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संकट में घिरी कांग्रेस, कई शंकाएं निहित

ललित गर्ग

दिल्ली
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लोकसभा चुनाव में कांग्रेस जनता के बीच जिस तरह के मुद्दों को लेकर चर्चा में हैं, उनमें देश विकास से अधिक मुफ्त की रेवड़ियाँ बांटने या अतिश्योक्तिपूर्ण सुविधा देने की बातें हैं, तो ‘विरासत टैक्स’ के नाम पर जनता की गाड़ी कमाई को हड़पने के सुझाव हैं। ऐसी विरोधीभासी सोच एवं योजनाएं कांग्रेस की अपरिपक्व एवं स्वार्थ प्रेरित राजनीति को ही उजागर करती है। इंडिया ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष एवं राहुल गांधी के विश्वस्त सलाहकार सैम पित्रोदा ने चुनावी समर में ‘विरासत टैक्स’ की वकालत की है। उन्होंने अमेरिका में लागू इस कर की पैरवी करते हुए भारत के लिए उपयोगी बताया। कांग्रेस ने इस बयान से खुद को अलग कर लिया है, लेकिन राजनीति की इन कुचालों एवं ऐसे बयानों में कांग्रेस का इरादा जनता की मेहनत की कमाई की संगठित और वैध लूट ही नजर आता है। भले ही इस बयान ने कांग्रेस के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हो, लेकिन जनता को मूर्ख समझ हर बार हंगामा खड़ा करना कांग्रेस की नीति एवं नियत रही है। सैम ऐसे ही विवादास्पद बयानों से पूर्व में भी चर्चा में रहे हैं।
अमेरिका में ‘विरासत टैक्स’ जैसी अनेक स्थिति व कानून हैं, जो भारत में नहीं है क्योंकि हर देश की अपनी स्थितियाँ होती है। बयान ने इसलिए तूल पकड़ लिया, क्योंकि कांग्रेस ने घोषणा-पत्र में लोगों की संपत्ति के सर्वे का वादा किया है। इसकी व्याख्या भाजपा पहले से ही इस रूप में कर रही है कि, कांग्रेस संपत्ति का आकलन करके सम्पन्न-सक्षम लोगों की सम्पदा का एक हिस्सा लेने का इरादा रखती है। ‘कांग्रेस की लूट जिन्दगी के साथ भी और जिन्दगी के बाद भी, कह कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को निशाने पर लिया है। निश्चित ही कांग्रेस की संपत्ति के सर्वेक्षण की बात में गहरे अर्थ, संदेह एवं शंकाएं निहित हैं। राजननेताओं के बयानों पर राजनीति होना लोकतंत्र का एक हिस्सा है, लेकिन जनता के हितों पर आघात करना दुर्भाग्यपूर्ण है। लोकतन्त्र में सतत् रूप से अमीर-गरीब का विमर्श चलता रहता है, गरीबों के हित की बात करके अधिसंख्य मतदाताओं को लुभाना राजनीतिक चतुराई है, लेकिन जनता को बांटना एवं अलग-अलग खेमों में खड़ा करना, लोकतंत्र को कमजोर करता है, मगर भारत का मतदाता अब इतना सुविज्ञ एवं समझदार है कि, वे राजनेताओं की मंशा को समझकर उस समय आगे बढ़कर नेतृत्व खुद संभाल लेते हैं, जब नेतागण पथ भूल जाते हैं। भारत के चुनावों का इतिहास इसका गवाह रहा है। इसलिए, राजनीतिक विमर्श चाहे जितना गर्त में चला जाए, मगर मतदाता की सूझबूझ, जागरूकता एवं विवेक कभी मंद नहीं पड़ती।
भले ही सैम पित्रोदा अमेरिका का उदाहरण देकर उस पर भारत में बहस की जरूरत जता रहे थे, लेकिन गलत समय ऐसा उदाहरण नहीं देना चाहिए था, जो तथ्यात्मक रूप से पूरी तरह भारत की परिस्थितियों के लिए सही न हो और विवाद का विषय बनने की भरी-पूरी संभावनाएं हो। यह तो कांग्रेस ही जाने कि, वह संपत्ति के सर्वे के जरिए क्या हासिल करना चाहती है, लेकिन इससे इन्कार नहीं कि देश में आर्थिक असमानता कम करने की आवश्यकता है। इसके बाद भी इस आवश्यकता की पूर्ति न तो वामपंथी सोच वाले तौर-तरीकों से की जा सकती है और न ही उन उपायों से, जो समाज में विभाजन पैदा करें। जो भी निर्धन-वंचित हैं या सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछडे़ हैं, उनके उत्थान की अतिरिक्त चिंता की जानी चाहिए, लेकिन बिना उनका जाति देखे, बिना विभाजन की राजनीति किए।
कांग्रेस के शासन में तकनीकी के पुरोधा और इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और डॉ. मनमोहन सिंह के सलाहकार रह चुके श्री पित्रोदा राहुल के खास लोगों में से एक हैं। श्री पित्रोदा के अनेक बयान पहले भी विवाद एवं कांग्रेस के सिरदर्द की वजह बन चुके हैं। उन्होंने बालाकोट एयरस्ट्राइक ऑपरेशन पर सबूत मांगे थे।
सैम पित्रोदा के बयान एवं कांग्रेस के घोषणा पत्र के निजी सम्पत्ति सर्वे की बात में अवश्य ही रिश्ता है, जिसने पूरे देश के सामने कांग्रेस का मकसद स्पष्ट कर दिया है कि निजी संपत्ति का सर्वे कर निजी संपत्ति को सरकारी खजाने में डालकर वह इस धन को अपने ‘वोट बैंक’ में बांटना चाहती है। ऐसी योजना यूपीए सरकार में तय भी हुई थी कि, देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यक और उसमें भी सबसे अधिक मुस्लिमों का है, उस प्रकार से कांग्रेस की यह मुसलमानों को लुभाने एवं उन्हें लाभ पहुंचाने की अघोषित चुनावी घोषणा है। इस तरह की घोषणाएं लोकतंत्र में सुशासन एवं राजनीतिक मूल्यों को धुंधलाने की कुचेष्टा ही कही जाएगी। लोकतांत्रिक व्यवस्था में नेता बादशाह नहीं होता, बल्कि साधारण मतदाता बादशाह होता है क्योंकि उसके ही एक मत से सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। मतदाता को जो मूर्ख समझते हैं, उनसे बड़ा मूर्ख दूसरा नहीं होता। ऐसे तथाकथित बयानों से भारत में संसदीय प्रणाली का लोकतंत्र कभी भी प्रभावित नहीं होगा, वह सफल रहा है और रहेगा, क्योंकि भारत के लोग अनपढ़ व गरीब हो सकते हैं, मगर वे अज्ञानी नहीं है। उनका व्यावहारिक ज्ञान बहुत मजबूत होता है और

गुमराह नहीं होने वाले हैं। यह सच है कि जब से भारत में जातिवादी, क्षेत्रवादी, भाषावादी, वर्गवादी व सम्प्रदायवादी राजनीति का बोलबाला हुआ है, तभी से राजनीति के विमर्श में गिरावट आनी शुरू हुई है, लेकिन इसको संभालने के लिए मतदाता को अधिक परिवक्व एवं समझदार होने की अपेक्षा है।