डॉ. कुमारी कुन्दन
पटना(बिहार)
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मन-भावों को रोक ना पाती,
लहरों की तरह जब उठते हैं
लाख समझाऊं, इस आँसू को,
फिर भी झर-झर बहते हैं
इसे खबर ना इस दुनिया में,
यहाँ कैसे-कैसे लोग रहते हैं।
दुनिया एक अजायब खाना,
यहाँ लोग भी अजूबे रहते हैं
जब तक है, उनको जरूरत,
वो संग-संग डोला करते हैं
बन के भोली, खुश करने को,
हम धोखा खाते-फिरते हैं।
कौन अपना है कौन पराया,
सब एक ही जैसे दिखते हैं
वर्षों प्यार, वात्सल्य लुटाया,
पर, पल में हाथ झटकते हैं
अपनों को जो धोखा हैं देते,
कैसे, गैरों पर भरोसा करते हैं।
‘नेकी कर दरिया में डाल’,
यूँ ही नहीं लोग कहते हैं
बहुत बड़े हैं वो दिलवाले,
खा-खा चोट सम्भलते हैं
दिल में दिल का दर्द छुपाए,
हँस-हँसकर झेला करते हैं।
जहाँ प्यार-विश्वास है ज्यादा,
ज़ख्म भी गहरे मिलते हैं
दुनिया का दस्तूर है शायद,
सब इसी को जीना कहते हैं।
लाख समझाऊँ इस आँसू को,
फिर भी झर-झर बहते हैं॥