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‘हिंदी’ है देश-प्रेम की भाषा

शंकर शरण 
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यह बात बार-बार साबित हो रही है कि जिन भारतीयों को पूरे देश से जुड़ाव-लगाव है वे तो हिंदी का महत्व समझते हैं,लेकिन जो राष्ट्रीय एकता के प्रति लापरवाह हैं,प्राय: वही हिंदी पर हीला-हवाला करते हैं। हमारे जो बुद्धिजीवी माओवादियों,अलगाववादियों, जिहादियों आदि से सहानुभूति रखते हैं,वे हिंदी का विरोध भी करते हैं। इसके विपरीत जो देश की धर्म-संस्कृति,एकता,अखंडता के प्रति समर्पित हैं,वे अपनी एक राष्ट्रीय भाषा का महत्व समझते हैं। इसे आरंभ से ही देख सकते हैं। ब्रिटिश राज के विरुद्ध आंदोलन में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने के प्रयास हुए थे। ये प्रयास कलकत्ता और बंबई से हुए थे,न कि इलाहाबाद या पटना से। इसके लिए मराठी तिलक महाराज,बंगाली बंकिम चंद्र और रवींद्रनाथ,तमिल सुब्रहमण्यम भारती और गुजराती गांधी जैसे महापुरुषों ने प्रयास किए। नोट करें,अभी हिंदी की पैरोकारी करने वाले अमित शाह भी गुजराती हैं।
इतिहास दिखाता है कि हिंदी देश-प्रेम की भाषा रही है। वह किसी सीमित क्षेत्र की भाषा नहीं,इसीलिए इसके प्रति किसी क्षेत्र का आग्रह न था। न ही कोई क्षेत्र हिंदी को ‘पराई’ समझता था। वही स्थिति आज भी है। संविधान सभा में कृष्णस्वामी अय्यर,गोपाल स्वामी आयंगर,टी.टी. कृष्णमाचारी जैसे दक्षिण भारतीय दिग्गजों ने हिंदी को
‘राष्ट्रभाषा’ स्वीकार किया था। तब यह सहज बात समझी गई थी जिसमें देशप्रेम की भावना थी। भारत में हिंदी किसी क्षेत्र विशेष की सीमित भाषा कभी नहीं थी। बांग्ला,तमिल,कन्नड़,मलयाली,मराठी की तरह ही ब्रज,छत्तीसगढ़ी,कुमाऊंनी,गढ़वाली, अवधी,भोजपुरी,मगधी,अंगिका और
मैथिली आदि के सीमित प्रदेश हैं,किंतु हिंदी पूरे देश का स्वर है। यह शुरू से अभी तक देखा जा सकता है।
#गलत परिभाषा की वजह से भ्रांतियां फैलीं-
महान कवि-चिंतक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन (अज्ञेय) के शब्दों में,-“हिंदी एक समग्र संस्कृति की संवाहिका’ रही है। इसीलिए वह राष्ट्रीय भावनाओं व नए विचारों को ग्रहण कर,फिर संश्लेषण कर उसे पुन: देश के प्रत्येक कोने में पहुंचा कर ‘क्लियरिंग हाउस’ का काम भी करती रही है।” अज्ञेय मूलत: पंजाबी थे,मगर गहरे अवलोकन से उन्होंने भाषाओं की वास्तविक स्थिति को समझा था। ठीक यही बात महान क्रांतिकारी भगत सिंह ने भी कही थी। दरअसल,हिंदी को लेकर देश में जो भ्रांतियां फैलीं उनका एक कारण यही है कि उसे गलत परिभाषित किया जाता है। हिंदी भी एक बोली,‘खड़ी बोली’ है। जैसे अवधी,भोजपुरी आदि अन्य बोलियां हैं।
#देवनागरी लिपि में लिखने पर अन्य भाषाएं भी हिंदी जैसी-
देश के एक क्षेत्र को ’हिंदी क्षेत्र’ मानने का भ्रम इसलिए चलता है,क्योंकि उस क्षेत्र की बोलियां देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं,किंतु यदि बांग्ला या गुजराती को देवनागरी में लिखें तो वे भी मैथिली या भोजपुरी जैसी ही हिंदी लगेंगी। आखिर हमारा राष्ट्र-गीत और राष्ट्र-गान दोनों ही बांग्ला गीत और गान हैं,परंतु देवनागरी में लिखने पर वह किसी को बांग्ला नहीं लगते। वही स्थिति गुजराती, तेलुगु,पंजाबी,कन्नड़,उर्दू आदि के साथ भी है।
#’हिंदी’ क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं-
हिंदी किसी क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं है। वह भारत के सभी भाषा-भाषियों के सम्मिलित योगदान से बनी है।उसकी कोई विशिष्ट या अलग शब्दावली नहीं है। इसीलिए वह पूरे भारत में बोली-समझी जाती है। वह या तो पूरे भारत की भाषा है या कहीं की नहीं है। यही हिंदी की पहचान और स्थिति है। इसीलिए भगत सिंह और अज्ञेय,दोनों ने कहा था कि देश में एक लिपि ‘देवनागरी’ प्रचलित करने का प्रयास करें तो राष्ट्रीय भाषा की समस्या स्वत: सुलझ जाएगी। देवनागरी में लिखी कोई भी भारतीय भाषा हर देशवासी के लिए सरल,सह होगी। उस पर अधिकार करना मामूली बात होगी जो अंग्रेजी के लिए पूरा जीवन लगाकर भी अधिकांश के लिए संभव नहीं।
