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भारतीय संस्कृति मर्मज्ञ स्वामी विवेकानंद जी

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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स्वामी विवेकानंद जयंती विशेष….

स्वामी विवेकानन्द जी माता काली के अनन्य उपासक,सन्त श्री रामकृष्ण परमहंस जी के प्रियतम शिष्य थे। कॉन्वेंट में पढ़े स्वामी जी ने जिज्ञासा के चलते ईश्‍वर को समझने के लिए सनातन धर्म को जाना,क्योंकि उनके पिताजी एक प्रख्यात अधिवक्ता थे और उनका झुकाव पाश्चात्य सभ्यता की ओर था। स्वामीजी बहुत ही सरल स्वभाव एवं उच्च विचार वाले सनातनी थे। अल्पायु में ही स्वामीजी साधु बनकर दुनिया को असली भारत,यहां की संस्कृति और सभ्यता की पहचान जिस तरह से करा गए,उनसे उनका नाम भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में स्वतः ही अंकित हो गया है।
स्वामीजी से सम्बन्धित एक प्रसंग ध्यानार्थ-
एक बार स्वामी विवेकानंद अपने प्रवचन में ईश्वर के नाम की महत्ता बता रहे थे। तभी वहां बैठा एक व्यक्ति प्रवचन के बीच में ही उठ कर बोलने लगा-शब्दों में क्या रक्खा है। उन्हें रटने से क्या लाभ ?
विवेकानंदजी कुछ देर चुप रहे। फिर उन्होंने उस व्यक्ति को सम्बोधित करते हुए कहा-तुम मूर्ख और जाहिल ही नहीं,नीच भी हो।
इतना सुन वह व्यक्ति तुरन्त आग-बबूला हो गया।
उसने स्वामी जी से कहा,आप इतने बड़े ज्ञानी हैं, क्या आपके मुँह से ऐसे शब्दों का उच्चारण शोभा देता है ? आपके वचनों से मुझे बहुत दुःख पँहुचा है। मैंने ऐसा क्या कह दिया जो आपने मुझे इस प्रकार बुरा-भला कहा।
स्वामी जी ने हँसते हुए उत्तर दिया,भाई,वे तो मात्र शब्द थे। सुनने वालों की समझ में आ गया कि क्यों स्वामी जी ने उस व्यक्ति को अपशब्द कहे थे।
स्वामी जी ने प्रवचन में आगे बताया कि जब अपशब्द क्रोध का कारण बन सकता है तो अच्छे शब्द ईश्वर का आशीर्वाद भी दिला सकते हैं। शब्दों की महिमा द्वारा हम ईश्वर की निकटता का अनुभव कर सकते हैं।
अनेक कारण हैं,जिसके चलते आज भी सभी स्वामीजी को बहुत याद करते हैं,क्योंकि उन्होंने अल्पायु में ही हमें धर्म को देखने का,यह कह कर ‘उत्तिष्ठत: जाग्रत: प्राण्य वरान् निवोधत:’ यानि इस धर्म पर किसी वर्ग विशेष का एकाधिकार नहीं है,एक वैज्ञानिक नज़रिया दिया,जो आज के समय में भी बहुत ही प्रासंगिक साबित हो रहा है ।

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