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लौट आते वे बचपन के दिन

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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काश! लौट आते वे बचपन के दिन आज,
जिसमें, दादी चूमती भालों को।
माता, लोरी गा कर सहज सुलाती,
बहना, चटकारी देती गालों को।
वह बाबुल की बाँहों का झूला होता,
सागर समझता नदी और नलों को।
कोरे कागज की वह कश्ती होती,
खेलता, काठ के कृपाण और भालों को।

माँ डांटती, मैं रूठ कर छुप जाता,
आँगन में बाबुल की पीठ के पीछे।
माँ खंगालती ,घर का कोना-कोना,
दादी देखती, हर पलंग के नीचे।
बाबा, मौन रह देते, साथ मेरा तब,
गमछे से ढांपते, ताकि तनिक न दिखे।

बहना खोलती, भ्रातृ भेद सारा तब,
माँ झुंझलाती, अच्छा! तो ये तुम्हारी सीखें ?
काश! मिट्टी के वे घरौंदे होते,
बनाता, मिटाता,फिर से बनाता।
किशोर पड़ोसिन कमला की चुगली,
तोतली आवाज में दादा से लगाता।
डांट पड़ती देख दादा से उसको,
मेरा रूआंसा सा चेहरा, फिर से खिलखिलाता।
काश! लौट आते वे बचपन के दिन आज,
जिंदगी जीने का बड़ा मजा आता।
आज न जाने क्या हो गया ये ?
आलीशान बंगलों का सुख भी न भाता।
आँगन में लगे हुए झूले पर झूल कर भी,
वह बाबुल की बाँहों सा चैन न आता।
काश! हुआ न होता बड़ा अगर मैं,
तो आज ये बचपन का भाव न सताता।
आज है भार सब अपने ही कंधों पर,
जो उठाया करते थे, तब मेरे पिता और माता॥

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