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‘मनुष्यता’ ही साहित्य का प्रदेय

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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‘साहित्य समाज का दर्पण होता है’, इस पंक्ति से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। किसी भी काल-खंड की तस्वीर जब हम देखना चाहते हैं, तो उस दौर का साहित्य उठाते हैं और शोध-परिशोध के शिकंजे पर कस कर साहित्य-आइने में उस काल-खंड का अवलोकन करते हैं। इस शीशे को फ्रेम बद्घ करना एक सजग साहित्यकार का काम होता है। यानी संक्षेप में कहें तो इन तीनों का आपस में गहरा नाता है। भविष्य के फलक पर वर्तमान का यथार्थ अपनी कलम छैनी और कल्पना मिश्रित अनुभूति के हथौड़े से चित्रित करना जहां साहित्यकार का काम है, वहीं समाज की पीड़ाओं के आत्मसातित भावबोध के उस उद्घाटन का नाम ही साहित्य है। स्पष्ट है कि, साहित्य और साहित्यकार के दरम्यान समाज ही केंद्र बन कर रहता है।
साहित्य मौखिक और लिखित दोनों रूप में अनादिकाल से विद्यमान होकर अपनी सेवाएं दे रहा है। इसके अनवरत प्रवाह के चलते इसने अनेक पड़ावों को पार कर घाट-घाट का पानी पीया है। जहां साहित्य का प्रारंभिक रूप पौराणिक दंत कथाओं के रूप में लंबे समय तक मौखिक चलता रहा, वहीं श्रुतियों-स्मृतियों ने इस कड़ी को बनाए रखने की अपार भूमिका अदा की। समय बदला, परिस्थितियाँ बदली, तो इसी मौखिक रूप ने लिखित रूप धारण किया और अपने समय के साक्ष्य देने का जिम्मा उठाया। वेदों -वेदांतों से गुजरते हुए यह रामायण-महाभारत जैसी महा लोक कथाओं को पार कर जब हिन्दी साहित्य के आदिकाल में प्रवेशित हुआ तो इसने अपना मिजाज सिद्धों-नथों की चमत्कृत अनुभूतियों के साथ बदल दिया।
यह सच है कि, उस दौर में भी इसने वीर रस का पान करते हुए श्रृंगारित अनुभूतियों और युद्घिय वातावरण का चित्रण करने में कोई कोर- कसर न छोड़ी। जहां-जहां इसे वात्सल्य, वीभत्स आदि दृश्यों को उद्घाटित करना था, सो भी कुल मिलाकर बखूबी किया। यानी इस काल में भी साहित्य की मूलभूत योग्यता और क्षमताओं का प्रदर्शन साहित्यकारों ने संतुलित किया। अब भक्ति काल या मध्यकाल में तो विशेष कर हिंदी साहित्य का यौवन ही निखर आया था। साहित्यिक रसों, गुणों, शब्द शक्तियों और छंद-अलंकारों के साथ-साथ साहित्य लेखन की महा विधाओं का उत्कर्ष ही निखर आया। इस काल-खंड के साहित्यकारों ने समाज की स्थिति को अपनी लेखनी की नोंक से जिस क़दर साहित्य में उतारा, वह सच में काबिले तारीफ है। यह तो हिन्दी साहित्य का वह काल है, जिसे कोई चाह कर भी भुला नहीं सकता। रीति काल में जहां दरबारी साहित्य की झलक के साथ श्रृंगारिकता का दर्शन होता है, तो वहीं आधुनिक काल में छायावादी कवियों का प्रकृति प्रेम दिखता है। आधुनिक काव्य साहित्य, साहित्यिक परम्पराओं को तोड़ता हुआ छंद मुक्त हो गया और इधर काव्य रचना की परिपाटी को तोड़ता हुआ गद्य साहित्य के क्षेत्र में उद्भूत हुआ।
