हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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यह कैसी अनहोनी है, समझ में नहीं आती है
दुखों का पहाड़ कैसा होता है,
यह उस पिता से पूछो
जिसने अपने जवान बेटे को कन्धा दिया है,
जो बेटे की चिता पर बैठ रो रहा है
आँसू बहा रहा है,
यह कैसी अनहोनी है…?
जीवन का सबसे बड़ा दु:ख यही है,
कठिन परिस्थितियों में वह पिता ही है जो संभलते हुए परिवार को समझा रहा है,
जिस बेटे से उम्मीदें थीं
जो उंगली पकड़ कर बड़ा हुआ;जवान हुआ,
जब सहारे लायक हुआ
तो नियति ने उसे छीन लिया
अकेले बैठ वह पिता सोचता है,
भगवान यह कैसा विधान रचा तूने
एक पिता का सहारा-माँ का दुलारा क्यों छीन लिया तूने !
यह कैसी अनहोनी है…?
सपने भी ऐसे भी क्या थे हमारे, जो तू पूरे नहीं कर पाया,
हे ईश्वर क्या ग़लती हो गई हमसे
जो हमारी खुशी छीन ली तूने,
हमने तो सुना था ‘तेरे घर देर है अंधेर नहीं है’
पर यह कैसी अनहोनी है, समझ में नहीं आती है,
तूने ही उसे दिया था,
तूने ही पास बुला लिया
हम तो तेरे दर के भिखारी हैं भगवान,
फिर हमारी झोली खाली हो गई
अब तू ही हमारे दुखों को मिटाएगा।
क्योंकि,
यह कैसी अनहोनी है, समझ में नहीं आती है॥