हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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हर गृहस्थ की उसकी घरवाली,
उसकी अपनी मुमताज है
दाम्पत्य जीवन के सुन्दर सौष्ठव में,
जीवन अमृत का राज है।
विकृत मानस की गर्त में डूबे,
जो निर्बंधन ही जीना चाहते हैं
वे खुद तो कीचड़ में धंसते हैं, दूसरों को भी उसमें फंसाते हैं।
जो रीत नहीं है मानव समाज की,
उसको क्यों अपनाते हैं ?
क्यों पशु से नंग-धड़ंग रहते हैं, और पशु से घास-फूस खाते हैं ?
वह लैला और मैं उसका छैल, कहना भी कहाँ बुरी बातें हैं ?
प्रेम शाश्वत था, है और रहेगा,
वासना से तो पशु भी लजाते हैं।
काम है नैसर्गिक आधार जीवन का,
कामना तो अति बुरी है
कामनाओं को सब-कुछ माने, उसकी जीवन यात्रा अधूरी है।
तीन गुणों का सन्तुलन जो समझे,
वही तो असली मानव है
जो तम में निरन्तर डूबा रहे, वह तो नीच-निशाचर-दानव है।
वर्तमान की नई पीढ़ी में, नग्नता निरन्तर बढ़ती जा रही है
सहयोग से बढ़ कर भोग है इनको,
घास-फूस ही खा रही है।
न रहेगा सतीत्व-पतित्व,
जो मानव समाज में जरूरी है
न जाने कौन-सी रीत चली है, किसकी कौन-सी मजबूरी है ?
आज इसकी;कल उसकी होना,
नारी जीवन का उपहास है।
नर भी उसमें नीलम है होता, पर जग का इसी में विश्वास है॥