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लावारिस

जसवीर सिंह ‘हलधर’
देहरादून( उत्तराखंड)
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मैं हूँ लावारिस क्या मेरा,पैदा होना या मर जाना।
सड़कों पर जीवन बीतेगा,ना मुझे किसी के घर जाना॥

नहीं कोई ऋतु वसंत यहाँ,सर पर है नभ की छत नीली।
अंतड़िया भूखी सिकुड़ गयी,आँखों की पुतली है पीली॥
ना जानू मैं क्यों आया हूँ,है कौन मुझे लाने वाला।
आँधी से लोरी सुनता हूँ,लगती सूखी-सी या गीली॥
कूड़े-करकट के ढेर मुझे,अपनी गोदी में लेते हैं।
रह-रह कर मुझे डराता है,काली रातों का वीराना॥

कोई आया कुछ खिला गया,कोई आया कुछ पिला गया।
कुत्तों का टोला मरने की,सीमा तक मुझको रुला गया॥
सारी ऋतुएँ दुश्मन मेरी,ना मित्र कोई बनकर आती।
जब मिला निवाला नींद लगी,जब भूख लगी कुलमुला गया॥
लावारिस मुझको ना मानो,लावारिस है लाने वाले।
जो धरा गोद में छोड़ गये,आया ना जिनको अपनाना॥

यदि मैं भी चाहूँ मुस्काना,तो मेरा क्या है दोष बता।
मुझको तो उनसे मिलना है,वो पापी जो कर गये खता॥
तन कहता है दुनियाँ में हूँ,पर मन को शंका होती है।
मन की पीड़ा तब कम होगी,मुझको भी थोड़ा प्यार जता॥
सुख सेज भाग्य में होती तो,आता मैं बड़े घराने में।
पैदा होते ही मैं भी तो,लोगों में जाता पहचाना॥

आखिर मुझको भी मिली शरण,सबके ही साथ आश्रम में।
होने लगी मेरी देखभाल,सरकारी अनाथ आश्रम में॥
गोरी,मोटी-सी सेठानी,मुझको गोदी लेने आयी।
उसने भी चुना वही वारिस,दिखा गोरा गात आश्रम में॥
वो पूरी रजनी मैंने तो,बस सिसक-सिसक कर काटी थी।
चमड़ी का रंग बना ‘हलधर’,मेरा ही दुश्मन दीवाना॥

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