#लोग हिंदी भी समझेंगे-
जहां तक अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ’हिंदी समझेगा कौन ?’ का प्रश्न है तो उन्हीं मंचों पर जापानी,हिब्रू,जर्मन,अरबी और रूसी आदि भी बोली जाती है। जैसे उसे सभी समझते हैं,वैसे ही हिंदी भी समझेंगे। यानी समांतर अनुवाद के प्रसारण से। यह दशकों पुरानी और मामूली तकनीक है। कोई भाषा पूरी दुनिया में सभी नहीं समझते,लेकिन यदि बात महत्वपूर्ण हो तो दुनिया के कोने-कोने में उसे समझ लिया जाता है। जैसे-टैगोर की गीतांजलि। अत:,जरूरी यह है कि हम पहले भारत के हृदय की बात बोलें। ऐसी बात अपनी भाषा में ही बोली जा सकेगी। जब हम ऐसा बोलने लगेंगे तो दुनिया हमें उसी तरह सुनेगी,जैसे वह संस्कृत में उपलब्ध संपूर्ण ज्ञान भंडार को सदियों से सुनती-गुनती रही है।
#दुनिया में मौलिकता का महत्व,माध्यम का नहीं-
दुनिया में आज भी भारत की पहचान यहां की भाषा में लिखित उपनिषद, ब्रह्मसूत्र,योगसूत्र,रामायण,महाभारत, नाट्यशास्त्र आदि से है। नीरद चौधरी, राजा राव,खुशवंत सिंह जैसे लेखकों से नहीं। समाज की रचनात्मकता और मौलिकता अनिवार्यत: उसकी अपनी भाषा से जुड़ी होती है। दुनिया में मौलिकता का महत्व है,माध्यम का नहीं। इसलिए यदि स्वतंत्र भारत में मौलिक चिंतन,लेखन का ह्रास होता गया तो अंग्रेजी के बोझ के कारण। मौलिक लेखन,चिंतन विदेशी भाषा में प्राय: असंभव है। कम से कम तब तक, जब तक ऑस्ट्रेलिया,अमेरिका की मूल सभ्यता की तरह भारत सांस्कृतिक रूप से पूर्णत: नष्ट नहीं हो जाता और अंग्रेजी यहां सबकी एकमात्र भाषा नहीं बन जाती। तब तक भारतीय बुद्धिजीवी अंग्रेजी में कुछ भी क्यों न बोलते रहें, वह वैसी ही यूरोपीय जूठन की जुगाली होगी,जिसकी बाहर पूंछ नहीं हो सकती।
#दुनियाभर में नोट किया जाता है
मौलिक लेखन-
आखिर गत सत्तर वर्षों से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमारे बुद्धिजीवी अंग्रेजी में ही तो बोलते रहे! क्या उन बातों ने कहीं, किसी विषय में,कोई छाप छोड़ी है? कहीं उसका कोई संदर्भ लिया जाता है ? हमारी तुलना में छोटे-छोटे देशों यथा जापान,पोलैंड,दक्षिण कोरिया आदि में अधिक मौलिक लेखन,चिंतन या रचनात्मकता को दुनियाभर में नोट किया गया। इस बीच भारत का वैचारिक या रचनात्मक अवदान क्या रहा ? इस बिंदु पर सलमान रश्दी या विक्रम सेठ जैसों को नहीं गिनना चाहिए,क्योंकि मूलत: वे भारत त्याग कर यूरोप में बस चुके हैं या उन जैसे हो चुके हैं। उन लेखकों में भारत के अवशेष भले हों,उनकी रचनाओं में भारत नहीं बोलता।
#अपनी भाषा पर खड़ा होना अपरिहार्य-
वस्तुत:,अमित शाह ने एक गंभीर और मूल्यवान बात की ओर उल्लेख किया है। जब तक हम अपनी भाषा में शिक्षण,लेखन,विमर्श पर नहीं लौटेंगे, कभी तुलनात्मक रूप से उनके समकक्ष नहीं हो सकते,जो अपनी भाषाओं में यह सब करते हैं। शुरुआत के लिए प्रो. कपिल कपूर की अध्यक्षता वाली सरकारी समिति ने सटीक सुझाव दिया है कि,प्रत्येक राज्य को अपनी भाषा में शिक्षा और सभी सार्वजनिक काम को नियम बना लेना चाहिए जैसा अंग्रेजों के आने से पहले होता रहा था। इस सुधार के बाद शेष समस्याएं स्वत: अपने समाधान की ओर बढ़ने लगेंगी। याद रहे,भारत की सांस्कृतिक शक्ति ही मूल शक्ति है। इसके लिए अपनी भाषा पर खड़ा होना अपरिहार्य है।
(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुम्बई)

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