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`हिन्दी` का अपमान सारे हिन्दीभाषियों का अपमान

संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश) 
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हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए आज़ादी के बाद से भारत भर में आंदोलन चल रहें हैं,और कईं लोग तथा स्वयंसेवी संस्थाएँ हिन्दी को बढ़ावा मिले और हिन्दी केवल उत्तर भारत व कुछ ही प्रदेशों की भाषा नहीं रहे,इस हेतु दक्षिण और पूर्वी श्रेत्रों में भी अपने निजी संसाधनों से हिन्दी के प्रसार के लिए काम कर रहे हैं,जिसके परिणाम भी सामने आए हैं। आज़ादी के पहले से महात्मा गांधी की प्रेरणा से दक्षिण के प्रदेशों में हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए समितियां और संस्थाएँ स्थापित की गई थी,जो आज भी हिन्दी के प्रसार के लिए समर्पित रूप से कार्य कर रही हैं। देश के प्रधानमंत्री स्वयं हिन्दी को बढ़ावा देने के पक्षधर हैं, उनके पिछले कार्यकाल में विश्व हिन्दी सम्मेलन का भारत में होना हिन्दी के वैश्विकरण का एक अच्छा प्रयास था। जब चारों तरफ हिन्दी का डंका बज रहा है,हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिल चुकी है,विदेशों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है, विदेशी लोग हिन्दी सीखने,हिन्दी साहित्य को समझने के लिए लालायित हैं,तो ऐसे समय में हिन्दी के एक कवि मंगलेश डबराल(जो अब अपने जीवन के अस्तांचल के करीब पहुंच रहे हैं,और उनकी कीर्ति का प्रकाश भी कम हो रहा है।) बुझती हुई आग पर घी की जगह घासलेट डालकर कहते हैं-“इस भाषा में लिखने की मुझे ग्लानि है। काश मैं इस भाषा में न जन्मा होता।” जिसके कारण उनकी पहचान है,जो उनके जीवन का आधार रही,वही भाषा बुढ़ापे में उनको खराब लगने लगी है। बहुत ही शर्मनाक बात सोशल मीडिया पर वे कह रहे हैं। उम्रभर जिस हिन्दी ने सब-कुछ दिया,उसके प्रति यदि कोई इस तरह से कहता है तो यह उसका गैरज़िम्मेदाराना वक्तव्य है,वह कितना भी बड़ा क्यों न हो,निंदनीय है। देश,काल और परिस्थिति के अनुसार नये शब्दों का जन्म होता रहता है,पुराने शब्द प्रचलन से बाहर हो जाते हैं। परिस्थितियों के अनुसार विचारधारा में भी परिवर्तन होते रहे हैं। उनको लगता है कि हिन्दी में कमियां हैं या हिन्दी का पतन हो रहा है,तो उनकी भी जवाबदारी बनती थी कि वे उन कमियों को दूर करने का प्रयास करते,हिन्दी के पतित होते शब्दों को दुरुस्त करते,न कि भाषा का अपमान करते,क्योंकि हिन्दी भाषा का अपमान सारे हिन्दीभाषियों का अपमान है। उन्होंने सारी उम्र हिन्दी का ही नमक खाया है। जिस हिन्दी से जीवन में ढेर सारे अकादमिक सम्मान और पुरस्कार प्राप्त किए हों,यदि उसी हिन्दी में कमियां लगती हैं तो मंगलेश जी को हिन्दी से जो सम्मान मिले,वह त्याग देना चाहिए,जीवन भर जो भी हिन्दी में लिखा,वो नष्ट कर देना चाहिएl हिन्दी में बोलना और व्यवहार करना भी बंद कर देना चाहिए,ताकि जीवन के उतार पर वे आत्मग्लानि से बच सकें। हिन्दी पर आज मंगलेश जी ने कहा,कल और कोई कहेगा,परसों और कोई कहेगा। इस तरह खुल्लम-खुल्ला हिन्दी का अपमान होता रहेगा,और हिन्दीभाषी केवल हाथ बंधे और मुँह लटकाएँ खड़े रहेंगे,एवं मिमियाती आवाज में कहेंगे-हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्ता हमारा,और दूसरी भाषा हम पर राज कर रही होगी। मंगलेश जी के कुछ मित्रों को हो सकता है, यह वक्तव्य अच्छा न लगे,तो वे अपनी मित्रता निभाएँ। जो गलत है,उसे गलत कहा जाना चाहिए। यदि श्री डबराल के सच्चे मित्र हैं,तो उनसे वे उनके वक्तव्य पर बात जरुर करें। दुष्यंत कुमार की भाषा में यही कहूंगा- सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं। मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

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