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स्वभाषा के बिना महाशक्ति कैसे बनेगा देश ?

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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मातृभाषा दिवस विशेष-भाग 3

आम तौर पर लोगों को पता नहीं होता कि संयुक्त राष्ट्र २१ फरवरी को ‘विश्व-मातृभाषा दिवस’ क्यों मनाता है। दुनिया के लगभग सभी राष्ट्रों में इस दिन मातृभाषाओं के सम्मान से जुड़े आयोजन होते हैं,लेकिन इसका श्रेय हमारे पड़ोसी राष्ट्र बांग्लादेश को जाता है। बांग्लादेश १९७१ के पहले तक पाकिस्तान का हिस्सा था। इसे पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था। इस पूर्वी पाकिस्तान की जनता बांग्लाभाषी है,लेकिन इस पर उर्दू थोप दी गई थी। पश्चिम पाकिस्तान के लोगों की भाषाएं हैं-पंजाबी, सिंधी,बलूच और पश्तो,लेकिन उन्होंने भारत से गए मुहाजिरों की भाषा उर्दू को राष्ट्रभाषा स्वीकार कर लिया था। १९४८ में जब पाकिस्तान की संविधान सभा में उर्दू को राजभाषा घोषित किया गया तो,बांग्ला सदस्यों ने उसका कड़ा विरोध किया लेकिन उनकी दलीलें रद्द कर दी गईं।

