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फूल की भूल

अवधेश कुमार ‘अवध’
मेघालय
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असल जीवन की यह कहानी ६ दिसम्बर १९५९ से सम्बद्ध है। सम्मान,अपमान और निष्कासन की एक ऐसी घटना घटी थी जिसने हर्ष-विषाद का समन्वित इतिहास रच दिया था,लेकिन दुर्भाग्यवश इतिहास ने उस यथार्थ को अपने आँचल में कोई विशेष स्थान नहीं दिया। आइए चलते हैं झारखंड (तत्कालीन बिहार) के धनबाद में ६२-६३ साल पुराने अतीत में वक्त का पन्ना पलटने।
भारत वर्ष में आजादी का बिगुल बज चुका था। देश आत्मनिर्भरता एवं स्वाभिमान से जीवन-यापन के सपने साधिकार देखने लगा था। बिहार और पश्चिमी बंगाल का १५००० वर्ग किलोमीटर का परिक्षेत्र दामोदर नदी की भयावह बाढ़ से त्रस्त एवं सजल होकर भी समुचित सिंचाई से वंचित था। तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने अभाव के बीच आधुनिक भारत की नींव रख दी थी। १९४८ के अधिनियम १४ के तहत ७ जुलाई १९४८ को एक विशेष संसदीय सभा द्वारा भारत की बहुद्देश्यीय नदी घाटी परियोजना के अन्तर्गत दामोदर घाटी परियोजना (दामोदर वैली कॉरपोरेशन) को पारित किया गया। दामोदर और उसकी २ सहायक नदियाँ `बराकर` और `कूनार` के तटीय विध्वंश को रोकने के लिए डीवीसी ने ४ पनबिजली परियोजनाओं का नियोजन किया। इसमें से ३ मैथन,कोनार व तिलैया का निर्माण सरलता व सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया। अब बारी पंचेत की थी,जो स्थानीय विरोध के चलते छठी में ओझाई ज्यों होकर लटक गयी थी। अब तक बाँध बनने के कारण लगभग साढ़े छ: लाख स्थानीय संथाली लोग इधर-उधर विस्थापित हो चुके थे।
धनबाद जिले के मानभूम इलाके के खोरबोना गाँव की तकरीबन १५ वर्षीया बुधनी मझिआइन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। पंचेत पनबिजली परियोजना के शुरु न होने का दंश उसकी नींद उड़ाने लगा था। उसका मन बार-बार एक ही सवाल करता कि,नेहरू की दूरदर्शिता उसके ही इलाके में दम तोड़ रही है। कोई समझने को तैयार नहीं-इसके बनने से हजारों लोगों का पेट चलेगा,भूमि का कटाव रुकेगा,जन-जीवन सुखमय होगा,बिजली से घर-आँगन जगमगा जाएगा,लेकिन लोग हैं कि मानते नहीं……..। अक्सर इसी उहा-पोह में न जाने कब आँख लग जाती और फिर वह यकायक हड़बड़ाकर उठ जाती। एक दिन सूर्योदय के साथ बुधनी का निश्चय दृढ़ होता चला गया। एक हाथ में फावड़ा और दूजे में बाँस का बुना झउवा लेकर ‘एकला चलो रे….’ गुनगुनाते हुए वह पहुँच गई पंचेत। अदम्य साहस और असीमित उत्साह के साथ उसने पंचेत की छाती पर फावड़े का पुरजोर प्रहार किया। यह प्रहार वहाँ की जड़वत मानसिकता और पंचेत परियोजना पर छाए बादलों पर भी था। डीवीसी में खुशी की लहर का संचार हुआ और संथाली लोग एक-एक कर जुड़ने लगे। कार्य युद्ध स्तर पर होने लगा। लगभग ढाई वर्षों के अनवरत श्रम से बुधनी का सपना साकार हुआ और पंचेत पनबिजली परियोजना का निर्माण कार्य पूरा हुआ।
