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ये बारिश की बूंदें बड़ी दूर से आई

डॉ. श्राबनी चक्रवर्ती
बिलासपुर (छतीसगढ़)
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क्यों रुठी थी तुम इस जग से,
बरखा रानी अब तो बताओ
आने में क्यों देर लगा दी,
धरती जल कर खाक़ हो रही।

देर से ही सही फुहारें छाई है,
तपिश दिल की बुझाने आई है
छतरी हटाकर इनसे मिलिए,
ये बारिश की बूंदें बड़ी दूर से आई है।

रूकती है, चलती है,
कभी जम के बरसती है
बादलों पर पाँव रखकर,
ये बारिश देखो मचलती है।

उसके आने की खबर पाकर,
कई चेहरे चमक उठे, दमक उठे
हरियाली चुनर ओढ़े खेत और वन,
मन ही मन मुस्कुरा उठे।

पायलों की रुनझुन-सी,
थिरकने लगी रिमझिम रुमझुम
गीतों की सरगम-सी,
गुनगुनाने लगी मीठी बूंदों की लड़ी।

तेज़ आँधियाँ, काले बदरा, भीषण बिजली,
तूफान रह रह मचाए शोर
पर तू बन जा कलकल झरना,
इठलाती नदी और झील सी गहरी
नयनों वाली शीतल नीर।

धड़कनों को झंकृत कैसे न,
करें सावन की ये झड़ी
तन-मन को जो भिगो दे पूरी तरह,
टिप-टिप‌ बरसात में नहीं कटते
दिन-रात विरह।

वर्षा लंबे समय तक रुकना,
जाने से पहले एक बार फिर।
शिखर से सागर तक भिगोकर,
धरती को तू खुशहाल कर दे॥

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