेकर।

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