यह तो भारतीय साहित्य परम्परा की एक संक्षिप्त गाथा है, परंतु साहित्य मात्र भारत में ही नहीं रचा गया। साहित्य तो विश्व के हर कोने- कोने में और हर जाति-धर्म में अपनी-अपनी भाषाओं में और अपनी-अपनी तहजीब में रचा गया। इधर, यहूदी धर्म की पवित्र पुस्तक ‘बाईबल’ से क्रिश्चियन धर्म का साहित्य शुरू हुआ और आधुनिक ईसाई मिशनरियों व इलियट जैसे प्रसिद्ध कवियों की कृतियों के साथ पल्लवित एवं संवर्धित हुआ। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद यदि हिन्दुओं के पवित्र और पुरातन ग्रंथ हैं तो इंजल, जबूर, तोरात और कुरान मजीद या कुरान शरीफ इस्लाम के पवित्र और पुरातन ग्रंथ हैं। अब चाहे पारसियों का साहित्य उठाओ या फिर बौद्ध, जैन या सिखों का साहित्य उठाओ। धम्मपद, त्रिपिटक और गुरु ग्रंथ साहिब जैसे पवित्र ग्रंथों का अध्ययन करने या फिर किसी भी धर्म या संप्रदाय के साहित्य का अवलोकन करने पर जो कुछ हमें प्राप्त होता है, वह सब साहित्य का ही प्रदेय है।
जाति, धर्म और संप्रदाय को छोड़कर यदि हम भाषा के आधार पर भी साहित्य को देखने की कोशिश करेंगे, तो वह भी अपने-आपमें एक महत्वपूर्ण कड़ी है। अब चाहे संस्कृत का साहित्य हो या फिर हिंदी का। उधर, अंग्रेजी, अरबी, फारसी या ऊर्दू का साहित्य हो, या फिर पाली प्राकृत भाषा में रचित पंजाबी, चीनी आदि विभिन्न भाषाओं में विपुल साहित्य की रचना हमें पढ़ने के लिए मिलती है। बात यहीं खत्म नहीं होती। बात तो यहाँ से शुरू होती है कि, साहित्य का प्रदेय क्या है ?
यह प्रश्न जितना सरल है, उतना ही उत्तर भी सरल है। सीधी-सी बात है कि, विश्व के मानव मात्र के मन-मस्तिष्क में आज जो कुछ भी ज्ञान भरा पड़ा है, वह सब संसार के विविध साहित्य की ही देन है। इस संसार में साहित्य विद्यमान नहीं होता, तो न ही तो संस्कृति और सभ्यता विकसित होती और न ही मनुष्य के पास मानव कल्याण एवं समाज उत्थान सम्बन्धी ज्ञान-विज्ञान होता। साहित्य ने हमें क्या नहीं दिया ? साहित्य की देन को समझने के लिए हमें अनादि काल के उस परिप्रेक्ष्य में जाना होगा, जहां से मौखिक साहित्य का उदय हुआ था। हम भली-भांति जानते हैं कि, साहित्य के २ रूप हमें देखने को मिलते हैं-मौखिक साहित्य व लिखित साहित्य।
संसार की हर भाषा का साहित्य इन २ विभाग में बंटा हुआ है। जब मनुष्य को पढ़ना-लिखना नहीं आता था तो अवश्य ही उस काल खण्ड में हर भाषा का साहित्य मौखिक रूप से लंबे समय तक लोक में प्रचलित रहा। इन दोनों साहित्यिक विभागों के प्रदेय को समझने के लिए हमें इन्हें अलग-अलग तरीके से समझना होगा।
◾मौखिक साहित्य का प्रदेय-
मौखिक साहित्य हर भाषा में श्रुति-स्मृति परम्परा में ही विद्यमान रहा। इस साहित्य ने जहां मानव मस्तिष्क और हृदय में भावनाओं एवं कल्पनाओं का विकास किया, वहीं मानवीय संस्कृति एवं सभ्यता को पाशविक संस्कृति एवं सभ्यता से पृथक करने में भी अहम भूमिका अदा की। धर्मों के आधार पर यदि हम मानव परम्पराओं को समझने की कोशिश करेंगे तो उसमें कई गतिरोध पैदा हो जाते हैं। इधर, हिंदू मतानुसार यदि पुनर्जन्म की परिकल्पना की गई है तो इस्लामिक धर्म इसके विपरीत चलता है। इस कड़ी को ठीक से समझने के लिए यदि हम प्रागैतिहासिक घटनाओं और पुरातत्वविदों की परिकल्पना को ही वैज्ञानिक पृष्ठभूमि से जोड़कर आधार मानें तो मौखिक साहित्य की देन का ठीक-ठीक विश्लेषण कर पाएंगे। इस दृष्टि से माना जाता है कि, मनुष्य का विकास पशु योनि से धीरे-धीरे विकसित होकर आदिमानव के रूप में हुआ। वह मौखिक ज्ञान-विज्ञान के आश्रय से बौद्धिक रूप से विकसित होता गया और उसी बौद्धिक ज्ञान-विज्ञान के आधार पर उसने अपने बाह्य वातावरण और अपने शरीर को निरंतर परिष्कृत करके नवीन ढर्रे में ढालने की कोशिश की। आज का सभ्य मानुष उस आदिमानव का परिवर्धित एवं परिष्कृत रूप है।