मातृभाषा आंदोलन-

नतीजा यह हुआ कि पूरे पूर्वी पाकिस्तान में आंदोलन की आग भड़क उठी। ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने जबर्दस्त प्रदर्शन किए। ऐसे ही एक प्रदर्शन पर पाकिस्तानी फौज ने गोलियां बरसाईं। २१ फरवरी १९५२ को ५ नौजवान शहीद हो गए। तभी से २१ फरवरी का दिन मातृभाषा-दिवस के तौर पर बांग्लादेश में मनाया जाने लगा। इसी मातृभाषा आंदोलन से आगे चलकर बांग्लादेश का जन्म हुआ। बांग्लादेश के निर्माण (१९७१) के बाद यह मांग निरंतर उठती रही कि मातृभाषा-दिवस को अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलवाई जाए। शेख हसीना के नेतृत्व में बांग्लादेश सरकार ने यूनेस्को की महासभा से २१ फरवरी को विश्व मातृभाषा दिवस घोषित करवा लिया। सन २००० से यह सारी दुनिया में मनाया जाता है। दुनिया में इस समय ७ हजार मातृभाषाएं या स्वभाषाएं या बोलियां हैं। इनमें कई की कोई लिपि नहीं है,व्याकरण नहीं है,पुस्तकें नहीं हैं,अखबार नहीं हैं लेकिन फिर भी वे जीवित हैं और प्रचलित हैं। इनमें से लगभग आधी ऐसी हैं,जिनकी रक्षा नहीं हुई तो वे काल-कवलित हो जाएंगी। दुनिया के दूसरे देशों की बात अभी जाने दें,हमारे दक्षिण एशिया में मातृभाषाओं का आज क्या हाल है ? यदि अफगानिस्तान,नेपाल और भूटान को छोड़ दें तो बताइए कौन-सा ऐसा देश हमारे पड़ोस में है,जहां उसकी स्वभाषा या मातृभाषा या राष्ट्रभाषा को उसका समुचित स्थान मिला हुआ है। दक्षिण एशिया के इन देशों को आजाद हुए अब ७५ साल पूरे होने को हैं,लेकिन जहां तक मातृभाषा का सवाल है,इस मामले में वे अब भी घुटनों के बल रेंग रहे हैं। अफगानिस्तान,नेपाल और भूटान की संसदों और राज-दरबारों में उनकी अपनी भाषाओं का प्रयोग होते हुए देखा है। उनके कानून,न्याय,शिक्षण, राज-काज और घर-बाजार की भाषा उनकी अपनी है। इन तीनों देशों को अपनी भाषा,संस्कृति और जीवन-पद्धति पर गर्व है। गर्व तो भारत,पाकिस्तान, बांग्लादेश,श्रीलंका और मालदीव को भी है। वे अपनी भाषा को महारानी कहते हैं,लेकिन उसका दर्जा सर्वत्र नौकरानी का है। इन राष्ट्रों की अपनी भाषाओं में न तो इनका कानून बनता है और न ही उनके जरिए अदालतों में बहस होती है। जो फैसले होते हैं,वे भी अंग्रेजी में होते हैं। इन देशों की संसदों में ज्यादातर बहस भी अंग्रेजी में ही होती है। मातृभाषा तभी सुनने में आती है, जब नेताजी को अंग्रेजी नहीं आती हो। इन देशों में भी भारत की तरह पब्लिक विद्यालयों की बहार आई हुई है। सम्पन्न और शहरी मध्यम वर्ग के बच्चे इन्हीं शालाओं में लदे रहते हैं और वे ही अंग्रेजी माध्यम से पढ़े बच्चे सरकारी नौकरियां हथिया लेते हैं। यदि मातृभाषाओं और राष्ट्रभाषा को उनका उचित स्थान मिल जाए तो हमारे अस्पताल और न्यायालय जादू-टोनाघर बनने से बच सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र और यूनेस्को जब मातृभाषाओं की बात करते हैं,तो उनका आशय यह नहीं होता है कि बच्चे दूसरी भाषाओं का बहिष्कार कर दें। वे अपनी मातृभाषा जरूर सीखें,लेकिन उसके साथ-साथ राष्ट्रभाषा भी सीखें। जिन राष्ट्रों में कई भाषाएं हैं, वहां राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता और समग्र विकास का पर्याय होती है। जहां तक विदेशी भाषाओं का सवाल है,उन्हें भी जरूरत के मुताबिक सीखा जाए तो बहुत अच्छा है। विदेशी भाषाओं का ज्ञान विदेश-व्यापार, राजनय और शोध-कार्य के लिए आवश्यक है,लेकिन इन तीनों कामों में कितने लोग लगे हैं ? मुश्किल से १ लाख लोग,लेकिन हमारे देश में तो १४० करोड़ लोगों पर एक विदेशी भाषा थोप दी गई है। अनिवार्य अंग्रेजी के चलते करोड़ों बच्चे हर साल अनुत्तीर्ण होते हैं। उनका मनोबल गिरता है और उनकी हीनता-ग्रंथि मोटी होती चली जाती है। सर्वोच्च पदों तक पहुंचने के बाद भी वह ज्यों की त्यों बनी रहती है।
हमारे पुराने मालिकों की भाषा अंग्रेजी सिर्फ साढ़े ४ देशों-ब्रिटेन,अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की भाषा है। यह कनाडा की भी भाषा है लेकिन आधा कनाडा फ्रांसीसी बोलता है। चीन,फ्रांस,जर्मनी,जापान,इटली आदि देशों का सारा महत्वपूर्ण काम उनकी अपनी भाषा में होता है। विदेशी भाषा के जरिए कोई भी देश आज तक महाशक्ति नहीं बना है। इन सब देशों में उनके विश्वविद्यालय,संसदें,अदालतें,सरकारी दफ्तर,घर और बाजार में सर्वत्र उनकी अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा का बोलबाला है। हमारे देश में अंग्रेजी अकेली ऐसी विदेशी भाषा है, जिसका सर्वत्र बोलबाला है। इसका उपयोग चीन,जापान,रूस, फ्रांस और जर्मनी के साथ करके क्या हम अपने व्यापार,कूटनीति और शोध-कार्यों में उनका समुचित लाभ उठा सकते हैं?
मौलिकता को नुकसान-
एकमात्र विदेशी भाषा (अंग्रेजी) की अनिवार्यता ने भारत को नकलची बना दिया है। उसकी मौलिकता को पंगु कर दिया है। भारत के मुट्ठी भर लोगों की उन्नति में अंग्रेजी का योगदान जरूर है लेकिन भारत के १०० करोड़ से भी ज्यादा गरीबों,पिछड़ों, ग्रामीणों,मजदूरों और वंचितों का उद्धार उनकी स्वभाषाओं के बिना नहीं हो सकता। आज तक स्वतंत्र भारत में एक भी सरकार ऐसी नहीं आई है,जो राष्ट्रीय विकास में भाषा की भूमिका को ठीक से समझती हो। कुछ सरकारों ने जब-तब थोड़े-बहुत कदम जरूर उठाए हैं लेकिन जब तक मातृभाषाओं और राष्ट्रभाषा का हर क्षेत्र में सर्वोच्च स्तर तक प्रयोग नहीं होगा,भारत महासम्पन्न और महाशक्ति नहीं बन पाएगा।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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