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हिन्दी का सजग प्रहरी पत्रकार-आचार्य शिवपूजन सहाय

डॉ. अमरनाथ
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हिन्दी योद्धा…….

आचार्य शिवपूजन सहाय के निधन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था,-“अगर उनकी सोने की मूर्ति लगाकर,चारों ओर पत्तर पर हीरे जड़ दिए जाएं,तो भी उनकी हिन्दी-सेवा का प्रतिदान नहीं चुकाया जा सकता।” कर्मेन्दु शिशिर ने अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के युग-निर्माता:शिवपूजन सहाय’ में लिखा है,- “जीवन का एक-एक क्षण उन्होंने हिन्दी के लिए जिया और उसे सँवारने-समृद्ध करने में खुद को खपा दिया। बतौर मंत्री जब वे राष्ट्रभाषा परिषद के संचालक बने,तो वेतन के मामले में कोषालय ने अड़ंगा लगाया कि बिना अंग्रेजी में हस्ताक्षर के वेतन नहीं मिलेगा। शिवपूजन सहाय जैसे विनयी और सज्जन व्यक्ति ने कठिन आर्थिक तंगी झेली,मगर जब तक कोषालय का नियम नहीं बदला,वेतन नहीं लिया।”
आचार्य शिवपूजन सहाय (९ अगस्त १८९३) का जन्म बक्सर (बिहार) जिले के एक छोटे से गाँव ‘उनवाँस’ में हुआ था। शिवपूजन जी के जन्म के पूर्व ३ संतानों के अकाल काल कवलित हो जाने के कारण उनके पिता एक परमहंस की शरण में गए और बकौल शिवपूजन सहाय उनका जन्म उसी परमहंस की दी गई विभूति से हुआ। उनके जन्म को भगवान शंकर का प्रसाद मानकर उनके पिता ने उनका नाम शिवपूजन रख दिया।१९१३ में उन्होंने मैट्रिक उत्तीर्ण की। कुछ दिन बाद वे आरा की नागरी प्रचारिणी सभा में सहकारी मंत्री बने। वहाँ हिन्दी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाएं आती थीं और वे देश की साहित्यिक गतिविधियों से परिचित होते गए। स्वाभाविक रूप से भी उनकी रुचि साहित्य के प्रति थी। इसी बीच बनारस की एक अदालत में उन्हें नकल-नवीस की नौकरी मिल गई। छुट्टी पाकर वे सभा भी जाते रहते थे। सभा में ही उनका परिचय बाबू श्यामसुंदर दास और जयशंकर प्रसाद जैसे साहित्यकारों से हुआ। बाद में हिन्दी शिक्षक की उनकी नौकरी आरा के उसी विद्यालय में हो गई,जहाँ से उन्होंने प्रवेश उत्तीर्ण किया था। १९२१ में गाँधी जी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने ‘जागरण’, ‘हिमालय’, ‘माधुरी’, ‘बालक’ आदि कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का संपादन किया। वे हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘मतवाला’ के संपादक-मंडल से भी जुड़े थे। स्वतंत्रता के बाद वे ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’ के संचालक तथा ‘बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ की ओर से प्रकाशित ‘साहित्य’ नामक शोध-समीक्षा प्रधान त्रैमासिक पत्रिका के भी संपादक रहे।
शिवपूजन सहाय ने अपने जीवन के प्रारम्भ में ही यानी १९१७ में अपनी डायरी में लिखा था,-“हिंदी की सेवा में समूची ज़िंदगी लगा देने का मंसूबा बाँध लो।” और उनके जीवन में उनका यह संकल्प पूरी तरह चरितार्थ हुआ।
कर्मेन्दु शिशिर ने लिखा है,-“उनकी जो बात सबसे पहले हमें प्रभावित करती है,वह है हिन्दी के प्रति उनका दुर्लभ दाह। उन्होंने हिन्दी को अपने पांवों पर खड़ा करने में अपनी रचनात्मक प्रतिभा और लेखन तक की परवाह नहीं की और खुद को भाषा के बहुविध विकास में पूरी तरह होम कर दिया। उनका अपना जीवन मार्मिक दुखों की डगर से गुजरा था और उनकी व्यथा अनेक स्तरों पर बेहद गहरी थी।”
