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विद्या ददाति विनयम्

राधा गोयल
नई दिल्ली
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जिस तरह से हरा-भरा पेड़ जब फलों से लद जाता है, तो झुक जाता है, उसी तरह से समझदार व्यक्ति जितना अधिक ज्ञान प्राप्त करता है और विद्वान होता है, वह उतना अधिक नम्र स्वभाव का होता है। अभिमान से कोसों दूर होता है। अपने ज्ञान का बखान नहीं करता। अपने ज्ञान को समाज के हित के लिए इस्तेमाल करता है। अपनी विद्वता का गुणगान नहीं करता-
‘वृक्ष कबहुँ न फल भखें, नदी न चख्यो नीर,
परमारथ के कारणे, धारण कियो शरीर।’
कई व्यक्ति ज्ञानी तो बहुत अधिक होते हैं, लेकिन अहंकार कूट-कूट कर भरा होता है। अपने ज्ञान का बेजा इस्तेमाल करते हैं। सीधा-सा अर्थ है कि, ऐसे व्यक्ति यदि कुछ ज्ञान प्राप्त कर भी लेते हैं तो उसका समाज की भलाई में इस्तेमाल नहीं करते, अपितु संहार में प्रयोग करते हैं।
रावण बहुत अधिक ज्ञानी था, चारों वेदों का ज्ञाता था। यहाँ तक कि उसने रावण संहिता भी लिखी हुई है। ९ निधियों और अष्ट सिद्धियों का स्वामी था। कुबेर को उसने अपना गुलाम बना रखा था। असीमित शक्तियों का स्वामी था, क्योंकि योग साधना से बहुत परिश्रम करके और देवताओं को प्रसन्न करके बहुत-सी अमोघ शक्तियाँ प्राप्त कर ली थीं। राम से कहीं अधिक बलशाली और विद्वान था रावण, लेकिन अपनी शक्तियों और ज्ञान पर बहुत अहंकार था। विनय नाम मात्र को भी नहीं थी, जबकि राम बेहद विनयशील थे। उन्होंने अपने ज्ञान, अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल दुष्टों का संहार करने में किया। सज्जनों के मित्र बन कर रहे।
यह सब शक्तियाँ योग साधना से प्राप्त की जाती हैं। अपनी शक्तियों से इंसान चाहे तो ‘खेचरी’ योग विद्या से पानी पर भी चल सकता है, आकाश में भ्रमण कर सकता है। कितने ही देवताओं के बारे में सुना होगा, जो मन की गति से भू-लोक पर आ जाते थे। ब्रह्मषि परशुराम, नारद जी आदि मन की गति से आते थे।
ज्ञानी तो बहुत लोग होते हैं, किन्तु उसको कैसे, कब, कहाँ, किस तरह… इस्तेमाल करना है, उसे सच्चे ज्ञानी ही जानते हैं। सच्चा ज्ञानी नम्र स्वभाव का होता है, उसमें नाममात्र घमंड नहीं होता।
नम्रता सीखनी है तो हनुमान, राम, लक्ष्मण और भरत से सीखें। शस्त्र-शास्त्र जैसी सभी विधाओं में दक्ष, लेकिन अभिमान नाममात्र को नहीं।
लक्ष्मण के मूर्छित होने पर हनुमान जी सुषेण वैद्य को लंका नगरी से उठा लाए।उसके कहने पर हिमालय से संजीवनी बूटी लाए और लक्ष्मण के प्राण बच सके- ‘कहाँ लंका और कहाँ हिमालय।
एक इस छोर तो दूसरा उस छोर।’ क्या यह किसी साधारण मानव का काम था! नहीं, लेकिन उसका श्रेय खुद न लेकर अपने प्रभु राम को दिया। राम की भी विनय का क्या कहना। जिस माँ कैकेयी ने उन्हें वनवास दिया, उसे राम ने पूरा सम्मान यह कहकर दिया कि, ‘माँ! पहले मैं केवल कुछ लोगों का राम था। आपने मुझे जन-जन के दिल का राम बना दिया।’
राम जी ने परित्यक्ता अहिल्या को सम्मान दिलाया। अभिमानी शक्तिशाली बाली का वध किया। विश्व विजेता, घमण्डी, मद में चूर, अपनी मायावी शक्तियों पर अभिमानी और उन शक्तियों का दुरुपयोग करने वाले रावण पर विजय प्राप्त करके भी उनके दिल में घमंड नहीं आया, अपितु अपने भाई लक्ष्मण को उसके पास यह कहकर भेजा कि, उस विद्वान से कुछ नीतिपरक बातें सीख कर आए। जिसने सच्ची विद्या प्राप्त की हो, वही ऐसा कर सकता है।
