डॉ. कुमारी कुन्दन
पटना(बिहार)
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वृंदावन तेरा सूना-सूना,
सूनी है इसकी गलियाँ
कन्हा फिर आ जाओ दरश,
को तरस रही मेरी अंखियाँ।
बड़े सुने हैं किस्से तेरे,
लीला भी अति प्यारी
कान में कुंडल मोर मुकुट,
सिर शोभे हे गिरिधारी।
मैं भी देखूँ मन मोहना,
तेरी सुन्दर छवि न्यारी
देख जिसे सुख पाते थे,
जगत के सब नर-नारी।
वही है धरती, वही है गंगा,
देख आदमी बना लफंगा
हो गए हैं अक्ल के दुश्मन,
यहां चाहिए अब परिवर्तन।
कितनी अबला आज भी,
ऐसी, कर दी जाती है नंगी।
योगी-ढोंगी इतने फैले,
जिनकी नीयत ना है चंगी।
पानी सर से गुजर रहा,
अब आजा हे यदुवन्शी
जन-जन को इन्तजार है,
कब बजेगी तेरी बंसी।
गीता का उपदेश सब भूले,
फिर से वह पाठ पढाओ
सुख-शांति खुशहाली आए,
ज्ञान के दीप जलाओ।
मंत्रमुग्ध हो जाएँ सब सुन,
फिर मुरली मधुर सुनाओ।
हे गिरिधर हे मुरलीधर,
हे कान्हा फिर आ जाओ॥