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बन्दर और मगर

सुरेश चन्द्र ‘सर्वहारा’
कोटा(राजस्थान)
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एक घने जंगल के भीतर
नदी एक थी गहरी,
दृश्य देखने वह उस वन का
जैसे आकर ठहरी।

उसी नदी से कुछ दूरी पर
था जामुन का तरुवर,
बन्दर एक रहा करता था
उसी पेड़ के ऊपर।

एक मगर भी उसी नदी में
बहुत समय से रहता,
संग नदी की धारा के वह
दिख जाता था बहता।

मगर एक दिन नदी किनारे
बैठा था सुस्ताता,
हल्की-हल्की मस्त हवा का
था आनन्द उठाता।

बन्दर ने देखा नीचे को
एक मगर है आया,
मेहमान-सा उसे मानकर
वह बन्दर हर्षाया।

और मित्रता की बन्दर ने
पास मगर के आकर,
मीठे-मीठे फल जामुन के
दिए पेड़ से लाकर।

ताजा और पके फल खाकर
मगर खुशी से झूमा,
हाथ प्यार से बार-बार फिर
बन्दर का था चूमा।

प्रतिदिन ही अब मगर वहाँ आ
मीठे जामुन खाता,
रंग मित्रता का दोनों पर
गहरा चढ़ता जाता।

कुछ जामुन के फल अब घर भी
लगा मगर ले जाने,
उसकी पत्नी को तो जामुन
बहुत लगे थे भाने।

पहली बार चखे पत्नी ने
फल ये बड़े अनूठे,
इनके आगे लगे उसे सब
स्वाद जगत के झूठे।

एक दिवस पत्नी बोली थी
जामुन खाते-खाते,
ऐसे मीठे जामुन प्रियतम
कहो कहाँ से लाते।

कहा मगर ने-अरी! मित्र है
कुछ दूरी पर बन्दर,
वही पेड़ से दे देता है
मुझको जामुन लाकर।

कहा मगर की पत्नी ने तब
मन में आहें भरकर,
इतने मीठे फल लाता जो
होगा कितना सुन्दर।

जिसके हाथों दिया गया फल
जब है मीठा इतना,
उस बन्दर का अरे कलेजा
होगा मीठा कितना।

मेरी इच्छा है बन्दर का
कभी कलेजा खाऊँ,
जिससे मैं भी बन्दर जैसा
कुछ मीठापन पाऊँ।

कहा मगर ने-बात नहीं तुम
ऐसी बोलो रानी,
मुझे तुम्हारी मलिन सोच पर
होती है हैरानी।

बन्दर मेरा परम मित्र है
है भाई के जैसा,
कहो नहीं उसके बारे में
तुम कुछ ऐसा-वैसा।

नदी किनारे बैठे-बैठे
जो मेरा पथ तकता,
ऐसे साथी को मैं धोखा
कभी नहीं दे सकता।

बहुत क्रोध आया पत्नी को
बात मगर की सुनकर,
कहा-अगर ना मिला कलेजा
तो जाऊँगी मैं मर।

किसी तरह भी उस बन्दर का
तुम्हें कलेजा लाना,
जब तक नहीं कलेजा ला दो
नहीं खाऊँगी खाना।

दुःखी हो उठा मगर बहुत ही
मति उसकी चकराई,
एक तरफ था अगर कुआँ तो
एक ओर थी खाई।

पत्नी की जिद के आगे वह
विवश हुआ बेचारा,
सोचा,पत्नी रूठ गई तो
होगा कठिन गुजारा।

इस दुविधा के बीच मगर वह
गया जहाँ था बन्दर,
आहत आज हुआ वह रोता
मन ही मन के अन्दर।

देख मगर को बन्दर बोला
“क्यों उदास हो भाई,
भाभी से तो नहीं हो गई
जमकर कहीं लड़ाई।

कहा मगर ने-आया हूँ मैं
लेकर एक प्रयोजन,
भाभी ने है तुम्हें बुलाया
करने घर पर भोजन।

भाभी है नाराज तुम्हारी
कभी न तुम घर आए,
बस हमने ही रोज तुम्हारे
मीठे जामुन खाए।

कहती वह मेरे देवर को
आज साथ में लाना,
रोज-रोज जिसका खाते हो
सीखो उसे खिलाना।

भाभी मेरी कितनी अच्छी
खुश हो बोला बन्दर,
कैसे जाऊँ बना तुम्हारा
घर पानी के अन्दर।

