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चैत्र शुक्ल प्रतिपदा जगत का ‘उत्पत्ति दिवस’

संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश) 
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वर्ष प्रतिपदा-२५ मार्च विशेष……………..

`चैत्रे मासि जगद्ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि।                                          

शुक्लपक्षे समग्रं तु तदा सूर्योदय सति॥` 

हेमाद्रि के ब्रह्मपुराण के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्य उदय के समय ही परम पिता ब्रह्मा जी ने इस जगत की उत्पत्ति की थी। इसी कारण से प्रतिवर्ष चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा अर्थात प्रथमा तिथि को `नववर्ष` का प्रारंभ होता है और नया संवत्सर लागू होता है। भारतीय कालगणना में पृथ्वी के सम्पूर्ण इतिहास को १४ भागों में बांटा गया है। प्रत्येक भाग को `मन्वंतर` नाम दिया गया है। १ मन्वंतर की आयु ३० करोड़ ६७ लाख २० हजार वर्ष की होती है। सृष्टि की उत्पत्ति को १ अरब ९६ करोड़ ८ लाख ५३ हजार १२० वर्ष हो गए। विश्व में प्रचलित सभी कालगणनाओं में भारतीय काल गणना प्राचीनतम है। यह गणना ज्योतिष विज्ञान द्वारा निर्मित है। आधुनिक वैज्ञानिक भी सृष्टि की उत्‍पत्‍ति का समय १ अरब वर्ष से अधिक बता रहे हैं। अपने देश में कई प्रकार की कालगणना की जाती है। भारतीय कालगणना का प्रत्येक संवत्सर वर्ष प्रतिपदा से ही प्रारम्भ होता है। सृष्टि संवत से लेकर कल्पाब्द,युगाब्द,वामन,श्री राम,श्री कृष्ण,युधिष्ठिर,शंकराचार्य,शालिवाहन,बंगला,हर्षाब्द,कलचुरी,फसली,वल्लभी,विक्रमी आदि सभी संवत्सर इसी दिन से प्रारम्भ होते हैं। वास्तव में ये वर्ष का सबसे श्रेष्ठ दिवस है। हिन्दू नववर्ष का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। हिन्दू शास्त्रानुसार इसी दिन से ग्रहों,वारों,मासों और संवत्सरों का प्रारम्भ गणितीय और खगोलशास्त्रीय संगणना के अनुसार माना जाता है।                                        प्रतिपदा हमारे लिये क्‍यों महत्वपूर्ण है,इसके सामाजिक एवं ऐतिहासिक सन्दर्भ हैं-इसी तिथि को रेवती नक्षत्र में विष कुंभ योग में दिन के समय भगवान के आदि अवतार मत्स्य रूप का प्रादुभाव भी माना जाता है। युगों में प्रथम सत्ययुग का प्रारम्भ भी इसी तिथि को हुआ था। साथ ही मर्यादा पुरूषोत्ततम श्रीराम का राज्याभिषेक,माँ दुर्गा की उपासना का नवरात्रि का प्रारम्भ,युगाब्द(युधिष्ठिर संवत्)का आरम्भ,उज्जयिनी सम्राट विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत् प्रारम्भ,शालिवाहन शक् संवत् आदि का प्रारम्भ भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही माना जाता है।                                                                                                          भारतवर्ष में इस समय देशी-विदेशी मूल के अनेक संवतों का प्रचलन है,किंतु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय संवत यदि कोई है तो वह ‘विक्रम संवत’ ही है। आज से लगभग २०७७ वर्ष यानी ५७ ईसा पूर्व में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से विक्रम संवत का भी आरम्भ हुआ था।                                                                          भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य,पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने ९५ शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी,जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान,साहित्य,कला-संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धन्वंतरि जैसे महान् वैद्य,वराहमिहिर जैसे महान् ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान् साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन-दु:खियों को साहूकारों के कर्ज़ से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे।                                                                                   प्राचीन काल में नया संवत चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी लोगों को ऋण-मुक्त करना आवश्यक होता था। राजा विक्रमादित्य ने भी इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों का राज्यकोष से कर्ज़ चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया संवत चलाया। भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीन काल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक नवरात्रि का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्य तिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है।                                                                       शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है। शालिवाहन नामक एक कुम्हार के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाईl उस पर पानी छिटककर उसको सजीव बनाया और उसकी मदद से प्रभावी शत्रुओं का पराभव किया। इस विजय के प्रतीक रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ। शालिवाहन ने मिट्टी की सेना में प्राणों का संचार किया,यह एक लाक्षणिक कथन है। उसके समय में लोग बिलकुल चैतन्यहीन,पौरुषहीन और पराक्रमहीन बन गए थे। इसलिए वे शत्रु को जीत नहीं सकते थे। मिट्टी के मुर्दों को विजयश्री कैसे प्राप्त होगी ? लेकिन शालिवाहन ने ऐसे लोगों में चैतन्य भर दिया। मिट्टी के मुर्दों में,पत्थर के पुतलों में पौरुष और पराक्रम जाग पड़ा और शत्रु की पराजय हुई।                                                                                                                  कई लोगों की ऐसी मान्यता है कि इसी दिन श्री रामचंद्रजी ने बाली के जुल्म से दक्षिण की प्रजा को मुक्त किया था। बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर गुड़ियाँ(ध्वजाएँ)फहराईं। आज भी घर के आँगन में `गुड़ी` खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसीलिए इस दिन को ‘गुड़ी पड़वा’ नाम मिला है। घर के आँगन में जो ‘गुड़ी’ खड़ी की जाती है,वह विजय का संदेश देती है। घर में बाली का(आसुरी संपत्ति का राम यानी देवी संपत्ति ने)नाश किया है,ऐसा उसमें सूचक है। `गुड़ी` यानी विजय पताका। भोग पर योग की विजय,वैभव पर विभूति की विजय और विकार पर विचार की विजय। मंगलता और पवित्रता को वातावरण में सतत प्रसारित करने वाली इस गुड़ी को फहराने वाले को आत्मनिरीक्षण करके यह देखना चाहिए कि,मेरा मन शांत,स्थिर और सात्विक बना या नहीं ?         पिछले २ हज़ार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक द्दष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया,किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही। अंग्रेज़ी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों,परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम,कृष्ण,बुद्ध,महावीर,गुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं,ईस्वी संवत के अनुसार नहीं। विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान,ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है,ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं। अन्य संस्कृतियों की कालगणना की तुलना में भारतीय काल गणना अधिक वैज्ञानिक है। भारतीय मनीषियों ने सूर्य और चन्द्रमा दोनों को आधार बनाकर अपना कैलेण्डर निर्मित किया। वर्ष प्रतिपदा अपनी परम्परा को स्मरण करने का हमें अवसर देती है। आइए,आप और हम भारतीय संस्कृति का नववर्ष का अभिनंदन करें,एवं अपनी परम्पराओं को जीवित रखें।

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