कुल पृष्ठ दर्शन : 1277

You are currently viewing अन्वेषक महानायक राजा भोज और उनकी ज्ञान साधना

अन्वेषक महानायक राजा भोज और उनकी ज्ञान साधना

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
उज्जैन (मध्यप्रदेश)
****************************************************************
भारत में ज्ञान साधना की अटूट परम्परा रही है। सदियों से अनेक मनीषियों ने अन्वेषण के सिलसिले को बनाए रखा है। इस परम्परा में ऐसे अनेक शासक भी आए,जो विद्वानों को राज्याश्रय देने के साथ स्वयं भी सारस्वत साधना में लीन रहे। इस श्रृंखला के विलक्षण मनीषियों में सम्राट विक्रमादित्य, हर्ष,भोज आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। महाराजा भोज इतिहास प्रसिद्ध मुंजराज के भतीजे और सिंधुराज के पुत्र थे। वे मालवा के अनन्य विद्या रत्न थे। नवीं शताब्दी में परमारों ने मालवा पर अपना अधिकार कर लिया था। इस वंश में प्रसिद्ध राजा वाक्पति मुंज और भोजदेव हुए। राजा भोज सही अर्थों में भारतीय इतिहास के महानायक थे। भोजदेव बड़े विद्यानुरागी और अन्वेषक थे। विविध ज्ञान-विज्ञान,कला और साहित्य की व्यापक उन्नति उनके समय में हुई। मुंज स्वयं वीर और विद्वान थे। मुंज ने कई बार चालुक्य राजा तैलप को परास्त किया,किन्तु एक बार वह स्वयं परास्त हो गया। तैलप ने अपनी राजधानी में ले जाकर मुंज को बन्दीगृह में डाल दिया और उसे अपनी बहिन का शिक्षक बनाया,किन्तु उसके भाग जाने का सन्देह होने पर उसका सिर काट लिया। मुंज के समय में उज्जैन के साथ-साथ धार की प्रतिष्ठा भी बढ़ने लगी थी। प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण मुंज ने धार में महल और घाट बनवाए थे। मुंज के पश्चात उनके भतीजे भोजदेव ने विक्रमादित्य के समान ही कीर्ति अर्जित की,किन्तु अपनी राजधानी सदैव के लिए धारा नगरी बना ली। भोजदेव के समय साहित्य की श्रीवृद्धि के साथ-साथ चालुक्यों से युद्ध भी होते रहे। गांगेय देव का युद्ध भी इसमें प्रसिद्ध है। भोज ने गांगेय को हराकर विजय के उपलक्ष्य में लोहे का एक कीर्ति-स्तम्भ (लाट) खड़ा किया,जो अब भी धार में ३ टुकड़ों में विद्यमान है। अन्त में कलचुरि वेदी और कर्नाटक नरेशों ने सम्मिलित रूप से भोजदेव पर आक्रमण किया,जिसमें भोज हारे और मारे गये।
लोक मान्यता है कि राजा भोज विद्याप्रेमी सम्राट विक्रमादित्य के वंशज थे। उनका जन्म सम्राट विक्रमादित्य की नगरी उज्जैन में हुआ था। १५ वर्ष की अल्प आयु में उनका राज्याभिषेक मालवा के राजसिंहासन पर किया गया था। राजा भोज ने ग्यारहवीं शताब्दी में धारा नगरी (धार) को ही नहीं, अपितु समस्त मालवा और भारतवर्ष को अपने विलक्षण कार्यों से गौरवान्वित किया। महाप्रतापी राजा भोज के पराक्रम के कारण उनके शासन काल में भारत पर साम्राज्य स्थापित करने का दुस्साहस कोई नहीं कर