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संघर्षमय मेरा विद्यार्थी जीवन

डॉ.पूर्णिमा मंडलोई
इंदौर(मध्यप्रदेश)

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मेरा विद्यार्थी जीवन स्पर्धा विशेष ……..

विद्यार्थी जीवन जितना मस्ती भरा और बेफिक्री का होता हैैैै,वहीं कभी-कभी संघर्ष से भरा हुआ भी होता है। बचपन से लेकर युवावस्था तक निरन्तर चलता रहता है। बल्कि,कहूंगी जीवन पर्यंत चलने वाला होता है विद्यार्थी जीवन। जो विद्यार्थी संघर्ष करता है,वह निश्चित ही अपने लक्ष्य को पा लेता है। विद्यार्थी के जीवन में उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। इसी तरह का उतार-चढ़ाव और संघर्षमय विद्यार्थी जीवन मेरा भी रहा है।
माता-पिता दोनों नौकरी करते थे। दोनों ही शिक्षक थे। इसलिए,घर का थोड़ा काम मुझे भी करना पड़ता था। छोटी-सी उम्र में ही घर के सभी कार्य और खाना बनाना सीख लिया था। इसी के साथ पढ़ाई भी चलती रही। घर का काम करके थक जाती,तो पढ़ाई में मन नहीं लगता था। फिर भी संघर्ष करते हुए थोड़ी-थोड़ी पढ़ाई कर के आगे बढ़ती गई।
जब मैं कक्षा नौवीं में थी,उस समय कक्षा ९ से ही विषय चयन करते थे। माता-पिता ने विज्ञान-जीव विज्ञान पढ़ने का बोल दिया,वही ले लिया। मुझे जीव विज्ञान अच्छा लगने लगा था। कक्षा नवीं में ही मैंने जीव विज्ञान में एम.एस-सी. करने की ठान ली थी,परंतु मुझे भौतिक शास्त्र कठिन लगता था। समझ ही नहीं आता था। एक दिन भौतिक शास्त्र के शिक्षक ने मुझसे कहा कि तुम विषय बदल लो, परन्तु मन में पक्का इरादा तो जीव विज्ञान में स्नातकोत्तर की उपाधि लेने का था। मरती क्या न करती,भौतिक तो पढ़ना ही पढ़ा। उस समय कक्षा ग्यारहवीं बोर्ड परीक्षा होती थी। भौतिक शास्त्र के प्रश्न-पत्र में कुछ प्रश्न पाठ्यक्रम के बाहर से पूछे गए थे। इसलिए मेरा पर्चा तो बिगड़ना ही था। ग्यारहवीं परीक्षा का परिणाम आया तो जिसका डर था,वही हुआ। भौतिक ने मुझे पटखनी दे ही दी। अब ११वीं कक्षा की पढ़ाई फिर से करने का मन बनाया और विद्यालय जाना शुरू कर दिया। एक दिन अचानक पता चला कि जो प्रश्न पाठ्यक्रम के बाहर से पूछे गए थे,बोर्ड द्वारा उसके बदले कुछ अंक विद्यार्थियों को दिए जा रहे हैं। उन अंकों से मैं उत्तीर्ण हो गई। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब तो होलकर महाविद्यालय में बी.एस-सी. प्रथम वर्ष में प्रवेश ले लिया।
यहां भी भौतिकी ने पीछा नहीं छोड़ा,लेकिन खुशी इस बात की थी कि सिर्फ एक ही वर्ष भौतिक शास्त्र पढ़ना है-द्वितीय वर्ष से नहीं पढ़ना पड़ेगा। कहते हैं ना कि ‘फर्स्ट ईयर इज़ रेस्ट ईयर।’ हमारे जमाने में बी.एस-सी. प्रथम वर्ष का परीक्षा परिणाम मात्र १०-१२ प्रतिशत ही आता था। मैं इस प्रतिशत में नहीं थी। पूरक परीक्षा का परिणाम देख कर भाई आया। मैं उत्तीर्ण हो गई थी,परन्तु उसने मजाक में कह दिया-तू फेल हो गई है। मुझे लगा अब मेरा विषय परिवर्तन होना निश्चित ही है। खैर! अब पढ़ाई की तरफ मेरा रुझान बढ़ने लगा। मैंने द्वितीय और तृतीय वर्ष की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इस परिणाम से पढ़ाई में जो लगन लगी कि घर का सारा काम जल्दी से कर के पढ़ाई करने बैठ जाती। जब किसी कार्य में सफलता मिलती है,तब उस कार्य को करने में रुचि बढ़ती जाती है। स्नातक की उपाधि (डिग्री) के बाद मैंने प्राणी शास्त्र में एम.एस-सी. में प्रवेश ले लिया। यही तो मेरी मंजिल थी। ये २ वर्ष मेरे विद्यार्थी जीवन के स्वर्णिम वर्ष थे। इस समय सहपाठियों का बहुत अच्छा समूह बन गया था। बहुत मौज-मस्ती के साथ पढ़ाई की। स्नातकोत्तर की उपाधि प्राविण्य में सूची में पांचवें स्थान के साथ हासिल की।
विद्यार्थी जीवन यहां खत्म नहीं हुआ। बी.एड. किया। किस्मत ने साथ दिया और शासकीय नौकरी मिली। नौकरी के २ साल बाद विवाह बंधन में बंध गई। नौकरी शासकीय थी,इसलिए जारी रही। मन के किसी कोने में अपने नाम के आगे ‘डॉक्टर’ लिखने की इच्छा बचपन से ही थी। इसलिए पी-एच.डी. करने की सोची। यह एक सर्वोच्च उपाधि है। इसे प्राप्त करना विद्यार्थी जीवन की एक कठिन यात्रा है। अतः किस विषय में किया जाए,इस विचार से एम.एड. कर लिया और उसके बाद हिंदी साहित्य में एम.ए. की उपाधि हासिल की। घर- परिवार,बच्चों की परवरिश और शासकीय नौकरी के साथ पढ़ाई करना आसान नहीं था,परन्तु प्रबल इच्छा शक्ति और पति के सहयोग से संभव हो पाया,लेकिन मंजिल दूर थी। पी-एच.डी. अभी बाकी थी। मुश्किलों के साथ पढ़ाई करने के सफर को पति ने नजदीक से देखा था। इसलिए पी-एच.डी. करने की इजाजत नहीं दी। आखिरकार मेरी जिद के आगे के सहमति दे ही दी। कठिनाइयों के साथ ४ वर्ष की पी-एच.डी.की यात्रा पूर्ण हुई और मेरे नाम के आगे ‘डाॅ.’ लिखा गया।
ऐसे मेरा विद्यार्थी जीवन निरन्तर जारी रहा। जीवन में कुछ न कुछ करते रहने के संस्कार मुझे मेरी नानी और माँ से मिले। एक्यूप्रेशर का डिप्लोमा कोर्स किया। शासकीय नौकरी में रहते हुए भी बहुत से कार्यों को सीखने का अवसर मिलता गया और आगे बढ़ती गई।
२०१३ में शरीर के कुछ जोड़ों में दर्द होने लगा। पता चला कि मुझे गठिया हो गया है। इस बीमारी को दूर करने के लिए मेरे विद्यार्थी नितिन ने मुझे योग करने की सलाह दी। वह स्वयं एक योग शिक्षक है। वह मुझे योग सिखाने लगा,और मैं उसकी शिष्या बन गई।
आफिस दूर था। स्कूटर से जाने में कठिनाई होती थी,इसलिए कार चलाना सीखी। गलती करने पर विद्यार्थी की तरह ही डांट भी पड़ती थी।
एक दिन अचानक मेरे सामने घटी एक घटना को मैंने शब्दों का रुप दे दिया तो मन को बहुत सुकून मिला। मेरी लेखनी को थोड़ी सराहना भी मिली। बस फिर क्या था,मैंने वरिष्ठ साहित्यकारों को पढ़ते हुए उनसे सीखकर लिखने की यात्रा आरंभ की। अभी पहली पायदान पर हूँ।
अभी कुछ दिन पहले ही मेरी मित्र ने ऑन लाइन गीता सीखने के लिए मुझे एक कड़ी (लिंक) भेजी। और गीता पढ़ना सीख रही हूँ।
जीवन के हर मोड़ पर हमें कुछ ना कुछ सीखने को मिलता है। कभी-कभी हमारे बच्चे भी हमारे गुरु बन जाते हैं। मैंने जीवन में कोई अनोखा कार्य नहीं किया है। ऐसा सभी के साथ होता है। सभी जीवन के हर मोड़ पर कुछ ना कुछ सीखते ही रहते हैं। संघर्ष और उतार चढ़ाव तो जीवन की रीढ़ है।
यह लिखने के लिए कईं वर्षों पहले पीछे मुड़कर देखा तो लगा जैसे कल की ही बात हो। कैसे इतना लंबा समय गुजर गया,पता ही नहीं चला। कुछ खट्टी-मीठी यादें ताजा हो गई। कुछ भूले-बिसरे लम्हों को आज मैंने फिर से जी लिया है।

