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शिक्षा, सुन्दरता और सम्मान के बदलते मानक

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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आज आधुनिकता के दौर में शिक्षा का गुणांक अच्छे अंक प्राप्त करना, सुन्दरता का मापदंड बाह्य रंग-रूप तथा सम्मान का मानक पैसा हो गया है।
यही पश्चिम की सोच थी कि, भारतीय लोग अपनी संस्कृति के परम भाव से बाहर निकल जाएं, ताकि उनकी सुरक्षात्मक आधारभूत विश्वास और नैतिकता प्रिय शक्ति टूट जाए और वे विदेशी, भीरू और बेशर्म संस्कृति के गुलाम बन जाएं।
आज रटा और सटा तंत्र की शिक्षा पद्धति भारत में हावी हो गई है। छात्र रट्टा मार कर परीक्षा उत्तीर्ण कर लेते हैं, और अच्छे अंक ले आते हैं, समझ भले ही उस विषय की हो या न हो, या फिर एमसीक्यू में सटा यानी तुक्का लगाकर अंक प्राप्त करते हैं। फिर बड़े खुश होते हैं कि देखो क्या निर्णय है हमारा। न जाने क्यों शिक्षाविद आँकड़ों की इस शिक्षा प्रणाली को निरन्तर हावी किए जा रहे हैं ?, जबकि यह सबको पता है कि शिक्षा का सम्बन्ध भावात्मक और विचारात्मक धरातल में विकास करने को लेकर होता है, न कि मात्र बौद्धिक तौर पर विकसित करना, पर आज के समय में तो बौद्धिक स्तर पर भी विकास कहां हो रहा है ? बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने के लिए भी समझ का होना जरूरी है।आज की शिक्षा प्रणाली नौकरी के लिए रट्टा और सटा वाली बनाना मजबूरी है। शर्म आती है कभी-कभी तो। घोर स्वार्थी हो रहा है आज का शिक्षित इन्सान। क्या यही शिक्षा है ?
सुन्दर का अर्थ है ‘सु+अन्दर’ अर्थात जो अन्दर से अच्छा हो, पर हमने बाह्य रंग- रूप को सुन्दर कहना शुरू कर दिया, जबकि वह सुरूप कहलाता था। शब्दों के आज अर्थ बदल दिए हैं।
ऐसे ही पैसा सामाजिक जरूरतों के लिए एक अनिवार्य विनिमय था, पर आज वही मान-सम्मान का परिचायक हो गया है, जबकि मान-सम्मान व्यक्ति के ज्ञान व ध्यान, सेवा और सत्संग तथा तप व त्याग से सम्बन्ध रखता था।

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