यदि इस बात को आधार माना जाए तो यह स्पष्ट है कि, मौखिक साहित्य में सचमुच समाज के लिए बहुत कुछ दिया है। यह वह काल था जब मनुष्य ने धीरे-धीरे सोचना शुरू किया था। सोची हुई बातों को वैचारिक ताने-बाने में गूंथना शुरू किया था। इतना ही नहीं, उन गुंथी बातों को कहानियों का रूप देकर के उन्हें स्मरण रखने की कला सीख ली थी। यह मौखिक साहित्य जितना प्रासंगिक उस काल खण्ड में था, उतना ही प्रासंगिक आज के दौर में भी है। यही साहित्य की वह विधा है, जो पुरानी पीढ़ी का ज्ञान एवं अनुभव नई पीढ़ी में संप्रेषित करती है और नई पीढ़ी को उसके आगे आने वाली नई पीढ़ी के लिए ज्ञान- विज्ञान संप्रेषित करने के काबिल बनाती है। हमें याद है कि, हमारे घरों में हमारी दादियाँ और नानियाँ हमें ढेरों कहानियाँ मौखिक रूप से सुनाया करती थी और उन्हें सैकड़ों की तादात में जुबानी ही याद थी। उन कहानियों में मानवीय मूल्य, सामाजिक प्रेरणा और उदात्त भावनाओं के साथ-साथ मानवीय संबंधों को सुदृढ़ करने की एक विशेष परिकल्पना विद्यमान रहती थी। अतः कहना न होगा कि, मौखिक साहित्य ने वैश्विक धरातल पर अपना जो योगदान समूची मानव जाति को दिया है ,वह सचमुच अविस्मरणीय है।
दया, करुणा, मानवता, जिजीविषा, प्रेम, सामाजिकता, सहनशीलता, सहानुभूति, विश्वसनीयता, विनम्रता, मेहनत, धार्मिकता, आध्यात्मिकता और खोज-बीन जैसे गुण यदि मनुष्य में विद्यमान हुए हैं तो इसका मुख्य साधन मौखिक साहित्य ही रहा है। कहना न होगा कि हम लोग पढ़े-लिखे आदिमानव कहलाते। यह बात जरूर है कि, हर समाज एवं धर्म में अपनी-अपनी सृष्टि रचना का क्रम धार्मिक ग्रंथों में वर्णित किया गया है, परंतु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मनुष्य प्रकृति का एक अभिन्न अंग है और उसने अवश्य ही मौखिक साहित्य का सहारा लेकर के आज तक के समाज तक पहुंचते-पहचते बहुत प्रगति की है। सेवा, साधना और समर्पण की भावनाएं यदि मनुष्य के भीतर किसी ने भरी है तो वह मौखिक साहित्य ने ही भरी है। वरना आज की पढ़ी लिखी पीढ़ी में ये गुण दूर-दूर तक देखने को नजर नहीं आते। कारण यही है कि, आज का बालक दादियों और नानियों की उन मौखिक कथा कहानियों को नहीं सुनता है। इसलिए, उसके व्यवहार में प्यार कम और विकार ज्यादा प्रभावी हो रहे हैं।
◾लिखित साहित्य की देन-