सका। संस्कृत वाङ्मय में उन्हें त्रिविध वीर चूड़ामणि की उपाधि से विभूषित किया गया है। वे एकसाथ-रणवीर,दानवीर और विद्यावीर थे। राजा भोज की प्रतिभा बहुआयामी थी। एक साथ वास्तुविद्,अभियंता,धर्मशास्त्री और पर्यावरण प्रेमी का एकीभूत रूप उनमें देखा जा सकता है। इसका प्रमाण है कि उन्होंने स्थान-स्थान पर छोटे-बड़े सहस्रों देवालय और भवनों का निर्माण करवाया,सैकड़ों तालाब खुदवाए,अनेक नगर बसाये,कई दुर्ग और विद्यालय बनवाये। उन्होंने भोपाल से २५ किलोमीटर दूर भोजपुर में विश्व के सबसे विशाल शिवलिंग का निर्माण कराया,जो आज भोजेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है,जिसकी ऊंचाई २२ फीट है। राजा भोज ने भारत को नई पहचान दिलवाई। उन्होंने कुशल शासक के रूप में देशवासियों को संगठित कर महान कार्य किया,उससे राजा भोज के ढाई सौ वर्षों के बाद भी आक्रमणकारियों से हिंदुस्तान की रक्षा होती रही।
राजा भोज भारतीय इतिहास के ऐसे विलक्षण शासक हुए,जो शौर्य एवं पराक्रम के साथ ज्ञान,विज्ञान,साहित्य,कला तथा धर्म के ज्ञाता थे। राजा भोज ने माँ सरस्वती की आराधना,उनके साधकों की साधना,भारतीय जीवन दर्शन एवं संस्कृत के प्रचार-प्रसार हेतु सन् १०३४ के आसपास धार और उज्जैन में सरस्वतीकण्ठाभरण नामक विद्याप्रासाद बनवाए थे। उनकी शिलाओं पर विविध शास्त्र और काव्य उत्कीर्ण करवाए। यह आज भी धार में भोजशाला के नाम से प्रसिद्ध है। यह भोज की स्वयं की परिकल्पना एवं वास्तु से निर्मित है। उन्होंने भोजपाल (भोपाल) में भारत का सबसे बड़े तालाब का निर्माण कराया,जो आज भोजताल के नाम से प्रसिद्ध है। भोज विद्या,वीरता और दान में अद्वितीय थे। उनके दरबार में सैकड़ों विद्वान रहते थे।
भोज की मृत्यु के उपरान्त उनकी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले जयसिंह और उदयादित्य जैसे शासक हुए,जिन्होंने अनेक मंदिर और तालाब बनवाए। उदयादित्य की वंश-परम्परा में लक्ष्मणदेव,नरवर्मदेव, यशोवर्मदेव ने शासन किया। अर्जुन-देव के समय सन १२३५ ई. में दिल्ली के गुलामवंशीय सुल्तान अल्तमश ने मालवा पर आक्रमण किया और उज्जैन तथा धार के वैभव को विनष्ट कर दिया। सन १२९१ से १२९३ तक खिलजीवंश के प्रसिद्ध सुल्तान अलाउद्दीन ने दुबारा उज्जैन पर आक्रमण किया और उसे अपने राज्य में मिला लिया।
राजा भोज एक महान शासक के साथ अनुसंधानकर्ता भी थे। उन्होंने अपने जीवन का बहुलांश विद्या के प्रति समर्पण और निष्ठा के साथ बिताया था। यह अत्यंत विस्मित करने की बात है कि उन्होंने राज्य के संचालन और रक्षण के साथ विविध ज्ञानानुशासनों से जुड़े अनेक महनीय ग्रंथों की रचना की थी। राजा भोज (९६५ ई.