कुल पृष्ठ दर्शन : 244

You are currently viewing हर कदम पर प्रेरणादायक पापा और साईकल

हर कदम पर प्रेरणादायक पापा और साईकल

श्रीमती चांदनी अग्रवाल
दिल्ली
*****************************

मेरे पिता जी की साईकल स्पर्धा विशेष…..

कहां से शुरू करुं ? समझ ही नहीं आ रहा है। पिताजी,मेरा बचपन या साइकिल ? जवाब मिल गया। सच तो यह है कि यह तीनों आपस में जुड़े हुए हैं। मेरे बचपन की यादों में पापा और उनकी साइकिल एक अहम हिस्सा है।
आज से तकरीबन ४५ साल पहले की बात है,जब मैं महज ५ साल की थी। मैं और परिवार इंदौर शहर के जूनी इंदौर क्षेत्र में रहते थे। यहां से मेरा पहला विद्यालय ‘बाल निकेतन संघ’ लगभग आधा किलोमीटर दूरी पर होगा। पापा ने साइकिल के आगे डंडे पर एक छोटी सीट मेरे लिए लगवाई थी। पापा मुझे साइकिल से नर्सरी,किंडर गार्डन कक्षा के लिए विद्यालय छोड़ने जाते थे। रास्ते में वे मुझसे गिनती और हिंदी,अंग्रेजी की कविताएं सुनते जाते थे। इस तरह मेरी मौखिक पढ़ाई साइकिल पर ही हो जाती थी।
मेरे पिताजी एक शासकीय विद्यालय में हिंदी और संस्कृत भाषा के अध्यापक थे। ब्राह्मण होने के कारण पापा को शास्त्रों का भी अच्छा ज्ञान था। धीरे-धीरे अब मैं बड़ी हो गई थी। कक्षा छठी में पहुंच गई थी। अब मेरी पढ़ाई मे एक विषय संस्कृत भी जुड़ गया था। कक्षा ६ और ७ में पापा ही मुझे साइकिल पर बैठा कर शाला छोड़ने जाते थे। साइकिल वही थी,पर अब मैं पापा के पीछे बैठने लगी थी। अब मेरा विद्यालय बदल गया था,जो घर से दूर था। अब मेरी मौखिक पढ़ाई के बिंदु होते थे -बीस तक पहाड़े,संस्कृत के श्लोक,धातु,हिंदी में पर्यायवाची,विलोम शब्द आदि। जब कभी मैं कुछ गलत पाठ करती तो पापा मुझे दंड के रुप में चिमटी कर देते थे। तब मुझे पापा बहुत सख्त लगते थे,लेकिन आज लगता है कि पापा ने जो किया,ठीक किया,क्योंकि शिक्षा हासिल करने की प्रक्रिया में कभी-कभी दंड देना भी जरूरी होता है।
पापा की साइकिल पर मैंने जो पढ़ाई की,वह सब आज तक मुझे याद है। आज जब कहीं मैं हिन्दी में बात करती हूं, तो लोग मेरी हिन्दी की तारीफ करने से नहीं चूकते। तब मैं भी गर्व से कहती हूँ-पापा के कारण हमारी हिंदी अच्छी है।
यह तो बात हुई पापा की साइकिल पर मेरे बौद्धिक विकास की, परंतु पापा ने मेरे शारीरिक विकास में भी कोई कसर नहीं रखी। जब मैं १२ वर्ष की हो गई तब पापा ने मुझे चलती साइकिल पर बैठने का अभ्यास कराया। विद्यालय से घर के बीच में कई जगह चढ़ाई आती तो उस समय पापा को मुझे बिठाकर चलाना कठिन हो जाता था। इसलिए जब चढ़ाई आती तो मैं साइकिल से उतर जाती और चढ़ाई खत्म होते ही फिर बैठ जाती। यह चढ़ना-उतरना दोनों ही चलती साइकिल पर करती। इस सब में मेरी कसरत हो जाती थी। इसी दौरान पापा ने मुझे साइकिल चलाना भी सिखा दिया। उस समय ५० पैसे घंटे के हिसाब से छोटी साइकिल किराए पर मिलती थी। मैं वही साइकल चलाकर अभ्यास करने लगी। बाद में मैंने अपनी दीदी की साइकिल खूब चलाई। जैसे ही महाविद्यालय में प्रवेश किया,मुझे नई साइकिल मिली। मैंने अपना बचपन से लेकर किशोरावस्था तक का सफर साइकिल पर तय किया।
आज पुनः बचपन जी रही हूँ। अब मैं मेरे बेटे को साइकिल चलाते समय पढ़ा रही हूँ। मैं और बेटा फौजी इलाके में साथ-साथ साइकिल चलाते हैं और पढ़ाई करते हैं,पर अब साइकल एक नहीं-दो है। वही पहाड़े,संस्कृत के श्लोक वही सब तो है। साथ ही बेटा गणपति अथर्वशीष भी बोलता जाता है। जैसी परवरिश मुझे मिली,वैसे ही मैं बेटे को देने की कोशिश कर रही हूँ। बेटे के बचपन में मेरा बचपन जी रही हूँ और अपनी साइकिल में पापा की साइकिल को देखती हूँ।
यह प्रेरणा मुझे मेरे बचपन में पापा की साइकिल से मिली,मैंने पापा से समय का सदुपयोग और खेल-खेल में बच्चों को कैसे पढ़ाना सीखा। मेरे जीवन में पापा और उनकी साइकिल हर कदम पर प्रेरणादायक है। पापा! मैं आपकी बेटी बनकर धन्य हो गई।

Leave a Reply