रविवार ६ दिसम्बर १९५९ का यादगार दिन। बुधनी जिसका मन पहले से ही पंचेत के श्रृंगार से सजा था,आज तन को भी सजा रही थी। क्यों न सजाये!, पंचेत पनबिजली का उद्घाटन करने आज पं. नेहरू आने वाले थे और उनके स्वागत की जिम्मेदारी अफसरों ने बुधनी को ही तो दी थी। धूप में तपे साँवले जिस्म पर एक खूबसूरत साड़ी,प्रिंटेड ब्लाउज,कान में झुमके और पारम्परिक हार पहने वह पहुँची थी पंचेत। उसके चंचल और आत्मविश्वास से भरे दोनों नैन किसी को भी बरबस बाँध लेते। बुधनी दुनिया की पहली मजदूर थी,जिसने प्रधानमन्त्री का न सिर्फ हार से स्वागत किया,न सिर्फ लोगों को सम्बोधित किया,बल्कि उस मंच से बटन दबाकर पंचेत पनबिजली का लोकार्पण भी किया। उन दिनों प्रधानमन्त्री के साथ मजदूर का मंच साझा करना किसी सुखद अजूबे दिवास्वप्न से कम नहीं था। बुधनी की कर्मठता का प्रतिफल यह सम्मान था,जो जवानी की दहलीज पर उसके शारीरिक सौष्ठव को शालीन दर्प से दैदीप्यमान कर रहा था।
रात में खुशी की अधिकता के कारण बुधनी की आँखों से नींद गायब थी। पंचेत बाँध के विकास की पल-पल की गवाह थी वह। उसकी झोपड़ी आज उसे स्वर्ग लग रही थी। उसके नन्हें से जीवन की उपलब्धि दूसरों के सौ वर्षों पर भारी थी। नेहरू के तीनों वादों को अनायास ही दुहरा लेती,-“सबके पास नौकरी होगी,सबका अपना घर होगा और हर घर में बिजली होगी।” उसे क्या पता था कि पंचेत की बिजली उसके भाग्य पर भी बिजली बनकर टूटने वाली है। घर के बाहर बढ़ते कोलाहल को कान रोपकर उसने सुना तो कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ,पर कब तक……..। भीड़ उसकी झोपड़ी को जहाँ-तहाँ से तोड़ते- फोड़ते उसके सामने खड़ी थी। दोपहर को जो लोग तालियाँ बजाकर,नारे लगाकर खुद को बुधनी के पड़ोसी होने पर अहोभाग्य समझते रहे थे,रात को हाथ में डंडे लेकर गला फाड़ रहे थे। एक बुजुर्ग काका ने कबीले का फरमान सुनाया,-“बुधनी! तूने एक पुरुष को…..अरे क्या नाम था उसका!…. नेहरू….हाँ,हाँ, …. नेहरू से हार पहनकर अपराध किया है। संथाली परम्परा के अनुसार तुम उसकी पत्नी हुई,लेकिन वह कबीले के बाहर का आदमी है इसलिए तुझे कबीले में रहने का कोई हक नहीं…..जा,अभी इस गाँव से बाहर निकल।” कुछ लोग गंदी-गंदी गालियों की उल्टियाँ भी कर रहे थे,पर बुधनी को होश कहाँ था! रोते-रोते उसकी सफाई,-“मैंने नेहरू को माला नहीं पहनाई थी और न उनके हाथों पहनी थी। मैंने तो सिर्फ उनके द्वारा दी ही माला को हाथ में ले लिया था। बस इतनी-सी ख़ता की इतनी बड़ी सजा……!” उसकी भर्रायी आवाज नक्कारखाने की तूती बनकर रह गई। वह तो खुशी के पहाड़ से गम के अन्तहीन समंदर में गिरती जा रही थी…..। असहाय घरवालों को छोड़कर अनाथ बुधनी पंचेत आ गई। “नेहरू की संथाली पत्नी” और न जाने क्या-क्या संबोधनों के व्यंग्य बाण रोज ही उसे छलनी करते,इसके बावजूद भी वह डीवीसी के मजदूर का फर्ज जी-जान से निभाती। सन् १९६२ में कूटनीतिक षड्यन्त्र करके उसको नौकरी से निकाल दिया गया। जिस परियोजना की वह पहली निर्मात्री सदस्य थी,उससे ही उसे बेदखल कर दिया गया।
पंचेत में उसकी मुलाकात सुधीर दत्त से हुई। डूबते को तिनके का सहारा मिला और वह अपना दिल हार बैठी। साथ रहते हुए वह दो बेटे और एक बेटी की माँ बनी,लेकिन संथाली परम्परा के प्रकोप ने उसे धर्मपत्नी न बनने दिया। वक्त को पछाड़ने वाली बुधनी को पीछे छोड़कर वक्त बहुत आगे निकल गया था।
नेहरू के नवासे राजीव गाँधी १९८४ में प्रधानमन्त्री बने,तो उसकी आँखों में आशा की एक ज्योति जगमगाई। हुआ यह कि नेहरू संग्रहालय का अवलोकन करते हुए राजीव की नजर नेहरू के साथ एक आदिवासी लड़की की तस्वीर पर पड़ी। पूछने पर उनको पंचेत बाँध के निर्माण में बुधनी की अहम भूमिका का पता चला। राजीव ने उससे मिलने की इच्छा जाहिर की…..। १९८५ में भिलाई के एक कार्यक्रम के दौरान राजीव गाँधी से बुधनी की मुलाकात हो सकी। राजीव के आश्वासन और हस्तक्षेप से बुधनी को नौकरी पर फिर से डीवीसी ने रख लिया।
इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भिक दो-तीन वर्षों में वह सेवानिवृत्त होकर गुमनाम हो गई। २०१० में एक पत्रिका ने तो उसे मृत भी घोषित कर दिया था,किन्तु संसार में आना और जाना ऊपर वाले के हाथ में है। कठपुतली सरिस मनुज की औकात ही क्या! मलायली लेखिका साराह जोसेफ उसके जीवन पर एक किताब लिखने के सिलसिले में लम्बी छानबीन के उपरान्त बुधनी से मिलीं। वह अपनी बेटी रत्ना और दामाद के साथ जीवन काट रही है। अंतिम इच्छा पूछने पर नेहरू के वादे को याद दिलाते हुए उसने बताया,-“राहुल गाँधी से कहकर मेरे लिए घर बनवा दो। मेरी बेटी को नौकरी दिलवा दो,ताकि हम बची जिंदगी आराम से काट सकें।” एक सवाल पर उसका जवाब था,-“अपने अतीत के काले अध्याय को मैं याद करना नहीं चाहती।”
बद्दुआओं का असर कहें या प्रकृति का फैसला कहें,बुधनी के निष्कासन के बाद उसका गाँव बाँध की भेट चढ़ गया। जैसे-तैसे लोग सालतोड़ में जाकर बसे। सालतोड़ में उसके कुछ घरवाले भी रहते हैं। एक बार वह हिम्मत करके उनसे मिलने भी गयी,पर अपनी जिंदगी के साठ साल पंचेत और संथाली कुप्रथा पर कुर्बान करने के बाद भी रूढ़िवादी परम्पराओं का आघात कम नहीं हुआ। उसे उसके हिस्से का सम्मान नहीं मिला। डीवीसी के पंचेत के इतिहास में उसका नाम न सही,पर बदनाम होकर भी वह पंचेत की बुनियाद से संथाली समुदाय को सदैव आइना दिखाती रहेगीl
परिचय-अवधेश कुमार विक्रम शाह का साहित्यिक नाम ‘अवध’ है। आपका स्थाई पता मैढ़ी,चन्दौली(उत्तर प्रदेश) है, परंतु कार्यक्षेत्र की वजह से गुवाहाटी (असम)में हैं। जन्मतिथि पन्द्रह जनवरी सन् उन्नीस सौ चौहत्तर है। आपके आदर्श -संत कबीर,दिनकर व निराला हैं। स्नातकोत्तर (हिन्दी व अर्थशास्त्र),बी. एड.,बी.टेक (सिविल),पत्रकारिता व विद्युत में डिप्लोमा की शिक्षा प्राप्त श्री शाह का मेघालय में व्यवसाय (सिविल अभियंता)है। रचनात्मकता की दृष्टि से ऑल इंडिया रेडियो पर काव्य पाठ व परिचर्चा का प्रसारण,दूरदर्शन वाराणसी पर काव्य पाठ,दूरदर्शन गुवाहाटी पर साक्षात्कार-काव्यपाठ आपके खाते में उपलब्धि है। आप कई साहित्यिक संस्थाओं के सदस्य,प्रभारी और अध्यक्ष के साथ ही सामाजिक मीडिया में समूहों के संचालक भी हैं। संपादन में साहित्य धरोहर,सावन के झूले एवं कुंज निनाद आदि में आपका योगदान है। आपने समीक्षा(श्रद्धार्घ,अमर्त्य,दीपिका एक कशिश आदि) की है तो साक्षात्कार( श्रीमती वाणी बरठाकुर ‘विभा’ एवं सुश्री शैल श्लेषा द्वारा)भी दिए हैं। शोध परक लेख लिखे हैं तो साझा संग्रह(कवियों की मधुशाला,नूर ए ग़ज़ल,सखी साहित्य आदि) भी आए हैं। अभी एक संग्रह प्रकाशनाधीन है। लेखनी के लिए आपको विभिन्न साहित्य संस्थानों द्वारा सम्मानित-पुरस्कृत किया गया है। इसी कड़ी में विविध पत्र-पत्रिकाओं में अनवरत प्रकाशन जारी है। अवधेश जी की सृजन विधा-गद्य व काव्य की समस्त प्रचलित विधाएं हैं। आपकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी भाषा एवं साहित्य के प्रति जनमानस में अनुराग व सम्मान जगाना तथा पूर्वोत्तर व दक्षिण भारत में हिन्दी को सम्पर्क भाषा से जनभाषा बनाना है। 

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