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रक्षाबंधन:कमजोर की रक्षा के दायित्व का पर्व

मनोरमा जैन ‘पाखी’
भिंड(मध्यप्रदेश)
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जनमानस में राखी पर्व को भाई-बहिन के स्नेह पर्व के रुप में जाना जाता है। जहाँ बहिनें,भाइयों को रक्षा सूत्र बाँधती हैं और भाई उनकी हर स्थिति में रक्षा के लिए कटिबद्ध रहने का संकल्प लेता था। समय बदला और सूत्र का स्थान डिजायनर राखियों व मँहगे तोहफों ने ले लिया। जिस बहन की राखी जितनी कीमती,तोहफा भी उतना ही कीमती।
अब अक्सर देखने में आता है कि,राखी की कीमत भाई की हैसियत से भी लगाई जाती है और बहन की स्थिति से भी।
जैनागम के अनुसार राखी का पर्व स्नेह का,रक्षा का पावन दिवस था। ७०० मुनियों को जलती आग से बचाकर रक्षा का कर्म करने की स्मृति में मनाया जाने वाला स्नेह पर्व है,जिसमें कमजोर की रक्षा का दायित्व समर्थ लेता है।
कथानक कुछ इस प्रकार है-हस्तिनापुर
के कानन में आचार्य अकंपन मुनि अपने ७०० योग्य शिष्यों के साथ विहार करते हुए आए थे और अपने ज्ञान, ध्यान-तप में रत थे। चातुर्मास क्रिया सम्पन्न हेतु उनका विहार रुका हुआ था। सावन माह चल रहा था। सब-कुछ चर्यानुसार यम,नियम,संयमपूर्वक चल रहा था। उस समय हस्तिनापुर के राजा की देख-रेख में मुनियों की चर्या-आहार आदि में जनमानस स्वयं को आल्हादित महसूस कर रहा था,क्योंकि राजा के भाई विष्णुकुमार स्वयं मुनि धर्म का निराचार पालन कर रहे थे। राजा बलि का मंत्री जैन मुनियों से वितर्क करता है,उनको अपमानित करता है। राजा को भी द्वेषवश उनसे विमुख कर देता है।
उपसर्ग समझ कर मुनि मौन व्रत धारण कर लेते हैं,और तप में लीन हो जाते हैं। मंत्री, मुनियों के निरापद तप के स्थान के चारों तरफ लकड़ियों के अम्बार लगा कर उनमें अग्नि प्रज्वलित करवा देता है।
चूंकि,मुनि नियमों से बंधे थे,मौन थे।अतः,वह उपसर्ग की समाप्ति तक समाधि-व्रत ले चुपचाप रहते हैं,और आराध्य का ध्यान करते हैं। श्रावण मास की पूर्णिमा से सात दिन पहले यह अग्नि प्रज्वलित की गयी थी,और कड़ी निगरानी रखी गयी कि कहीं आग ठंडी होने पर ये सब भाग न जाएँ। भयंकर अग्नि की लपटें,गर्मी,जलन,धुँए से मुनियों का तन ही नहीं जला,साँस तक लेना मुश्किल हो गया। राजा बलि मंत्री से पूछता तो,वह कहता कि सब-कुछ कुशल है। मुनियों की चर्या निरापद चल रही है।
सात दिन में मुनियों की हालत खराब होने लगी थी,पर न तो उन्होंने नियम तोड़े और न संयम मार्ग छोड़ा। राजा बलि के भाई विष्णुकुमार भी मुनि दीक्षा ले चुके थे,और घोर तपश्चरण से उनको कुछ रिद्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त हो चुकी थीं,जिनका उनको भान नहीं था। तप में लीन विष्णुकुमार मुनि को ७०० मुनियों के संकट का आभास होता है। वह अपने गुरू से चर्चा करते हैं। तब गुरू उनको चातुर्मास भंग कर मुनियों की रक्षा के लिए प्रेरित करते हैं,और उनको प्राप्त हुई सिद्धियों की जानकारी देते हैं।
गुरू आज्ञा से चारण रिद्धि का उपयोग करते हुए आकाश मार्ग से कुछ ही क्षणों में हस्तिनापुर के जंगलों में पहुँच जाते हैं। वहाँ का दृश्य देख उनका क्रोध,वात्सल्य और करुणा जागृत हो जाती है। अपनी रिद्धियों से वह आग को बुझा देते हैं। शोकाकुल जनमानस को सांत्वना दे मुनियों के उपचार में प्रवृत कर उनकी अवस्था को ध्यान में रखते हुए तरल आहार बनाने को प्रेरित करते हैं।
मुनियों की उचित व्यवस्था कर वह वामन वेश रख नृप के दरबार में पहुँचते हैं,और राजा को धर्मवृद्धि का आशीष देते हैं।
राजा खुश होकर कहते हैं कि-“हे ब्राह्मण, बोलो तुमको क्या चाहिए। मैं मनोवांछित इच्छा पूरी करने में समर्थ हूँ,जो माँगोगे,दूंगा।”
वामन केवल तीन पग भूमि का दान मांगता है। राजा बलि हँसते हुए कहते हैं,-“बस। कुछ और चाहिए तो निसंकोच बोलो।” पर वामन ने तीन पग भूमि के अलावा बाकी सबमें अनिच्छा जाहिर की। तब राजा ने कहा,-“जहाँ भी पसंद हो,वहाँ की तीन पग भूमि आपकी हुई।”
तपोनिधियों के स्वामी विष्णुकुमार ने अपनी ऋद्धियों-सिद्धियों से शरीर को विपुल आकार का बना लिया,और दो पग में समस्त जगत अपने अधीन किया।
“अब एक पग की भूमि कहाँ है ?” बलि शर्म से पानी-पानी हो गये। उनके कदमों में झुकते हुए बोले-“हे योगी, आप अपना तीसरा पग मुझ पर रख लें क्योंकि,और कुछ मेरे पास अब शेष नहीं।”
‘तथास्तु’ कह कर ज्यों ही तीसरा पैर बलि पर रखा,वह भार न सह सके और रूदन,विलाप कर उठे-“त्राहिमाम् त्राहिमाम्,क्षमा करो मुझे …।”
तब योगी अपने मूल रुप में आये। भाई को देख बलि चकित हो समाचार पूछ बैठे कि-“चातुर्मास में आपका विहार क्यों और कैसे ?”
तब विष्णु मुनि ने सात दिन से मुनियों पर हो रहे अत्याचार की बात कहते हुए बलि की घोर भर्त्सना की। बलि पश्चाताप के आँसू बहाते हुए नतमस्तक हुआ। तब विष्णुमुनि ने आसमान की ओर करुणा विगलित दृष्टि उठाई,तुरंत मूसलधार बारिश होने लगी। बची हुई अग्नि भी बुझ गयी। वातावरण से अग्नि का प्रभाव कम हो गया। अग्नि से दग्ध साधुयों को सुख साता(कुशल-मंगल) हुआ। दु:ख से विगलित जनता में हर्ष छा गया। युग-युग तक यह रक्षा भाव बना रहे,इसके लिए शपथ दिलाते हुए रक्षा सूत्र बाँधे। मुनियों को तरल, उपचारक आहार कराया गया। तब से यह रक्षाबंधन पर्व मनाया जाता है। कालांतर में इसका रुप बदल गया।वस्तुतः,जीवदया का भाव निहित था जिसे बहन,भाई व उपहारों में बाँट दिया गया।

