संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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राम बनने की कोशिश ना करो हे पुरुष,
अहंकार जो तुममें कूट-कूट कर भरा है।
जानते हो रावण अहंकारी तो बहुत था,
किंतु पश्चाताप करने की क्षमता रखता था
और जो तुममें पश्चाताप का लवलेश नहीं,
वासना से तो तुम इतने पीड़ित हो।
जो तुम्हारे रोम-रोम में नज़र आती है,
लालसा तुम पर इतनी हावी है कि
तुममें संयम नाम की चीज नहीं,
तुम तुम नहीं रह जाते राक्षस बन जाते हो,
खुद के पुरूषार्थ के बुखार से ग्रसित हो जाते हो।
बहन की बेइज्जती का बदला लेने की मंशा से,
सीता का अपहरण तो कर लिया था उसने
किंतु परस्त्री की तरफ नज़र नहीं उठाई उसने,
तुम जो राह चलते हो तो मजाल है कि
तुम्हारी नज़र से कोई परस्त्री, बच पाए।
वह अपनी मर्यादा को जानता था,
तभी तो सीता को माता की तरह मानता था
यहाँ तुम अपनी मर्यादा को भूल गए हो,
राम का नाम लेकर काम रावण से गंदा करते हो।
शर्म करो! हर साल उस रावण को जलाते हो,
लेकिन अपने अंदर के रावण को देखते नहीं हो
झूठे वादे, मक्कारी, धन की लालसा, लूट-खसोट, गंदी राजनीति और
अमीरी के सपनों ने तुम्हें रावण से बदतर बना दिया है।
जिस दिन तुम अपने अंदर के रावण को पहचान पाओगे,
रावण के पुतले को हर साल ना जलाकर
अपने अहंकार, वासना, तृष्णा को जला पाओगे,
द्वेष, मत्सर, लोभ से परे हट जाओगे
तब तुम शायद इंसान बन पाओगे।
तब भी मर्यादा पुरूषोत्तम राम बनने के ख़्वाब से,
कोसों दूर ही खुद को पाओगे॥