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भाषा पर चिन्ता प्रकट करता समाज

भाषा और संस्कृति के अंर्तसंबंधों पर भारतीय मनीषियों ने हर एक समय-काल में चिंतन किया है। उस चिंतन को अपने वक्तव्यों, विमर्शों, लेखन और संवादों द्वारा समाज तक पहुँचाने की कोशिश भी करता रहा है। अनेक समय-कालों में ये चिंतक सफल हुए हैं। हमारे समयकाल में इनकी चिंताएं समाज ने अनसुनी की हैं। भाषा के चिंतक, अपने प्रयत्नों से आज भी भाषा, संस्कृति के संदर्भों पर विमर्श कह रहे हैं, मगर आज की इलेक्ट्रॉनिक-प्रिंट मीडिया इन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे रही है। इसे आप समाचार पत्रों में साहित्य और व्याकरण के लिए समाप्त हो रही जगह से देख सकते हैं। अब कौन समाचार-पत्र साहित्यिक परिशिष्ट प्रकाशित कर रहा है ? अभी हाल ही में बनी फिल्म ‘आदिपुरूष’ पर उठे भाषायी संदर्भ को देखिए। जिन लोगों ने इस फिल्म की भाषा के स्तरहीन होने पर सवाल उठाया है, वास्तव में उनका अभिनंदन होना चाहिए। आशा करनी चाहिए भाषा के संदर्भ में ये चिन्ताएं समाज में बची रहें। इस संदर्भ में व्याप्त राजनीति, अखाड़ेबाजी के साथ, हम संदर्भित नहीं हैं, मगर भाषा के सांस्कृतिक स्वरूप की हर हाल में रक्षा हो। यह मांग हमारी भी है।
भारत सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत सम्पन्न सबसे पुराना राष्ट्र है। एकसाथ विकसित हुई नील नदी घाटी की सभ्यता, सिंधु घाटी की सभ्यता, यांगटिसीक्यांग नदी घाटी की सभ्यता और फरहत घाटी की सभ्यताओं में अब केवल सिंधु नदी की घाटी की सभ्यता अपने मूल्यों के साथ शेष बची है न! इस बचाव में हमारी भाषाओं का सबसे बड़ा योगदान है, जिसे हम संस्कृति कहते हैं, वह भाषाओं में ही सुरक्षित है। जिन-जिन राष्ट्रों की भाषाएं नष्ट की गई, उनकी संस्कृतियों के नाम लेवा भी अब नहीं बचे। ‘‘कुछ बात है कि हस्ती/मिटती नहीं हमारी’’ का चिन्तन करने से जो उत्तर मिलता है, वे हमारी भाषाएं ही हैं। संस्कृति को ‘’हिंग्लिश’ और ‘स्तरहीन’ भाषा में नहीं लिखा जा सकता। आजकल सोशल मीडिया पर प्रसिद्धि पाए लोग सांस्कृतिक विमर्श के लिए जब स्तरहीन भाषा का उपयोग करते हैं, तब ऐसा ही वातावरण निर्मित होता है, जैसा हमारे समय में है।
जिसकी आशंका भाषाविद् पहले से ही प्रकट कर रहे थे, वह दृश्य अब सामने आ गया है। भाषा की दृष्टि से जिस तरह की पीढ़ी हमने तैयार की है, उससे ‘तत्सम’ शब्दावली की भाषा की आशा करना व्यर्थ है। संकट इतना गहरा गया है कि, तत्सम शब्दावली में बोलने और लिखने वाले विद्वानों को यह आशंका बनी रहती है कि उनकी बात संप्रेषित होगी भी या नहीं। इनकी यह सोच अन्यथा नहीं है, क्योंकि नई पीढ़ी के मानस में भाषा का यह प्रांजल स्वरुप स्थापित नहीं किया गया है। इसका मुख्य कारण है कि, इन पीढ़ियों को भाषा-व्याकरण की शिक्षा नहीं दिया जाना है। जब तक शिक्षा में भाषा, व्याकरण और साहित्य को पर्याप्त स्थान मिलता रहा है, तब तक समाज में साहित्य और भाषा पर विमर्श करने का वातावरण बना रहा है। जब शिक्षा को केवल रोजगारोन्मुखी बनाया गया और सांस्कृतिक मूल्यों से हटा दिया गया, तब से भाषायी संकट बढ़ने लगा है। बढ़ती जनसंख्या को कार्य में नियोजित करने की चिन्ता सत्ताओं को करनी ही चाहिए, मगर साथ ही साथ सांस्कृतिक संरक्षण के उपाय भी करना चाहिए।
‘रामायण’ और ‘महाभारत’ पर पूर्व में भी धारावाहिक बनाए गए। उन्हें दर्शकों ने पूरे समर्पण के साथ देखा। इनकी सधी हुई सांस्कृतिक भाषा की सबने प्रशंसा की। भाषा को साधने और पात्रों के अनुकूल बनाने का उद्यम भी इन लेखकों ने किया। इनके लेखक भाषा के महत्व को समझते थे और यह जानते थे कि भाषा ही है, जो पीढ़ियों के बीच पुल बनती है, जिस पर चलकर ही जीवन मूल्य पीढ़़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते रहते हैं।
इतने बडे़ और पुराने राष्ट्र में सांस्कृतिक विमर्श स्तरहीन भाषा में संभव नहीं है। प्रसन्नता इस बात की है कि, इस विकट समय में भी लोग भाषा के मार्मिक स्वरुप की मांग कर रहे हैं। यह उम्मीद है कि, बीज रुप में चिंताएं जीवित है। इन्हीं के माध्यम से भविष्य में भाषा पर विमर्श होगा और यह राष्ट्र अपनी सांस्कृतिक जड़ों को और अधिक पुष्ट करेगा।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)