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महावीर के दर्शन और सिद्धांतों में सब समाधान समाहित

ललित गर्ग

दिल्ली
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जन्म जयन्ती (२१ अप्रैल) विशेष…

सदियों पहले महावीर जन्मे, पर वे जन्म से महावीर नहीं थे। उन्होंने जीवनभर अनगिनत संघर्षों को झेला, कष्टों को सहा, दु:ख में से सुख खोजा और गहन तप एवं साधना के बल पर सत्य तक पहुंचे, इसलिए वे हमारे लिए आदर्शों की ऊंची मीनार बन गए। उन्होंने समझ दी कि, महानता कभी भौतिक पदार्थों, सुख-सुविधाओं, संकीर्ण सोच एवं स्वार्थी मनोवृत्ति से नहीं प्राप्त की जा सकती। उसके लिए सच्चाई को बटोरना होता है, नैतिकता के पथ पर चलना होता है और अहिंसा की जीवन-शैली अपनानी होती है। महावीर का संपूर्ण जीवन स्व और पर के अभ्युदय की जीवंत प्रेरणा है। लाखों-लाखों लोगों को उन्होंने अपने आलोक से आलोकित किया है। वे सार्वभौम धर्म के प्रणेता थे, उनके मन में संपूर्ण प्राणी मात्र के प्रति सह-अस्तित्व की भावना थी। इस वर्ष भगवान महावीर की २५५० वां निर्वाण महोत्सव मनाया जा रहा है। उनकी जन्म जयन्ती एवं निर्वाण महोत्सव न केवल जैन धर्म के अनुयायियों के लिए, बल्कि सम्पूर्ण मानवता हेतु उन्नत जीवन का आधार है।
भगवान महावीर की मूल शिक्षा है- ‘अहिंसा’। सबसे पहले ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का प्रयोग हिन्दुओं का ही नहीं, बल्कि समस्त मानव जाति के पावन ग्रंथ ‘महाभारत’ के अनुशासन पर्व में किया गया था, लेकिन इसको अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलवाई भगवान महावीर ने। भगवान महावीर ने अपनी वाणी और अपने स्वयं के जीवन से इसे वह प्रतिष्ठा दिलाई कि, अहिंसा के साथ भगवान महावीर का नाम ऐसा जुड़ गया कि दोनों को अलग कर ही नहीं सकते। अहिंसा का सीधा-साधा अर्थ करें, तो वह होगा कि व्यावहारिक जीवन में हम किसी को कष्ट नहीं पहुंचाएं, किसी प्राणी को अपने स्वार्थ के लिए दुःख न दें। ‘आत्मानः प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत्’ इस भावना के अनुसार दूसरे व्यक्तियों से ऐसा व्यवहार करें, जैसा हम उनसे अपने लिए अपेक्षा करते हैं। इतना ही नहीं, सभी जीव-जन्तुओं के प्रति अर्थात् पूरे प्राणी मात्र के प्रति अहिंसा की भावना रखकर किसी प्राणी की अपने स्वार्थ व जीभ के स्वाद आदि के लिए हत्या न तो करें, न ही करवाएं और हत्या से उत्पन्न वस्तुओं का भी उपभोग नहीं करें।
एक बार महावीर और उनका शिष्य गोशालक घने जंगल में विचरण कर रहे थे। दोनों एक पौधे के पास से गुजर रहे थे। शिष्य से दुश्मन बन चुके गोशालक ने महावीर से कहा, -“यह पौधा देखिए, क्या सोचते हैं आप, इसमें फूल लगेंगे या नहीं लगेंगे ?” महावीर आँख बंद करके उस पौधे के पास खड़े हो गए, और कुछ देर बाद आँखें खोलते हुए उन्होंने कहा,-“फूल लगेंगे।”
गोशालक ने महावीर का कहा सत्य न हो, इसलिए तत्काल पौधे को उखाड़ कर फेंक दिया, और जोर-जोर से हँसने लगा। महावीर उसे देखकर मुस्कराए। ७ दिन बाद दोनों उसी रास्ते से लौट रहे थे। जैसे ही दोनों उस जगह पहुंचे, जहां गोशालक ने पौधा उखाड़ा था, उन्होंने देखा कि वह पौधा खड़ा है। इस बीच तेज वर्षा हुई थी, उसकी जड़ों को वापस जमीन ने पकड़ लिया, इसलिए वह पौधा खड़ा हो गया था।
महावीर फिर आँख बंद करके उसके पास खड़े हो गए। पौधे को खड़ा देखकर गोशालक बहुत परेशान हुआ। गोशालक की उस पौधे को दोबारा उखाड़ फेंकने की हिम्मत न पड़ी। महावीर हँसते हुए आगे बढ़े। गोशालक ने इस बार हँसी का कारण जानने के लिए उनसे पूछा,-“आपने क्या देखा कि, मैं फिर उसे उखाड़ फेंकूगा या नहीं ?”