-१०५५ ई.) द्वारा प्रणीत ग्रंथों की संख्या १८४ से भी अधिक मानी जाती है। ये सभी ग्रन्थ ज्ञान-विज्ञान और कलाओं से सम्बद्ध हैं। उनमें से प्रमुख हैं-सरस्वतीकंठाभरण,श्रृंगारमंजरी, चम्पूरामायण,चारुचर्या,तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय,युक्तिकल्पतरु,राजमार्तण्ड, श्रृंगारप्रकाश,वृहद्राजमार्तण्ड,विद्याविनोद, समराङ्गणसूत्रधार,आदित्यप्रतापसिद्धान्त, आयुर्वेदसर्वस्व आदि। उनकी रचनाओं को विभिन्न विषयों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है-संकलन:सुभाषितप्रबन्ध,शिल्प: समराङ्गणसूत्रधार,खगोल एवं ज्योतिष: आदित्यप्रतापसिद्धान्त,राजमार्तण्ड, राजमृगाङ्क,विद्वज्जनवल्लभ (प्रश्नविज्ञान), धर्मशास्त्र,राजधर्म तथा राजनीति:भुजबुल (निबन्ध),भुपालपद्धति,भुपालसमुच्चय या कृत्यसमुच्चय,चाणक्यनीति या दण्डनीति: व्यवहारसमुच्चय,युक्तिकल्पतरु,पुर्तमार्तण्ड, राजमार्तण्ड, व्याकरण:शब्दानुशासन,कोश: नाममालिका,चिकित्साविज्ञान: आयुर्वेदसर्वस्व,राजमार्तण्ड या योगसारसंग्रह,राजमृगारिका,शालिहोत्र, विश्रान्त विद्याविनोद,संगीत: संगीतप्रकाश, प्राकृत काव्य:कुर्माष्टक, संस्कृत काव्य एवं गद्य:चम्पूरामायण, महाकालीविजय,
श्रंगारमञ्जरी,विद्याविनोद,दर्शन:राजमार्तण्ड (योगसूत्र की टीका),राजमार्तण्ड (वेदान्त), सिद्धान्तसंग्रह,सिद्धान्तसारपद्धति,शिवतत्त्व या शिवतत्त्वप्रकाशिका आदि। इन ग्रंथों से उनकी विविधमुखी प्रतिभा का परिचय मिलता है। स्वयं भोज को उनके वैदुष्य के कारण विद्वानों की परिषद में अध्यक्षता के लिए बुलाया जाता था। विद्या प्रसार के साथ नवोन्मेषी शोध के प्रति उनका समर्पण प्रेरणीय है।
राजा भोज भारत के विद्याव्यसनी शासक-आचार्यों में विलक्षण रत्न हैं। वे जितने बड़े रचनाकार और साहित्य मनीषी थे,उतने ही बड़े शास्त्रज्ञ और अनुसंधानकर्ता भी। भोज ने विपुल लेखन किया था। उनकी विशाल ग्रंथ राशि को देखकर कई बार विद्वान विस्मित हो शंका करते हैं कि कहीं उनके नाम से उपलब्ध ग्रन्थ राज्याश्रय में रहने वाले विद्वानों द्वारा प्रणीत तो नहीं हैं। वस्तुतः भोज बहुविद्या विद् होने के साथ त्वरित ग्रन्थ लेखन की अनुपम क्षमता रखते थे। उनके ग्रंथों के अन्तःसाक्ष्य और अन्तः संबंधों से स्पष्ट संकेत मिलता है कि वे एक ही व्यक्ति द्वारा रचित हैं।
भोज कृत ‘चारुचर्या’ अत्यंत लोकप्रिय और अनूठा ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की संरचना में एक श्रेष्ठ संकलनकर्ता और शोधकर्ता की दृष्टि दिखाई देती है। ग्रन्थ के केन्द्र में आदर्श जीवनचर्या है,जिसे साकार करते हुए भोज ने कई शास्त्रों का मंथन किया था।
सुनीतिशास्त्र सद्वैद्य धर्म शास्त्रानुसारतः।
विरच्यते चारुचर्या भोजभूपेन धीमता॥