परिचय-श्रीमती मनोरमा जैन साहित्यिक उपनाम ‘पाखी’ लिखती हैं। जन्म तारीख ५ दिसम्बर १९६७ एवं जन्म स्थान भिंड(मध्यप्रदेश)है। आपका स्थाई निवास मेहगाँव,जिला भिंड है। शिक्षा एम.ए.(हिंदी साहित्य)है। श्रीमती जैन कार्यक्षेत्र में गृहिणी हैं। लेखन विधा-स्वतंत्र लेखन और छंद मुक्त है,व कविता, ग़ज़ल,हाइकु,वर्ण पिरामिड,लघुकथा, आलेख रचती हैं। प्रकाशन के तहत ३ साँझा काव्य संग्रह,हाइकु संग्रह एवं लघुकथा संग्रह आ चुके हैं। पाखी की रचनाएं विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं झारखंड से इंदौर तक छपी हैं। आपको-शीर्षक सुमन,बाबू मुकुंदलाल गुप्त सम्मान,माओत्से की सुगंध आदि सम्मान मिले हैं। मनोरमा जैन की लेखनी का उद्देश्य-हिंदी भाषा के माध्यम से मन के भाव को शब्द देना है। आपके लिए प्रेरणा पुंज-हिंदी में पढ़े साहित्यकारों की लेखनी,हिंदी के प्राध्यापक डॉ. श्याम सनेही लाल शर्मा और उनकी रचनाएं हैं। मन के भाव को गद्य-पद्य में लिखना ही आपकी विशेषज्ञता है।

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