परिचय–डॉ.पूर्णिमा मण्डलोई का जन्म १० जून १९६७ को हुआ है। आपने एम.एस.सी.(प्राणी शास्त्र),एम.ए.(हिन्दी) व एम.एड. के बाद पी-एच. डी. की उपाधि(शिक्षा) प्राप्त की है। डॉ. मण्डलोई मध्यप्रदेश के इंदौर स्थित सुखलिया में निवासरत हैं। आपने १९९२ से शिक्षा विभाग में सतत अध्यापन कार्य करते हुए विद्यार्थियों को पाठय सहगामी गतिविधियों में मार्गदर्शन देकर राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर सफलता दिलाई है। विज्ञान विषय पर अनेक कार्यशाला-स्पर्धाओं में सहभागिता करके पुरस्कार प्राप्त किए हैं। २०१० में राज्य विज्ञान शिक्षा संस्थान (जबलपुर) एवं मध्यप्रदेश विज्ञान परिषद(भोपाल) द्वारा विज्ञान नवाचार पुरस्कार एवं २५ हजार की राशि से आपको सम्मानित किया गया हैL वर्तमान में आप सरकारी विद्यालय में व्याख्याता के रुप में सेवारत हैंL कई वर्ष से लेखन कार्य के चलते विद्यालय सहित अन्य तथा शोध संबधी पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कविता प्रकाशन जारी है। लेखनी का उद्देश्य लेखन कार्य से समाज में जन-जन तक अपनी बात को पहुंचाकर परिवर्तन लाना है।

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