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विद्रूप से हुए आज सब

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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विश्वास:मानवता, धर्म और राजनीति…

देखो-देखो जी घिनौना खेल खेल रहे हैं,
धर्म और राजनीति का खेल खेलने वाले
खिलाड़ी तो खेलते हैं धुआंधार दिन-रैना,
मार तो झेलते हैं सदा मजलूम झेलने वाले।

धर्म के द्वारे जाते हैं लोग जब थके-हारे,
जाते हैं बेचारे लूटे, घसीटे, ठगे और मारे
राजनीति की जमात में दाखिल होते ही,
जाते हैं बेचारे बेरहमी से लताड़े, नकारे।

दोस्त का दुश्मन, दुश्मन का दोस्त कब ?
बन जाए राजनीति में कोई पता नहीं
जिनके हाथ में सत्ता है, वे हैं नाकाबिल,
जो काबिल हैं, उनके हाथ में सत्ता नहीं।

अब तो धर्म से भी डर-सा लगने लगा है,
राजनीति तो सदा से ऐसी ही होती थी
नेता तो श्रेष्ठ था, श्रेष्ठ है और श्रेष्ठ रहेगा,
जनता छोटी है, छोटी रहेगी, छोटी थी।

कभी-कभी तो शक ही हो जाता है,
धर्म और राजनीति की जुगलबंदी पे
तौबा-तौबा रे, हाय दईया! की नौबत,
कब छुटकारा हो इस व्यवस्था गंदी से ?

हर मोड़ पर है बैठे नए-नए लुटेरे,
किस-किस से बचूं और कैसे बचूं ?
भेदूं चक्रव्यूह तो कैसे-कैसे भेदूं ?
रचूं चक्रव्यूह तो फिर कैसे- कैसे रचूं ?

है असमंजस घना, क्या सच है क्या झूठ ?
धर्म और राजनीति में छाया बस कोहरा है
हर दर्शन और राजनीतिक विचारधारा का,
देखें तो हर शब्द और हर भाव ही दोहरा है।

आत्म विस्मृतियों में धकेलती यह व्यवस्था,
नित-नित घने अंधकार में हमें ले जाती है
न ही धर्म दिखाता है कोई मार्ग आज सच्चा,
न राजनीति कोई न्याय की राह दिखाती है।

विद्रूप से हुए हैं आज सब धर्म-धुरंधर,
राजनयिकों ने जनहित ही बिसारा है।
धन ही ईश्वर और न्याय आज सभी का,
धर्म नेता, राजनेता सबने उसे स्वीकारा है॥