शिवपूजन सहाय जीवन में परंपरावादी, पूजा-पाठ करने वाले,रीति-रिवाज में विश्वास करने वाले,पूरी तरह आस्तिक व्यक्ति थे। वे अत्यंत विनम्र स्वभाव के थे। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उन्हें ‘अजातशत्रु’ कहा है। “उनके लिए मामूली सुख भी ‘ईश्वर की कृपा’ और बड़े से बड़ा दु:ख ‘ईश्वर की इच्छा’ थी…। हिन्दी प्रेम भी उनके लिए एक तरह से ईश्वर प्रेम की तरह था और उसकी किसी भी रूप में की गई सेवा पूजा भाव ही थी। हिन्दी-सेवा ही उनके व्यक्तित्व का सत्व है और सीमा भी। एक मायने में उनका यह श्रद्धा भाव उनके सृजनात्मक लेखन के लिए आत्मघाती ही सिद्ध हुआ। मामूली से मामूली लेखकों की पांडुलिपियों के लगातार शोधन से सर्वथा शुद्ध प्रकाशन के आदर्श में प्रूफ-वाचन तक करने के हठ में,अपने रचनात्मक छीजन के वे खुद ही जिम्मेदार रहे।”
उन दिनों राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने को लेकर हिन्दी और हिन्दुस्तानी के बीच का विवाद जोरों पर था। गाँधी जी हिन्दुस्तानी के पक्ष में थे। यह देखकर आश्चर्य होता है कि अपने आचार और विचार में गाँधी के प्रबल समर्थक होने के बावजूद राष्ट्रभाषा के मामले में शिवपूजन सहाय गाँधी जी के प्रस्ताव का विरोध कर रहे थे। ५ फरवरी १९४१ को बिहार प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन का सभापतित्व करते हुए उन्होंने कहा था,-“हिन्दी के जीते जी भाषा के क्षेत्र में हिन्दुस्तानी को पैर रखने का कोई अधिकार नहीं। मनगढ़ंत शब्दों का कोश बनाकर जो उसे हिन्दी का राष्ट्रभाषा-पद छीनने के लिए ललकारते हैं,उन्हें हिन्दी भी चुनौती देती है कि प्रतिस्पर्धा के अखाड़े में उतर आएं। हिन्दी वालों के सामूहिक जागरण का कलरव अब दिग्दिगंत को गुंजाकर ही रहेगा। आजकल हिन्दी की शैली जो बिगाड़ी जा रही है,प्रारंभिक शिक्षा-प्रणाली पर धावा बोलकर हमारी संस्कृति के मर्म पर जो आघात किया जा रहा है,मनुष्य-गणना में दिन-दहाड़े जो हिन्दी की हत्या हो रही है, सबके सब हिन्दुस्तानी के ही चोंचले हैं। इनका मुँहतोड़ जवाब हमें देना है।”
(रचनावली-२,पृष्ठ-३३३)
इस तरह वे इतने उदार तो हैं कि उन्हें हिन्दी में अरबी,फारसी,तुर्की आदि भाषाओं के शब्दों के आगमन से कोई परहेज नहीं है और मुसलमानों के लिए भी हिन्दी के इस्तेमाल को स्वीकार करते हैं, किन्तु पक्षधरता उनकी हिन्दी को हिन्दुत्व के साथ ही जोड़ने की है। वे लिखते हैं,-“यह काम तब तक होने का नहीं,जब तक हिन्दी के करोड़ों पृष्ठ-पोषकों के कानों में हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तानी,सब मिलि बोलो एक जबान के समान प्राचीन ‘प्रतापी’ पद की ध्वनि नहीं गूँजती रहेगी।”
आश्चर्य और भी बढ़ जाता है जब हम देखते हैं कि उनका गहरा लगाव प्रेमचंद से भी था। वही प्रेमचंद, जो भाषा के मामले में पूरी तरह गाँधी के विचारों के साथ खड़े थे। ऐसा लगता है कि परंपराप्रियता और अत्यंत धार्मिक प्रवृति के कारण उनमें यदा-कदा पुनरुत्थानवादी प्रवृति हिलोरे मारने लगती है, यद्यपि धार्मिक संकीर्णता और पाखंडों का वे लगातार विरोध भी करते रहे हैं।
शिवपूजन सहाय ने राजेन्द्र महाविद्यालय छपरा में अध्यापन भी किया,जबकि उनके पास पढ़ाने के लिए निर्धारित विश्वविद्यालय की उपाधि नहीं थी। इसके लिए श्यामसुंदर दास और रामचंद्र शुक्ल जैसे मनीषियों ने अनुशंसा की थी।
वर्ष १९५० में शिवपूजन सहाय नवस्थापित ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’ से जुड़े और अगले एक दशक में अपने अथक परिश्रम से उन्होंने परिषद को हिंदी की सबसे महत्त्वपूर्ण संस्थाओं में से एक बना दिया। यह आचार्य शिवपूजन सहाय के प्रयत्नों का ही नतीजा था कि परिषद ने अपनी स्थापना के १० वर्ष के भीतर ही रामावतार शर्मा,राहुल सांकृत्यायन, वासुदेवशरण अग्रवाल,डॉ. मोतीचंद्र,गोपीनाथ कविराज,आचार्य परशुराम चतुर्वेदी,अनंत सदाशिव अलतेकर जैसे विद्वानों की पुस्तकें प्रकाशित की।
मध्य एशिया के इतिहास पर राहुल सांकृत्यायन द्वारा २ खंडों में लिखी गई वृहदाकार पुस्तक तथा उन्हीं द्वारा संपादित व अनुदित ‘दोहा-कोश’ और ‘दक्खिनी हिंदी काव्यधारा’ जैसे ग्रंथ परिषद से ही प्रकाशित हुए। आचार्य शिवपूजन सहाय ने परिषद के तत्वावधान में व्याख्यानमालाएँ भी आयोजित की।
