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भाषा के बदलते रूप

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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भाषा के बदलते रूप कई हैं-मसलन् राजनीतिक विचार में भाषा के अपने शब्द-अर्थ हैं, सामाजिक विचारों में उससे भिन्न शब्दार्थ होते हैं। अर्थ, धर्म व दार्शनिक चिंतन में विचारों के अपने सुगठित भाषायी शब्दार्थ हैं। यानि जिसका जैसा कार्य क्षेत्र, वैसे विचारधारा से जुड़े भाषाजनित शब्दार्थ मौजूद हैं। पाठक व आलोचक उन विचारों के साथ अपने विचारों का समन्वय कर कथन व व्याख्या करते हैं। लेखक, पाठक व समीक्षक आदि के विचार संयोग से जो वस्तु तैयार होती है, उसे प्रमाणित करना उतना ही कठिन कार्य होता है। स्पष्ट है कि, यह तथ्य इस बात पर निर्भर करता है कि लेख या रचना पढ़कर व्याख्या वाला कौन है ?, क्योंकि किसी वाक्य के कई अर्थ प्रकट करने या चुनने वाले ही भाषा के रूप को बदल देते हैं ?
लेखक के विचारों से सुसंगत रखने वाले विचार मैत्रीभाव को समर्पित होते हैं। यानि कि लेखक की प्रतिकूलता से रक्षा करने में सहायक सिद्ध होते हैं। वैसे लेखक के विचारों को संग्रहित करना आसान कार्य नहीं है। लेखक ने भी अपने बचपन से लेकर अब तक की सम-सामयिक अवस्थाओं से गुज़र कर ही विचार निर्माण किए होते हैं। “जिस व्यक्ति का लेखन एक बहुत लम्बे चिंतन-काल से जुड़ा हुआ हो, उसकी रचनाधारा को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखना ही उचित होता है।” अत:, ये विचार कई बार परिवर्तित हो ज्ञानधारा से परिपोषित हुए होते हैं। इस प्रक्रिया को किसी नियम से बाँधा भी नहीं जा सकता। समीक्षक व पाठक को लेखक के विचारों को विभिन्न भागों में तय करना पड़ता है कि, कौन-सा अंश मुख्य है, कौन-सा अंश गौण और सम-सामयिक चिंतन से प्रभावित होकर प्रवाह हो रहा है।
ऐसे ही अनुवाद करते समय लेखक के सूक्ष्म भावों को ज्यों का त्यों भाषा में उतारना टेढ़ी खीर के समान है, क्योंकि लेखक की भाषा अनुवादक की भाषा से भिन्न होती है। प्रत्येक भाषा में प्रत्येक शब्दों के विशिष्ट अर्थ व संकेत होते हैं। अनुवादक को भाषा के बदलते रूप से बचने के लिए एक स्वाभाविक क्रिया से गुज़रना पड़ता है, ताकि वाक्य में उत्पत्ति व्यंजना वाक्य अनुरूप बनी रहे। ऐसी स्थिति में भाषा के प्रति आलोचक अपना दायित्व निभा सकता है, लेकिन भाषा के बदलते रूप को रोक नहीं सकता है। लेखक अपनी रचना में किस बात को अधिक महत्व देता है और किस बात को कम महत्व देता है, यह तथ्य उसकी रूचि व मत पर निर्भर करता है। समीक्षक की अभिरूचि व अभिमत लेखक से सहमत हो या न हो, इसका कोई सैद्धांतिक नियम व आधार नहीं है। यानि पाठक व आलोचक को कतिपय तथ्यों से किसी कारणवश किन्हीं-किन्हीं तत्वों से सहमत या असहमत होना पड़ता है।
यह भी सत्य है कि, लेखक व आलोचक दोनों की भाषा पूर्ण जीवन विकास के साथ-साथ आंतरिक प्रकृति में अपने राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक परिवेश से जनित होते हुए भी विरोधाभास रखती है। अनेक ऐसे कारण होते हैं, जो अपने वातावरण से प्रत्यक्ष ग्रहण न कर अप्रत्यक्ष मनोभावों पर अमिट छाप छोड़ते हैं। बाह्य वस्तुओं का आकर्षण मात्र एक पल के लिए मान लेने से बात समाप्त नहीं होती, बल्कि यह आकर्षण आंतरिक स्तर पर अपने गहरे आत्मविरोध से क्षणभंगुर हो भाव प्रधान बन आत्मसात के प्रयास में सफल हो जाता है। और सदैव एक ऐसे अवसर की तलाश में जुट जाता है, जो उस आकर्षण से मेल रख त्वरित प्रस्फुटित हो जाए। तब लेखक को आराम मिलता है कि, जो उसके मन में काफी समय से गृहित था, जिसे अभिव्यक्ति का अवसर पाकर किया है, जो कहना था, कह दिया है। ठीक इसके विपरीत आलोचक इस क्षणभंगुरता के निकट भी दिखाई नहीं पड़ता। अर्थात् ऐसी स्थिति में भाषा का रूप परिवर्तित होना स्वाभिक गुण बन जाता है। जो क्षण आलोचक ने भोगा ही नहीं, उसकी व्याख्या करते समय भाषा अपने अर्थगृहित में रूप बदलेगी ही।

अमूमन आलोचक की इस भूल का परिणाम लेखक की रचना को भुगतना पड़ता है, जिससे लेखक की शक्ति का ह्रास भी होता है। वास्तव में, परिवेश व परिस्थिति प्रभाव द्वारा दोनों की बुद्धि-शक्ति व करम-शक्ति का समग्र रूप ही भाषा के बदलते रूप तय करता है। भाषा का बदलता स्वरूप अपने समय की पहचान होता है। लेखकों की भाषा के परिवर्तित रूप का चश्मदीद गवाह हिंदी साहित्य का इतिहास आज भी उपलब्ध है। नियमबद्ध रची काव्य रचनाएँ व गद्य साहित्य में रचे तत्कालीन मुहावरे-कहावतें या लोकोक्तियाँ और पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, अवधी, खड़ी बोली, हिंदी-उर्दू-अंग्रेज़ी व लोकभाषा गठित मिश्रित रचनाएँ आदि अपने-अपने समय को प्रतिपादित करती हैं। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं कि, भाषा का बदलता रूप समय की माँग को निर्धारित करता है।

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