महाभारत काल में ही देखें कि, कृष्ण से बड़ा कोई युग निर्माता और ज्ञानी आज तक नहीं हुआ। कई उदाहरण हैं उनके नए युग के निर्माण के। बचपन में कालिया नाग का मान-मर्दन किया। उसे यमुना छोड़कर जाने पर विवश किया और यमुना को प्रदूषण मुक्त किया। इससे लोगों तक यह संदेश गया कि, प्राकृतिक संसाधनों पर सबका हक है। किसी एक का एकाधिकार नहीं। नदियों को प्रदूषित करने का हक तो कतई नहीं। ब्रज बालाओं के वस्त्र चुराकर यह सीख दी कि, नदी में निर्वस्त्र होकर स्नान न करो। किसी की भी लोलुप दृष्टि पड़ सकती है। हालाँकि, कई कवियों और लेखकों ने इसे अपने अलग दृष्टिकोण से वर्णित किया है जबकि जब वस्त्र चुराते थे, तब उनकी अवस्था मात्र ८ वर्ष की थी।
१६१०० रानियों को नरकासुर ने बंदी बना रखा था। कान्हा जी ने उन्हें उसकी कैद से मुक्त कराकर अपनी पत्नियों का दर्जा देकर सम्मान से जीने का अधिकार दिया। लोगों ने न जाने क्या-क्या नहीं कहा। ‘रसिया’ कहा और कैसे-कैसे लांछन लगाए, पर कृष्ण जी ने उन सबकी परवाह नहीं की। परवाह थी कि, नारी को भी सम्मान से जीने का अधिकार है। यदि कोई उनका हरण करके ले गया तो इसमें उनका क्या दोष। क्यों नहीं उनके पिता और पति ने उन्हें अपने घर में स्थान दिया ? इसी कारण श्रीकृष्ण ने उनसे विवाह करके सम्मान से जीने का अधिकार दिया। यही था सही मायनों में विद्या और ज्ञान। त्रस्त लोगों को त्रास से मुक्ति दिलाना।
जरासंध की कैद से कितने ही राजाओं को मुक्त कराकर उनके राज्य पर अधिकार न करके उन्हीं राजाओं का राज्याभिषेक किया। पूतना जैसी दानवी का वध तो अपने अत्याचारी मामा कंस का वध करके नाना को सिंहासनारूढ़ किया। अपने माता-पिता को कारागार से मुक्ति दिलाई। बाद में जरासंध और कालयवन जैसों का भी अंत किया। जरासंध मथुरावासियों को न मारे, इसलिए समुद्र में द्वारिका बसाई। सारी जनता को द्वारिका भेजा। जरासंध ने सोचा कि, कृष्ण मेरे डर से भाग गया। तब उनका नाम ‘रणछोड़’ पड़ गया। कृष्ण और बलराम तो मथुरा में ही थे। बड़ी सूझ-बूझ से काम लेते हुए जरासंध का अंत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन सारा श्रेय भीम को दिया। नम्रता की पराकाष्ठा और ज्ञान का समयानुसार उचित उपयोग किया।
इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में अतिथियों के पैर धोने का जिम्मा लिया। वहाँ शिशुपाल का वध करना पड़ा। उनका मानना था-
‘क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो।
उसको क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत सरल हो।’
इतने विषदन्तों का संहार करके भी घमंड नहीं हुआ। महाभारत युद्ध में उनकी भूमिका को कौन भूल सकता है। शान्ति के पूरे प्रयास किए, मगर समझ आ गया, जैसा कि गीता में कहा गया है
‘मगर यह शान्तिप्रियता रोकती केवल मनुज को।
नहीं वह रोक पाती है दुराचारी दनुज को।’
दनुज क्या शिष्ट मानव को कभी पहचानता है ?
विनय को नीति कायर की सदा वह मानता है।’
युद्ध में पाण्डवों की जीत होने पर भी उनमें घमंड नहीं था, जबकि वो जानते थे कि उनकी नीति के अनुसार चलकर ही पाण्डवों को विजय मिली। इतना विनीत तो कोई सच्चा ज्ञानी ही हो सकता है। अपने दरिद्र मित्र सुदामा को पूरा सम्मान देकर बिना बताए उसे मालामाल करके मित्रता की एक मिसाल कायम की।
सच्चा ज्ञानी सुपात्र को, समाज को देने के लिए ही सोचता है, लेने के लिए नहीं।

सच्चे अर्थों में ज्ञानी व्यक्ति अपने ज्ञान का प्रयोग जनहित में करता है, जन का संहार करने में नहीं।