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वक्त और घड़ी

दिनेश चन्द्र प्रसाद ‘दीनेश’
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
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वक्त और घड़ी दोनों में,
चोली-दामन का साथ,
एक के बिना एक अधूरी,
वक्त चलता रहता साथ।

वक्त दो तरह का होता है,
बुरा वक्त और खराब वक्त
जिसे सब सही वक्त कहते हैं,
कभी गलत वक्त भी कहते हैं।

परन्तु घड़ी कई तरह की होती है,
हाथ-घड़ी, दीवार-घड़ी, जेब-घड़ी
अलार्म घड़ी, रोक घड़ी
इत्यादि।

घड़ी वक्त का ज्ञान कराती है,
वक्त घड़ी की याद दिलाता है
दोनों एक-दूसरे के पूरक है,
पर वक्त बहुत होता मारक है।

वक्त की मार सब पर होती है,
पर वक्त के साथ जो चलता है
जो इसे भविष्य समझ लेता है,
वो हर जगह बाजी मारता है।

पुराने जमाने में घड़ी का था अभाव,
इसलिए वक्त का कम होता प्रभाव
बीच के जमाने में घड़ी का था चलन,
तरह-तरह के रंग व आकार में मिलती।

पहले घड़ी पहनना शान की बात होती थी,
आज मोबाईल ने घड़ी का स्थान लिया
अब कार्यालय जाना तो मोबाईल चाहिए,
मानो हाथ की शान-ओ- शौकत ले ली।

पहले सूरज व छाया वक्त बताते थे,
‘दीनेश’ फिर घड़ी वक्त बताने लगी
घड़ी की तीन सुईयाँ, तीन काल की पहचान,
बचपन, जवानी और बुढ़ापे की शान।

सैकन्ड की सुई बचपन को बताए,
मिनट की सुई जवानी को दर्शाए।
घंटे की सुई बुढ़ापे पे ले जाए,
तीनों मिल वक्त की चाल बताए।