कहा मगर ने करो न चिन्ता
घर मेरा है तट पर,
ले जाऊँगा तुमको तो मैं
लाद पीठ के ऊपर।

उचक मगर के पृष्ठभाग पर
बैठ गया वह बन्दर,
चला मगर ज्यों ही तेजी से
लहरें उठी भयंकर।

देख देख गहरे पानी को
बन्दर था घबराया,
लगा उसे तो आज मौत का
सिर मँडराया साया।

उधर मगर अब समझ गया था
बन्दर की लाचारी,
गहरे जल से बच न सकेगा
लगा शक्ति यह सारी।

मगर सोचता अब मैं इसको
बतला दूँ सच्चाई,
मेरे चंगुल से अब इसकी
होगी नहीं रिहाई।

कहा मगर ने “भाई बन्दर
मैंने तुझे फँसाया,
बना बहाना झूठा तुमको
यहाँ मारने लाया।

मेरी पत्नी की इच्छा है
तेरा मिले कलेजा,
अतः मुझे जिद कर उसने ही
तुमको लेने भेजा।”

धोखेबाज मगर की बन्दर
समझ गया चालाकी,
सोचा-मौत निकट आने में
रहा न कुछ भी बाकी।

कुछ उपाय तो करना होगा
इस संकट से बचने,
लगी बुद्धि फिर उस बन्दर की
कुछ तरकीबें रचने।

बन्दर बोला-“बात तुम्हें यह
पहले था बतलाना,
साथ कलेजा तब हम अपना
नहीं भूलते लाना।

भैया! मैंने उसी पेड़ पर
दिल अपना है टाँगा,
वहीं तुम्हें देता उतार यदि
तुमने होता माँगा।”

कहा मगर ने-“ऐसा है तो
चलो,चलें हम वापस,
पत्नी को जिन्दा रखने हित
मुझे चाहिए दिल बस।”

बन्दर बोला-“अरे मगर जी
मैं हूँ मित्र तुम्हारा,
काम तुम्हारे आ न सकूँ तो
जीना व्यर्थ हमारा।

चलो शीघ्र अब पास पेड़ के
वहीं कलेजा लेना,
ले जाना कुछ जामुन मीठे
भाभीजी को देना। ”

रहा मगर कमजोर बुद्धि का
चल कर वापस आया,
चाल चली थी जो बन्दर ने
समझ उसे ना पाया।

बन्दर को ले पहुँचा ज्यों ही
मगर पेड़ के नीचे,
कूद पीठ से चढ़ा पेड़ पर
बन्दर साँसें खींचे।

बड़ी देर तक वह बन्दर जब
नहीं पेड़ से आया,
नीचे खड़े मगर का भी तब
सिर थोड़ा चकराया।

कहा मगर ने-“कहाँ छुप गए
अब जल्दी भी आओ,
मुझको अपने घर जाना है
दिल उतार कर लाओ।”

ऊपर से ही बन्दर बोला –
“अरे मूर्ख अब जा भी,
जान चाहती थी लेना ही
मेरी तो वह भाभी।

दिल तो साथ देह के होता
यह भी तू ना जाने,
लगता तेरी अक्ल गई है
कहीं घास को खाने।

आज बड़ी मुश्किल से मैंने
अपनी जान बचाई,
दूर चला जा तू नजरों से
चाहे अगर भलाई।”

सुन बन्दर की बात मगर वह
आज बहुत था रोया,
कर न सका वह पत्नी को खुश
हाथ मित्र से धोया।

बच्चों! औरों की खुशियों हित
काम न अनुचित करना,
पछताना ही पड़े अन्त में
हमें मगर-सा वरना।

संकट से जब घिर जाएँ तो
करें धैर्य को धारण,
लगा बुद्धि हम भी बन्दर सम
दुःख का करें निवारण॥

परिचय-सुरेश चन्द्र का लेखन में नाम `सर्वहारा` हैl जन्म २२ फरवरी १९६१ में उदयपुर(राजस्थान)में हुआ हैl आपकी शिक्षा-एम.ए.(संस्कृत एवं हिन्दी)हैl प्रकाशित कृतियों में-नागफनी,मन फिर हुआ उदास,मिट्टी से कटे लोग सहित पत्ता भर छाँव और पतझर के प्रतिबिम्ब(सभी काव्य संकलन)आदि ११ हैं। ऐसे ही-बाल गीत सुधा,बाल गीत पीयूष तथा बाल गीत सुमन आदि ७ बाल कविता संग्रह भी हैंl आप रेलवे से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त अनुभाग अधिकारी होकर स्वतंत्र लेखन में हैं। आपका बसेरा कोटा(राजस्थान)में हैl

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