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श्रीलंका से सबक लें

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंद्र राजपक्ष को मजबूरन इस्तीफा देना पड़ गया। उनके छोटे भाई गोटबाया राजपक्ष अभी भी राष्ट्रपति पद पर डटे हुए हैं। श्रीलंका में आम-जनता के बीच इतना भयंकर असंतोष फैल गया है कि राजपक्ष सरकार को कई बार कर्फ्यू लगाना पड़ गया है। राजपक्ष सरकार के मंत्रिमंडल में राजपक्ष-परिवार के लगभग आधा दर्जन सदस्य कुर्सी पर जमे हुए थे। जब आम जनता का गुस्सा बेकाबू हो गया तो मंत्रिमंडल को भंग कर दिया गया। लोगों के दिलों में यह प्रभाव जमाया गया कि राजपक्ष परिवार को कोई पद-लिप्सा नहीं है। राष्ट्रपति गोटबाया ने सारे विपक्षी दलों से निवेदन किया कि वे आएं और मिलकर नई संयुक्त सरकार बनाएं लेकिन विपक्ष के नेता सजित प्रेमदास ने इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया। अब भी राष्ट्रपति का कहना है कि विपक्ष अपना प्रधानमंत्री खुद चुन ले और श्रीलंका को इस भयंकर संकट से बचाने के लिए मिली-जुली सरकार बनाए लेकिन विपक्ष के नेता इस प्रस्ताव पर अमल के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। वे सारे श्रीलंकाइयों से एक ही नारा लगवा रहे हैं- ‘गोटा गो’ याने राष्ट्रपति भी इस्तीफा दें। श्रीलंका के विपक्षी नेताओं की यह मांग ऊपरी तौर पर स्वाभाविक लगती है लेकिन समझ नहीं आता कि नए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की नियुक्ति क्या चुटकी बजाते ही हो जाएगी ? उनका चुनाव होते-होते श्रीलंका की हालत और भी बदतर हो जाएगी। नए राष्ट्रपति और नई सरकार खाली हुए राजकोष को तुरंत कैसे भर सकेगी ? श्रीलंका का विपक्ष भी एकजुट नहीं है। स्पष्ट बहुमत के अभाव में वह सरकार कैसे बनाएगा ? वह सर्वशक्ति संपन्न राष्ट्रपति को कैसे बर्दाश्त करेगा ? यदि श्रीलंका का विपक्ष देशभक्त है तो उसका पहला लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह मंहगाई, बेरोजगारी और अराजकता पर काबू करे। गोटबाया सरकार जैसी भी है, फिलहाल उसके साथ सहयोग करके देश को चौपट होने से बचाए। भारत, चीन और अमेरिका जैसे देशों से प्रचुर सहायता का अनुरोध करे और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष से भी आपात राशि की मांग करे। अभी तो लोग दंगों और हमलों से मर रहे हैं लेकिन जब वे भुखमरी और बेरोजगारी से मरेंगे तो वे किसी भी नेता को नहीं बख्शेंगे, वह चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का! श्रीलंका की वर्तमान दुर्दशा से पड़ौसी देशों को महत्वपूर्ण सबक भी मिल रहा है। तमिल आतंकवाद को खत्म करनेवाले महानायक महिंद गोटबाया की प्रतिष्ठा अचानक यदि पैंदे में बैठ सकती है तो पड़ौसी देशों के जो नेता आज लोकप्रियता की लहर पर सवार हैं, उनकी हालत तो और भी बुरी हो सकती है। गोटबाया बंधुओं ने श्रीलंका सरकार को अपनी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना लिया था। उसमें भाई-भतीजे मिलकर मनचाहे फैसले कर लेते थे। श्रीलंका के ज्यादातर पड़ौसी देशों का भी यही हाल है।

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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