जहां मनुष्य के आंतरिक भावबोध और संस्कारों का निर्माण करना मौखिक साहित्य की देन रहा है, वहां मन-मस्तिष्क के बाह्य सामाजिक और व्यवहारिक पक्ष को अधिक कलात्मक व रोचक बनाना लिखित साहित्य की देन है। यह बात जरूर है कि, लिखित साहित्य बहुत लंबे समय के बाद अस्तित्व में आया, परंतु जो भूमिका लिखित साहित्य ने मनुष्य जाति के लिए अदा की है वह अपने-आपमें अभिन्न है। जब से लिखित साहित्य अस्तित्व में आया, तब से मनुष्य ने अपनी सभी सामाजिक घटनाओं को लिखित रूप से संग्रहित करने की कला सीख ली और उसे अपने पास में संजो कर रखने का उपक्रम जान गया। यह साहित्य का वह पक्ष है, जो किसी भी समाज विशेष की और किसी भी काल खण्ड की स्थिति को अपने में समेट कर भविष्य की पीढ़ी को आईने की तरह बीते समय का दिग्दर्शन करवाता है । जहां मनुष्य ने अपने व्यवहारिक पक्ष को इस साहित्यिक पक्ष द्वारा मजबूत किया, वहीं अपने सामाजिक पक्ष को भी साहित्य के इस पक्ष सेे सुदृढ़ किया। यह साहित्य का वह पक्ष है, जिसने विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं का वैचारिक आदान-प्रदान सुनिश्चित किया। इसी ने अनेक संस्कृति और सभ्यताओं को लिखित रूप देकर मानव समाज के लिए सुरक्षित रखा। यही वह पक्ष है, जिसने मनुष्य को योग्य एवं साक्षर बनाया। यही वह पक्ष है,जिसने मनुष्य में तर्क, विवेक, स्पर्धा और निरंतर संघर्ष करना सिखाया। अध्ययन और अध्यापन भी इसी पक्ष की देन है। आज के युग में अध्ययन एवं अध्यापन का जो महत्व बन गया है, वह किसी से नहीं छुपा है। अनुलेखन, अभिलेखन, पत्राचार या फिर स्तंभ लेखन आदि सारे उपक्रम इसी कड़ी की देन है। आज का मनुष्य यदि देश-विदेश में जा कर या फिर अंतरजाल के माध्यम से जो कुछ भी सीख रहा है या फिर अपना अनुभव वैश्विक धरातल पर संप्रेषित कर रहा है, तो वह साहित्य की इसी कड़ी का सहारा लेकर कर रहा है। लिखित साहित्य के माध्यम से ही आज यह संभव हो पाया है कि, प्राचीनतम से भी प्राचीनतम ज्ञान-विज्ञान से ले कर नवीनतम से भी नवीनतम ज्ञान-विज्ञान को हम आज तथ्यात्मक ढंग से खोजबीन करके पुष्ट कर सकते हैं और समझ सकते हैं। यही लिखित साहित्य की विशेष उपलब्धि है। संसार भर की समस्त भाषाओं का विपुल लिखित साहित्य मानव समाज को बहुत कुछ दे रहा है, और निरन्तर देता ही रहेगा।

सार रूप से यदि कहा जाए तो इन दोनों साहित्यिक पक्षों ने मनुष्य जाति को बहुत कुछ दिया है। आज यदि मनुष्य के पास कुछ भी ज्ञान-विज्ञान है तो उसका मूल कारण साहित्य ही है। फिर वह चाहे लिखित हो या मौखिक। मानव ने जो कुछ भी भावात्मक या विचारात्मक सांस्कृतिक और सामाजिक विकास किया है, वह साहित्य के बल पर ही किया है। यह बात अलग है कि, साहित्य के भी दो पहलू हैं-नकारात्मक साहित्य और सकारात्मक। आम तौर पर समाज का अधिकांश वर्ग साहित्य के सकारात्मक पक्ष को ही स्वीकार करता है और उसी के सहारे नई पीढ़ी को दशा- दिशा प्रदान करता है। यही साहित्य की असली प्रदेयता है और महत्ता है। अतः कहना न होगा कि, साहित्य का सकारात्मक सृजन पुष्ट समाज के निर्माण के लिए निरन्तर होते रहना चाहिए और उसके पठन-पाठन का भी कार्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी लगातार चलता रहना चाहिए।साहित्य ही समाज की वह ताकत है, जो किसी समुदाय और समाज को वैचारिक और व्यवहारिक रूप से समृद्ध बनाती है। यदि ऐसा न होता तो विदेशी आक्रांता हमारी भारतीय साहित्यिक कृतियों को लूट कर अपने देश नहीं ले जाते। इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि, साहित्य की प्रदेयता हर युग में विशेष रही है और रहेगी।