वाणी वर्मा कर्ण
मोरंग(बिराट नगर)
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मोह शरीर से,
मिट्टी से
ईंट पत्थरों से,
वस्तुओं से
अपनों से,
अपने आस-पास से
यही मोह अपने जीवन से,
मोह पाश में बांध लेता
कभी न मिटने वाली मृगतृष्णा में,
मानव उलझकर रह जाता।
सब-कुछ नश्वर,
समय परिवर्तनशील
कल आज-कल में निहित,
हम सबकी कथा व्यथा
फिर किसका मोह,क्यों कर मोह!
स्व में ही सर्वस्व,
जो जान ले इस बात को
फिर न हो मोह,न हो दु:ख,
पेड़ जो करे पत्तों से मोह
तो न हो पतझड़ और न ही बसंत,
न ही आए नई कोपलें
न ही नए फल-फूल,
प्रकृति बदलती रहती रूप अपना
जाती है बहारें आने के लिए,
फिर मोह क्यों एकसार जीवन के लिए।
जीवन बहती नदी,
जो आज है कल नहीं
फिर किस बात का मोह,
सद्कर्म सुविचार,परोपकार सदाचार।
जीवन उद्देश्य यही हो,
यही हो मानवाचार॥