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भारतीय:भावुक और भुलक्कड़ भी…

तारकेश कुमार ओझा
खड़गपुर(प. बंगाल )

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हम भारतीय भावुक ज्यादा हैं या भुलक्कड़..! अपने देश में यह सवाल हर बड़ी घटना के बाद पहले से और ज्यादा बड़ा आकार लेने लगता है। मीडिया ऊंचाई या व्यापक चर्चा के नजरिए से देखें तो अपने देश व समाज में मुद्दे बिल्कुल बेटिकट यात्रियों की तरह पकड़े जाते हैं। आपने गौर किया होगा कि भारतीय रेल के हर स्टेशन पर ट्रेन खड़ी होते ही काले कोट वाले टिकट चेकर की फौज की निगाहें अपने संभावित शिकार पर जम जाती है…। यात्रियों का रेला निकला और कोई एक शिकार काले कोट वालों की जद में जा पहुंचा तो फिर शुरू हो गई जांच-पड़ताल। इसके बाद भले ही दर्जनों की संख्या में बेटिकट यात्री काले कोट वालों के सामने से गुजरते हुए धड़ाधड़ निकलते जाएं,लेकिन जो इनके चंगुल में फंस गया तो समझो फंस गया…। जुर्माना या जेल जैसी जलालत भरी प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही बेचारे की मुक्ति संभव है। इसी तरह ‘ब्रेकिंग न्यूज’ या ‘बर्निंग न्यूज’ की गिरफ्त में जो आया तो समझो बेचारे की सात पुश्तें तरने के बाद ही वह व्यापक चर्चा के चक्रव्यूह से निकल पाएगा। यह तो हुई हमारी भावुकता। अब बात करते हैं भूलने की बीमारी यानी भुलक्कड़पन की…तो हमसे ज्यादा भुलक्कड़ शायद ही कोई हो। अपने आसपास ऐसे अनिगनत चेहरे ही नहीं,बल्कि स्थान भी हैं जो कभी महासितारे की मानिंद सुर्खियों में रहते थे,लेकिन कालचक्र में आज उनका नामलेवा भी नहीं बचा। २०११ के अन्ना हजारे के नेतृत्व में चला लोकपाल विधेयक आंदोलन तो आपको याद होगा। तब हजारे गांधी से भी बड़े नेता करार दिए गए थे। उनकी अंगुली पकड़कर चलने वाले बंगले से महलों तक पहुंच गए,लेकिन खुद बेचारे अन्ना के सितारे आज गर्दिश में हैं। कभी-कभार उनकी चर्चा महज उनकी अस्वस्थता को लेकर ही हो पाती है। न किसी की दिलचस्पी उनके विचारों को जानने में होती है,और न उनके इस हाल के कारणों को समझने में। पुलवामा से लेकर बालाकोट प्रकरण तक के घटनाक्रम के बाद देश में उमड़े देशभक्ति के ज्वार को देख सुखद आश्चर्य हुआ। चीन या पाकिस्तान से पहले हो चुकी लड़ाइयों के किस्से इतिहास में पढ़े और दूसरों से सुने ही हैं,लेकिन कारगिल युद्ध अच्छी तरह से याद है। तब भी माहौल कुछ ऐसा ही था। हालांकि,प्रचार माध्यम या सोशल मीडिया तब इतने प्रभावी रूप में मौजूद नहीं था। फिर भी पुलवामा के बाद उत्पन्न परिस्थितियों की तरह ही गली-चौराहों तक देशभक्ति की मिसालें मन में आश्वस्ति पैदा करती थी। भारतीय क्रिकेट टीम के २०-२० और विश्व कप जीतने के बाद भी देशभक्ति की भावना कुछ-कुछ ऐसे ही हिलोरे मार रही थी,लेकिन इस भावुकता पर लगता है हमारा भुलक्कड़पन हमेशा भारी पड़ता है। वर्ना क्या वजह है कि,अभी कुछ दिन पहले तक सुर्खियों में रहे ‘मी टू’ प्रकरण पर अब कोई बात भी नहीं करता,जबकि कुछ महीने पहले इस मुद्दे पर पुलवामा प्रकरण से भी बड़ा बवंडर उठ खड़ा हुआ था। अमूमन रोज ही दो-तीन प्रसिद्ध हस्तियाँ इसकी भेंट चढ़ रही थी। बेचारे एक वजीर की कुर्सी इसकी आग में झुलस गई। निरीह और असहाय से नजर आने वाले गुजरे जमाने के कई कलाकार पेंशन पाने की उम्र में ‘मी टू’ विवाद पर सफाई पेश कर रहे थे। उनके चेहरे पर उड़ रही हवाइयां उनकी हालत बयां कर रहीं थी,लेकिन फिर अज्ञात कारणों से यह विवाद ठंडे बस्ते में चला गया। सोचता हूँ आखिर यह कैसे हुआ। क्या ‘मी टू’ के वादी और प्रतिवादी पक्षों के बीच कोई समझौता हो गया,या फिर नया मुद्दा मिल जाने से प्रचार तंत्र ने ही उसे परे धकेल दिया। कहीं समाज की दिलचस्पी ‘मी टू’ विवाद में खत्म तो नहीं हो गई,या फिर यह हमारे भुलक्कड़पन का नतीजा है। संतोष की बात यही है कि ‘मी टू’ के ठंडे बस्ते में चले जाने से इसकी आग में झुलसी हस्तियों को थोड़ी राहत तो मिली ही होगी। वाकई,ज्यादा नहीं ‘मी टू’ से पुलवामा प्रकरण के बीच हुए घटनाक्रम के मद्देनजर गहरी सोच में पड़ जाता हूँ कि हम भावुक ज्यादा हैं या भुलक्कड़…।

परिचय-तारकेश कुमार ओझा का नाम खड़गपुर में वरिष्ठ पत्रकार के रुप में जाना जाता है। आपका निवास पश्चिम बंगाल के खड़गपुर स्थित भगवानपुर (जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है। आपकी लेखन विधा अनुभव आधारित लेख,संस्मरण और सामान्य आलेख है।श्री ओझा का जन्म स्थान प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) हैl पश्चिम बंगाल निवासी श्री ओझा की शिक्षा बी.कॉम. हैl कार्यक्षेत्र में आप पत्रकारिता में होकर उप सम्पादक हैंl आपको मटुकधारी सिंह हिंदी पत्रकारिता पुरस्कार तथा श्रीमती लीलादेवी पुरस्कार के साथ ही बेस्ट ब्लॉगर के भी कई सम्मान मिल चुके हैंl आप ब्लॉग पर भी लिखते हैंl  

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