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‘मोती’ हिंसक उत्पाद ?

डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
इन्दौर (मध्यप्रदेश)
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‘मोती’ या मोतियों से बनी माला प्रायः सभी लोगों ने अवश्य देखी होगी। मटर के दाने के बराबर गोल-गोल सफेद दूधिया रंग के चमकदार पत्थर के टुकड़े की तरह दिखने वाले मोती को पाने के लिए सभी लालायित रहते हैं। मोती को न केवल आभूषणों में उपयोग किया जाता है, बल्कि इसे अन्य कई तरह से उपयोग में लाया जाता है। यह अत्यंत पवित्र माना जाता है। पूजा घरों में तो मोती की सीधी पहुँच होती है। मोती रत्न का संबंध चंद्र ग्रह से माना गया है। इसको पहनने से मन में शुद्धता व स्थिरता बनी रहती है। यह आँखों के लिए लाभदायक और शरीर हेतु बलबर्धक होता है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि, मोती बनता कैसे है ?
दरअसल, असली मोती समुद्र में रहने वाले घोंघा प्रजाति के एक छोटे से प्राणी मॉलस्क के पेट में बनते हैं। ऐसा नहीं कि, प्रत्येक घोंघा अपना बच्चा पैदा करने की तरह मोती पैदा करता है। घोंघा अपनी रक्षा के लिए एक मजबूत खोल में रहता है, जिसे सीप कहते हैं। कभी-कभी हजारों में से किसी एकाध घोंघे की सीप में छेद हो जाता है या समुद्र में सीप में पट खुलने पर कोई बाहरी कठोर पदार्थ का कण सीप के अन्दर चला जाता है। नाज़ुक सीप को इससे परेशानी होती है और वो अपने शरीर से एक विशेष पदार्थ ‘कैल्शियम कार्बाेनेट’
छोड़ने लगता है, जो उसके अन्दर गए बाह्य पदार्थ या बालू के कण के ऊपर परत बनाने लगता है और धीरे-धीरे ये मोती की शक्ल में आ जाता है। धीरे-धीरे यह एक सफेद रंग के चमकीले गोल आकार का पत्थर जैसा पदार्थ बन जाता है, जिसे मोती कहते हैं। प्रायः मछुआरे अनेक सीपियों को इकट्ठा कर लेते हैं और एक-एक कर तोड़कर उनमें पाए जाने वाले मोतियों को एकत्रित कर लेते हैं। सीप की तरह किसी किसी शंख में भी मोती पाया जाता है, लेकिन आजकल मोतियों की बढ़ती आवश्यकता के मद्देनजर मोतियों की खेती भी की जाती है। मोती कृत्रिम तरीके से बड़ी मात्रा में तैयार किया जाता है। सरकारी संस्थानों से या फिर मछुआरों से सीप खरीदकर मोती की खेती का काम शुरू करते हैं। इन खरीदे हुए बीज रूप सीपों को खुले पानी में २ दिन के लिए रखते हैं। धूप और हवा लगने से उन्हें आक्सीजन मिलना बहुत कम हो जाती है, जिससे सीप का कवच और माँसपेशियाँ ढीली हो जाती हैं। कुछ सीप इस प्रक्रिया से मर भी जाती हैं।
माँसपेशियाँ ढीली होने के बाद नकली ढंग से छेद कर या चिकित्सा कर सीप के अंदर सांचा या बाहरी कण डाल दिया जाता है। यह कण जब सीप को चुभता है, तो वह उस पर अपने अंदर से पदार्थ (कैल्शियम कार्बाेनेट) छोड़ता है, जिसकी परत उस कण पर चढ़ती रहती है, फलस्वरूप मोती बन जाता है। इस प्रक्रिया में मोती बनने में १२ से २० माह तक लग जाते हैं। वर्तमान में मोती की खेती कम लागत में बहुत मुनाफे वाला कारोबार है, इसलिए खूब फल-फूल रहा है।
मोती प्राप्ति के लिए घोंघे सहित सीप या जीवित शंख को मछुआरों द्वारा समुद्र से संकलित किया जाता है। उन्हें फाड़ कर देखा जाता है, और जिसमें मोती होता है, वह संकलित कर लिया जाता है।फिर फाड़े गए उस मरे या तड़पते जीव-घोंघे को माँसाहार प्रेमियों को बेच दिया जाता है। यही प्रक्रिया मोती की खेती वाले घोंघे के साथ भी की जाती है। कभी- कभी उन मारे गए जीवों को सुखाकर पालतू मछलियों- कछुओं आदि को खिलाने के काम में भी लेते हैं।
जो शुद्ध अहिंसक समाज है वह मानता है कि, “ऐसी कोई वस्तु किसी जीव की हिंसा से प्राप्त हो या उसे प्राप्त करने के लिए प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से हिंसा की गई हो, वह पदार्थ हिंसक उत्पाद है।” इसलिए, ऐसे हिंसक पदार्थों को अहिंसावादी स्पर्श भी नहीं करते। यहाँ तक कि, स्वतः मरे पशुओं के चमड़े से बनी वस्तुएँ-जूते, बेल्ट आदि और चमड़े की परतों में रखकर कूट कर बनाए गए चाँदी के वर्क आदि को भी हिंसक-अशुद्ध मानकर अहिंसावादी परित्याग करते हैं। ये लोग शहद का भी उपयोग नहीं करते, क्योंकि शहद को प्राप्त करने में मधुमक्खियों की हिंसा तो होती ही है, छत्ते में पल रहे मधुमक्खियों के असंख्य अण्डे मारे जाते हैं। इसलिए शहद त्याज्य मानते हैं।
प्रारंभ से मोती इस कारण पवित्र था, क्योंकि वह समुद्र की रेत को छानकर किनारे की बालू में से अन्वेषित कर प्राप्त किया जाता था। समुद्र में सीप के मरने पर शरीर तो सड़ जाता, जीव-जन्तुओं द्वारा भक्षण कर लिया जाता, आयु पूर्ण होने पर स्वतः या किसी अन्य कारण से घोंघे मर जाते हैं। ऐसे हजारों सीप में से किसी १-२ सीप में रत्न होने पर वे समुद्र में पड़े रहते हैं, जो बालू छानकर इकट्ठे किए जाते थे, वही प्राकृतिक मोती कहलाते हैैं, किंतु उससे लोगों की आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती। इस कारण उसे हिंसक विधि से तैयार किया जाता है, तथा विदेशों से भी हिंसक विधि से प्राप्त मोती को आयात किया जाता है। फिर भी मोती पवित्र माना जाता है।