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तात्कालिक ‘तालाबंदी’ को स्थायी नशाबंदी में क्यों नहीं बदला जाए ?

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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‘तालाबंदी’ को ढीला करते ही सरकार ने २ उल्लेखनीय काम किए। एक तो प्रवासी मजदूरों की घर वापसी और दूसरा शराब की दुकानों को खोलना। नंगे-भूखे मजदूर यात्रियों से रेल का किराया वसूल करने की इतनी कड़ी आलोचना हुई कि उनकी यात्राएं तुरंत निःशुल्क हो गईं लेकिन जहां तक शराब का सवाल है,देश के शराबियों ने ४० दिन तो शराब पिए बिना काट दिए लेकिन हमारी महान सरकारें शराब बेचे बिना एक दिन भी नहीं काट सकीं। तालाबंदी में ढील के पहले दिन ही देश के लगभग ६०० जिलों में शराब की दुकानें खुल पड़ीं। क्यों ?,क्योंकि राज्य सरकारों ने केन्द्र पर दबाव डाला कि उन्हें शराब से जो कर मिलता है,यदि वह नहीं मिला तो उनकी बधिया बैठ जाएगी। सभी राज्यों को लगभग २ लाख करोड़ रु. कर शराब की बिक्री से मिलता है। पहले दिन ही १ हजार करोड़ रु. की शराब बिक गई।
कुछ राज्यों ने आर्डर मिलने पर शराब की बोतलें घरों में पहुंचवाने का इंतजाम भी किया,लेकिन सारे देश में लाखों लोग शराब की दुकानों पर टूट पड़े। २ गज की शारीरिक दूरी की धज्जियां उड़ गईं। एक-एक दुकान पर २-२ कि.मी. लंबी कतारें लग गईं। हर आदमी ने कई-कई बोतलें खरीदीं। जब पुलिस ने उन्हें एक-दूसरे से दूर खड़े होने के लिए धमकाया तो भगदड़ और मार-पीट के दृश्य भी देखे गए। ये सब विचित्र दृश्य हमारे टी.वी. चैनलों पर विदेशों में भी लाखों लोगों ने देखे। उन्हें भरोसा ही नहीं हुआ कि भारत में इतनी बड़ी संख्या में शराबी रहते हैं। कुछ विदेशी मित्रों ने यहां तक कह दिया कि यह भारत है या दारुकुट्टों का देश है ? उनके मन में भारत की छवि वह है,जो महर्षि दयानंद,विवेकानंद और गांधी के कारण बनी हुई है। भारत में लगभग २५-३० करोड़ शराबी हैं। याने पांच में से एक शराबी है लेकिन रुस,यूरोप,अमेरिका और ब्रिटेन में ८० से ९० प्रतिशत लोग शराबखोर हैं।
आज भी भारत में शराबियों को आम आदमी टेढ़ी नजर से ही देखता है। भारत में शराब पहले लुक-छिपकर पी जाती थी। उसकी कलालियां मोहल्लों के किसी कोने में होती थीं लेकिन अब भारत की बड़ी होटलों, बस्तियों और बाजारों की दुकानों में भी शराब धड़ल्ले से बिकती है। इसीलिए इन लंबी कतारों ने लोगों का ध्यान खींचा है। अब भारत में सिर्फ बिहार,गुजरात,नगालैंड, मिजोरम और लक्षद्वीप में शराब पर प्रतिबंध है,बाकी सब प्रांत शराब पर मोटा कर ठोंक कर पैसा कमा रहे हैं। दिल्ली समेत कुछ राज्यों ने इन दिनों शराब पर कर की भारी वृद्धि कर दी है।
भारत की लगभग सभी पार्टियों के नेतागण शराब की बिक्री का समर्थन करते हैं। सिर्फ नीतीश कुमार की जदयू उसका विरोध करती है। अपने-आपको गांधी,जयप्रकाश,लोहिया और विनोबा का अनुयायी कहनेवाले नेताओं की जुबान पर भी ताले पड़े हुए हैं। आश्चर्य तो यह है कि देश में और कई प्रदेशों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की सरकारें हैं लेकिन वे भी पैसों पर अपना ईमान बेचने पर तुली हुई हैं। इस मुद्दे पर उनकी चुप्पी भारतीय संविधान की धारा ४७ का सरासर उल्लंघन है। संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि सरकार नशीली चीजों पर प्रतिबंध लगाने की भरपूर कोशिश करे। कांग्रेस,जनता पार्टी और भाजपा के पिछले ७३ साल के राज में भारत में शराबखोरी ७०-८० गुना बढ़ी है।
जहां तक शराब से २ लाख करोड़ रु. कमाने की बात है,पेट्रोल और डीजल की कीमत बढ़ाकर यह घाटा पूरा किया जा रहा है और यदि पानी जितने सस्ते हुए विदेशी तेल को खरीदकर भारत अपने भंडारों में भर ले तो वह शराब की आमदनी को आराम से ठुकरा सकता है। यदि ‘कोरोना’ से लड़ने के लिए वह अपनी दवाइयां,आयुर्वेदिक काढ़े और हवन सामग्री दुनिया में बेच सके तो वह अरबों-खरबों रु. कमा सकता है। इस कोरोना-संकट से पैदा हुए मौके का फायदा उठाकर वह शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगा सकता था। मौत का डर शराबियों को इस प्रतिबंध के लिए भी राजी कर लेता। ४० दिन की यह मजबूरी का संयम स्थायी भी बन सकता था। तात्कालिक तालाबंदी को स्थायी नशाबंदी में बदला जा सकता था।
शराब पीने से आदमी की प्रतिरोध शक्ति घटती है या बढ़ती है ? कोरोना से मरनेवालों में शराबियों की संख्या सबसे बड़ी है। यूँ भी हर साल भारत में शराब पीने से २.५ लाख मौतें होती हैं। शराब के चलते लाखों अपराध होते हैं। देश में ४० प्रतिशत हत्याएं शराब पीकर होती हैं। ज्यादातर लोग शराब के नशे में ही बलात्कार करते हैं। कार-दुर्घटनाओं और शराब का चोली-दामन का साथ है। रुस और अमेरिका जैसे देशों में शराब कई गुना ज्यादा जुल्म करती है। यह मौका था जबकि भारत इन देशों के लिए एक आदर्श बनता लेकिन वह भी उपभोक्तावाद की चकाचौंध में बहता चला जा रहा है। न तो देश में ऐसे नेता हैं,न ही संगठन,जो आज नशाबंदी के लिए आंदोलन चलाएं,सत्याग्रह करें और धरने दें। कानून बनाने से भी बड़ी चीज़ है,संस्कार बनाना।
शराब पीने से मनुष्य विवेक-शून्य हो जाता है। वह अपनी पहचान खो देता है। जब तक वह नशे में होता है,उसमें और पशु में अंतर करना कठिन हो जाता है। उसकी उत्पादन-क्षमता घटती है और फिजूलखर्ची बढ़ती है। यह उसके परिवार और भारत जैसे विकासमान राष्ट्र के लिए गहरी चिंता का विषय है।

परिचय–डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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