डॉ. कुमारी कुन्दन
पटना(बिहार)
******************************
जलता है जब नकली रावण,
रावण वृत्ति मानव हँसता है
छल-प्रपंच में डूबा रहता,
कदम कदम पर डसता है।
काम, वासना, लोभ में फँसता,
वह सपने रंगीन दिखाता है
अपनों से भी बढ़कर है वह,
इतना विश्वास जताता है।
आधुनिकता का पहन चोला,
थोड़ा जो पढ़-लिख जाती है
संस्कार की बली चढ़ाकर,
वह अपना सर्वस्व लुटाती है।
बात-बात में प्यार है आता,
अक्ल की दुश्मन बनती है
कभी चाकू से गोदी जाती,
झाड़ी में फेंकी मिलती है।
माँ-बाप को अनसुना कर,
जब वह धोखा खाती है
किंकर्तव्यविमूढ़ बनी वह,
अपना अस्तित्व मिटाती है।
अंदर कुछ और बाहर कुछ,
बहुत बड़ी है ये उलझन
असत्य सिर का ताज बना,
टूट चुका है सत्य का दर्पण।
पुतले से ना रावण मरेगा,
चाहे पुतले रोज जलाओ।
तज दो मन के रावण को,
शील, संयम, धर्म अपनाओ॥