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श्राद्ध में श्रद्धा जीवन का मेरूदंड

डाॅ. पूनम अरोरा
ऊधम सिंह नगर(उत्तराखण्ड)
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पितृ पक्ष विशेष….


भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म में श्राद्ध का अपना विशेष स्थान है। श्रद्धा से श्राद्ध शब्द बना है। श्रद्धा पूर्वक किए हुए कार्य को श्राद्ध कहते हैं। सत्कार्यों के लिए आदर-कृतज्ञता की भावना रखना श्रद्धा कहलाता है। श्राद्ध द्वारा हमारी संस्कृति ने श्रद्धा तत्व को जीवित रखने का प्रयत्न किया है। जीवित पितृ को तो हम सेवा-पूजा,आराधना से प्रसन्न कर लेते हैं,लेकिन स्वर्गीय पितरों हेतु कृतज्ञता प्रकट करने का उपाय श्राद्ध ही है। हिन्दू,श्राद्ध करके ही मृतकों के उपकार,प्रेम,आत्मीयता से कृतज्ञ हो जाते हैं। श्राद्ध और तर्पण का मूल आधार अपनी कृतज्ञता और आत्मीयता की सात्विक प्रवृत्तियों को जागृत रखना है। इन प्रवृत्तियों का जीवित,जागृत रहना संसार की सुख-शान्ति के लिए नितान्त आवश्यक है ।
माता-पिता और गुरू के प्रयत्न से बालक का विकास होता है। इन तीनों के उपकार के बदले में बालक को तीनों के प्रति मन में अटूट श्रद्धा धारण किए रहने का शास्त्रकारों ने आदेश किया है। स्मृतिकारों ने माता को ब्रह्मा,पिता को विष्णु और आचार्य को शिव का स्थान दिया है। यह कृतज्ञता की भावना सदैव बनी रहे,इसलिए गुरूजनों का चरण स्पर्श,अभिनन्दन नित्य के धर्म कृत्यों में सम्मिलित किया गया है। यह कृतज्ञता जीवन भर धारण किए रहना आवश्यक है। यदि इन गुरूजनों का स्वर्गवास हो जाए तो भी मनुष्य की श्रद्धा कायम रहनी चाहिए। इस दृष्टि से मृत्यु के पश्चात पितृ पक्षों में मृत्यु की वर्ष तिथि के दिन,पर्व समारोहों पर श्राद्ध करने का श्रुति स्मृतियों में विधान है।
संसार के सभी देशों,सभी धर्मों,सभी जातियों में किसी न किसी रूप में श्राद्ध होता है। मृतकों के स्मारक,कब्र,मकबरे संसार भर में देखे जाते हैं। पूर्वजों के नाम पर नगर,मुहल्ले,संस्थाएँ,मकान, तालाब,मन्दिर,मीनार आदि बनाकर उनके नाम तथा यश को चिरस्थाई रखने का प्रयत्न किया जाता है।उनकी स्मृति में पर्वों एवं जयन्तियों का आयोजन किया जाता है,यह अपने-अपने ढंग के श्राद्ध ही हैं। आज आधुनिकीकरण की दौड़ में शामिल लोग कहने लगे हैं कि ये पितृ श्राद्ध कर्म करने का क्या फायदा ? जाने वाला चला गया,जाने के बाद पुनः जन्म ले चुका होगा। ‘क्या फायदा’ वाला तर्क केवल हिन्दू श्राद्ध पर ही नहीं,समस्त संसार की मानव प्रवृत्ति पर लागू होता है। अपने माता-पिता और गुरूजन के प्रेम,उपकार,आत्मीयता एवं महानता के प्रति मनुष्य कृतज्ञता प्रकट करने के प्रत्युपकार स्वरूप जब तक कुछ प्रदर्शन न कर ले,तब तक उसे आन्तरिक बेचैनी बनी रहती है। इस बेचैनी को दूर करने हेतु श्राद्ध जैसे अनुष्ठान करने भी आवश्यक हैं।
एक और प्रश्न सभी जनमानस के मन-मस्तिष्क में आता है,वो ये कि,मरे हुए व्यक्तियों के श्राद्ध कर्म से कुछ लाभ होता है कि नहीं ? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि,संसार एक समुद्र के समान है जिसमें जल कणों की भांति हर एक जीव है। विश्व एक शिला है तो,व्यक्ति उसका एक परमाणु। प्रत्येक आत्मा जो जीवित है या मृत रूप में इस विश्व में मौजूद है,अन्य समस्त आत्माओं से सम्बद्ध है। इसलिए कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शान्तिमय सद्भावना की लहरें पहुँचाता है। यह सूक्ष्म भाव तरंगें सुगंधित पुष्पों की सुगन्ध की भांति तृप्तिकारक,उत्साहवर्धक होती हैं। सद्भावना की सुगन्ध जीवित और मृतक सभी को तृप्त करती है। इन सभी में हमारे स्वर्गीय पितर भी आ जाते हैं। उन्हें भी श्राद्ध-यज्ञ की दिव्य तरंगें आत्म शान्ति प्रदान करती हैं। मर जाने के उपरांत जीव का अस्तित्व मिट नहीं जाता,वह किसी न किसी रूप में इस संसार में ही रहता है।
श्रद्धा-कृतज्ञता हमारे धार्मिक जीवन का मेरूदण्ड है। यह भाव निकल जाए तो धार्मिक समस्त क्रियाएँ व्यर्थ,नीरस एवं निष्प्रयोजन हो जाएंगी। जल की एक अंजली से,दीपक से अथवा पुष्प से भी श्राद्ध किया जा सकता है। मुख्यतः श्राद्ध में ‘भावना’ ही प्रधान है।

परिचय–उत्तराखण्ड के जिले ऊधम सिंह नगर में डॉ. पूनम अरोरा स्थाई रुप से बसी हुई हैं। इनका जन्म २२ अगस्त १९६७ को रुद्रपुर (ऊधम सिंह नगर) में हुआ है। शिक्षा- एम.ए.,एम.एड. एवं पीएच-डी.है। आप कार्यक्षेत्र में शिक्षिका हैं। इनकी लेखन विधा गद्य-पद्य(मुक्तक,संस्मरण,कहानी आदि)है। अभी तक शोध कार्य का प्रकाशन हुआ है। डॉ. अरोरा की दृष्टि में पसंदीदा हिन्दी लेखक-खुशवंत सिंह,अमृता प्रीतम एवं हरिवंश राय बच्चन हैं। पिता को ही प्रेरणापुंज मानने वाली डॉ. पूनम की विशेषज्ञता-शिक्षण व प्रशिक्षण में है। इनका जीवन लक्ष्य-षड दर्शन पर किए शोध कार्य में से वैशेषिक दर्शन,न्याय दर्शन आदि की पुस्तक प्रकाशित करवाकर पुस्तकालयों में रखवाना है,ताकि वो भावी शोधपरक विद्यार्थियों के शोध कार्य में मार्गदर्शक बन सकें। कहानी,संस्मरण आदि रचनाओं से साहित्यिक समृद्धि कर समाजसेवा करना भी है। देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-‘हिंदी भाषा हमारी राष्ट्र भाषा होने के साथ ही अभिव्यक्ति की सरल एवं सहज भाषा है,क्योंकि हिंदी भाषा की लिपि देवनागरी है। हिंदी एवं मातृ भाषा में भावों की अभिव्यक्ति में जो रस आता है, उसकी अनुभूति का अहसास बेहद सुखद होता है।

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