परिषद ने बिहार में प्राचीन हस्तलिखित पोथियों की खोज का महत्वपूर्ण कार्य भी शुरू किया। परिषद द्वारा किए गए इस खोज-कार्य का विवरण ६ खंडों में प्रकाशित किया गया। परिषद ने जहाँ एक ओर ‘कथासरित्सागर’ का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया, वहीं रंगनाथ रामायण (तेलुगु) और कम्ब रामायण (तमिल) के हिंदी अनुवाद भी छापे हैं।
‘हिंदी सहित्य और बिहार’ ग्रंथमाला भी शिवपूजन जी की ही संकल्पना का फल थी। इसके आकार ग्रहण करने के दौरान उनके अनवरत संघर्ष का उल्लेख करते हुए कर्मेन्दु शिशिर ने लिखा है,-“घर में दोनों लड़के बेरोजगार थे,मगर एक ही चिन्ता थी-परिषद के निषेध और अपमान के बावजूद ‘हिन्दी साहित्य और बिहार’ पूरा हो जाए। एक दशक से भी कम समय मिला था। परिषद का पुस्तकालय बनाया। दूर-दराज गाँवों में जाते। घुटनेभर पानी पार कर माथे पर पुस्तकों का बंडल लिए स्वयं सामग्री जुटाकर पुस्तकालय को दुर्लभ बनाया। बिहारी भाषाओं,आदिवासी भाषाओं के लोकगीत, संस्कारगीत और लोक कथाओं को जमा कराया। कृषि संबंधी शब्दों का चयन,लोकोक्तियाँ,मुहावरे, पहेलियाँ जमा कराई। तमाम मठों से संत साहित्य जमा किया। ‘बौद्ध क्षेत्र बिहार पर विपुल सामग्री’ व ‘हिन्दी साहित्य और बिहार’ पर काम करते हुए ही वे दिवंगत भी हुए। कर्मेन्दु शिशिर के शब्दों में,- “एक दिन बरसात में भीगते लौटे। पैदल थे। बीमार पड़े। बेहोश हुए। टीबी के पुराने मरीज। बेहोशी के बाद पटना अस्पताल में अंतत: दिवंगत हुए। निधन के बाद दूसरा खंड छपा। सहायक का नाम भी चढ़ा। भूमिका से उनका नाम हटा। तीसरे खंड से पूरी तरह उनका ही नाम हटा दिया गया। परिषद उनकी जुटाई सामग्री को प्रभावशालियों द्वारा संपादित कराती-छपाती रही। फिर भी,आज तक पूरी सामग्री नहीं छपी है। शिवपूजन जी ने हिन्दी में अकूत भंडार खड़ा कर दिया।”
शिवपूजन सहाय साहित्यकारों में बेहद लोकप्रिय थे। उनकी लोकप्रियता का एक प्रमाण यह भी है कि उनके निधन के बाद प्रकाशित ‘साहित्य’ के विशेषांक में लेखकों के साथ हुए पत्राचार के जो विवरण छपे हैं, उसमें ७७७२ पत्रों की संख्या दर्ज है और नीचे संपादकीय टिप्पणी में कहा गया है कि, “आचार्य शिवजी के संग्रह में विभिन्न साहित्यकारों से प्राप्त इस प्रकार के और भी अनेक पत्र हैं। प्रस्तुत सूची दिग्दर्शन मात्र है।”
गैर-हिन्दीभाषी व्यक्तियों के हिन्दी-प्रेम की सराहना शिवपूजन जी बड़े उत्साह के साथ करते थे। ‘एक मुसलमान सज्जन का हिन्दी प्रेम’,‘आंध्र प्रदेश हिन्दी-विद्यार्थी सम्मेलन’, ‘हिन्दी में प्रूफ रीडिंग की कला’ और ‘हिन्दी के शब्दों की एकरूपता’ (१९५१) जैसे अनेक लेख हिन्दी के प्रति उनकी निष्ठा के परिचायक हैं। वे देशभर की हिन्दी-संस्थाओं की गतिविधियों की जानकारी रखते थे और उनके बारे में समय-समय पर टिप्पणियाँ प्रकाशित करते रहते थे।
आचार्य शिवपूजन सहाय मुख्य रूप से पत्रकार हैं। उन्होंने ‘मारवाड़ी सुधार’, ‘मतवाला’, ‘माधुरी’, ‘उपन्यास-तरंग’, ‘बालक’, ‘गंगा’ तथा ‘साहित्य’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया है। ‘देहाती दुनिया’ उनका चर्चित आंचलिक उपन्यास है,तो ‘मेरा जीवन’ आत्मकथा है तथा ‘राष्ट्रभाषा और हिन्दी’ उनकी भाषा संबंधी लेखों का संग्रह है जो उनके निधन के बाद प्रकाशित हुआ।
उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य और बिहार’( खंड-१-२), ‘उर्दू शायरी और बिहार’, ‘मंगल कलश’, ‘गद्य कलश’, ‘संतरूपकला दास’, ‘सारिका’ तथा ‘साहित्य सरिता’ जैसी कृतियों का संपादन किया है।
हम हिन्दी भाषा और पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य शिवपूजन सहाय के महान योगदान का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुम्बई)

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