तब महावीर ने कहा,-“यह सोचना व्यर्थ है। अनिवार्य यह है कि, यह पौधा अभी जीना चाहता है, इसमें जीने की ऊर्जा है, और जिजीविषा है। तुम इसे दुबारा उखाड़ फेंक सकते हो या नहीं-यह तुम पर निर्भर है, लेकिन पौधा जीना चाहता है, यह महत्वपूर्ण है। तुम पौधे से कमजोर सिद्ध हुए और हार गए। और जीवन हमेशा ही जीतता है। जीवन में आने वाली मुश्किलों का सामना करने के लिए जरूरी है, आशावादी रहना।”
भगवान महावीर का जन्म दिवस एक दस्तक है। उन्होंने बाहरी लड़ाई को मूल्य नहीं दिया, बल्कि स्व कर सुरक्षा में आत्म-युद्ध को जरूरी बतलाया। उन्होंने सबके अस्तित्व को स्वीकृति दी। ‘णो हीणे णो अइरित्ते’-उनकी नजर में न कोई ऊंचा था, न कोई नीचा। उनका अहिंसक मन कभी किसी के सुख में व्यवधान नहीं बना। उन्होंने अपने होने का अहसास जगाकर अहं को खड़ा नहीं होने दिया। इसी लिए उनकी शिक्षाओं एवं उपदेशों का हमारे जीवन और विशेषकर व्यावहारिक जीवन में विशेष महत्व है। हम अपने जीवन को उनकी शिक्षाओं के अनुरूप ढाल सकें, यह अधिक आवश्यक है, लेकिन इस विषय पर प्रायः सन्नाटा देखने को मिलता है। हम महावीर को केवल पूजते हैं, जीवन में धारण नहीं करते हैं। हम केवल कर्मकाण्ड और पूजा विधि में ही लगे रहते हैं। महावीर का यह संदेश जन-जन के लिए सीख बने- ‘पुरुष! तू स्वयं अपना भाग्यविधाता है।’
हम औरों के सहारे मुकाम तक पहुंच भी गए तो क्या ? इस तरह की मंजिलें स्थाई नहीं होती और न इस तरह का समाधान कारगर होता है।
भगवान महावीर ने कितना सरल किन्तु सटीक कहा है- “सुख सबको प्रिय है, दुःख अप्रिय। सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। हम जैसा व्यवहार स्वयं के प्रति चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के प्रति भी करें।”
एक और महत्वपूर्ण प्रश्न है, क्या सुख को स्थाई बनाया जा सकता है ? क्या दुःख को समाप्त किया जा सकता है ? इसका सीधा उत्तर होगा कि, भौतिक जगत में ऐसा होना कभी संभव नहीं है। जब तक भौतिक जगत में जीएंगे, तब तक यह स्वप्न लेना दिवास्वप्न है, कल्पना करना आकाश कुसुम जैसा है। आकाश में कभी फूल नहीं लगता। यह असंभव बात है कि, इंद्रिय जगत में आदमी जीए और वह सुख या दुःख एक का ही अनुभव करे, यह द्वंद्व बराबर चलता रहेगा। समाधान है स्वयं का स्वयं से साक्षात्कार। इसके लिए जरूरी है हर क्षण को जागरूकता से जीना।
आज मनुष्य जिन समस्याओं से और परिस्थितियों से घिरा हुआ है, उन समाधान महावीर के दर्शन और सिद्धांतों में समाहित है। जरूरी है कि, महावीर ने जो उपदेश दिए उन्हें जीवन और आचरण में उतारें। हर व्यक्ति महावीर बनने की तैयारी करे, तभी समस्याओं से मुक्ति पाई जा सकती है। महावीर वही व्यक्ति बन सकता है जो लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो, जिसमें कष्टों को सहने की क्षमता हो। जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समता एवं संतुलन स्थापित रख सके, जो मौन की साधना और शरीर को तपाने के लिए तत्पर हो। जो पुरुषार्थ द्वारा न केवल अपना भाग्य बदलना जानता हो, बल्कि संपूर्ण मानवता के उज्ज्वल भविष्य की मनोकामना रखता हो।
भगवान महावीर चिन्मय दीपक हैं, जो अज्ञान रूपी अंधकार को हरता है। वे सचमुच प्रकाश के तेजस्वी पुंज और सार्वभौम धर्म के प्रणेता हैं। वे इस सृष्टि के मानव-मन के दुःख-विमोचक हैं। पदार्थ के अभाव से उत्पन्न दुःख को सद्भाव से मिटाया जा सकता है, श्रम से मिटाया जा सकता है किंतु पदार्थ की आसक्ति से उत्पन्न दुख को कैसे मिटाया जाए? इसके लिए महावीर के दर्शन की अत्यंत उपादेयता है।