आयुर्वेद,धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र के तत्त्वों से संवलित इस ग्रंथ को जीवन विज्ञान का प्रादर्श कहा जा सकता है। भोज के इस ग्रंथ के माध्यम से संकेत मिलता है कि स्वस्थ और सुव्यवस्थित जीवन शैली के लिए प्रकृति और पदार्थों का सूक्ष्म निरीक्षण,शोधपरक जिज्ञासा और ज्ञात-अज्ञात तथ्यों की सम्यक पड़ताल आवश्यक है। ग्रंथकार ने जीवन की प्रत्येक गतिविधि की सूक्ष्म मीमांसा की है और मानव मात्र को वैज्ञानिक दृष्टि से जीने की सलाह दी है। ऐसा कोई कार्य नहीं है,जो ग्रन्थकार भोज की आँखों से ओझल हो। क्या प्रातःकालीन चर्या,क्या वस्त्राभूषण, क्या भोजन और क्या ऋतु अनुसार करणीय कर्म-सब-कुछ इस ग्रंथ में विचारणीय बने हैं। हाल ही में इस ग्रंथ का डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित द्वारा अनुदित संस्करण प्रकाशित हुआ है।
चारुचर्या ग्रंथ विविध ऋतुओं में जल की उपलब्धता,उसे ग्रहण करने की पद्धति पर विशद प्रकाश डालता है। जल की परिशुद्धता के कारकों के रूप में सूर्य-चंद्र की किरणों, वायु से नैसर्गिक शोधन और स्वयं मनुष्य द्वारा उसे छानने के महत्त्व को यहाँ रेखांकित किया गया है। विविध रोगों के नाश के लिए वनस्पतियों के जल के पान का विधान भी इस ग्रंथ में किया गया है। विविध मतों के आलोक में गर्म पानी की महत्ता का प्रतिपादन यह ग्रन्थ करता है। देश की विभिन्न नदियों,यथा गंगा,यमुना,नर्मदा, तुंगभद्रा,गोदावरी,कावेरी,कृष्णा,सरस्वती आदि के जल के वैशिष्ट्य को इस ग्रंथ में वर्णित किया गया है। यहाँ तक की विविध रोगों को नष्ट करने की उनकी क्षमता को भी यहाँ दर्शाया गया है। पानी के रंग,स्वाद,उसे संचित करने के साधनों तथा उनके गुण-दोषों की पर्याप्त चर्चा भी की गई है।
दूध के अगणित गुणों का निरुपण चारुचर्या में हुआ है। इसे भोज ने रसायन की महिमा दी है। गाय,भैंस आदि पशुओं तथा वनस्पतियों के दूध के गुणों की चर्चा भी भोज ने की है। विभिन्न पशुओं के दूध से निर्मित दही,मट्ठे,मक्खन,घी आदि तथा वनस्पतियों के सेवन,लेपन तथा मिश्रण से बने रसायनों के गुण-दोषों का विस्तृत निरूपण इस ग्रन्थ में हुआ है। पुष्प प्रकरण में महज श्रृंगार और अर्चना के निमित्त ही फूलों की महिमा नहीं मानी गई है,वरन उनके रोगनाशक गुणों की विवेचना भी की गई है।
आहार विषयक पर्याप्त जानकारियाँ और तथ्य इस ग्रंथ में जुटाए गए हैं। इनमें भोजन का काल,स्थान,आसन,धातु से निर्मित पात्र और पत्ते,पदार्थ सेवन क्रम,विविध व्यंजन आदि से लेकर भोजन के बाद की क्रिया-सबका सविस्तार निरूपण इस ग्रन्थ में हुआ है।
वस्त्र अधिकार प्रकरण में भोज वस्त्र को आभूषणों का भी आभूषण निरूपित करते हैं,जो शुचि और सौन्दर्य की वृद्धि करता है-वस्त्रं भूषणभूषणं शुचिकरं सौंदर्यसंवर्धनं। इस प्रकरण में उन्होंने विविध प्रकार के वस्त्रों के ऋतु अनुसार स्वभाव और रोगनाशक गुणों का वर्णन किया है। वर्जनीय वस्त्रों के अंतर्गत गहरे लाल,मलिन,जीर्ण,कटे-फटे,आग से जले, पराये वस्त्र का निषेध किया है। इसी प्रकार स्वर्ण,मोती,मूंगा,मरकत,पुखराज,हीरा,नीलम आदि के गुणों और प्रभावों की चर्चा भोज ने की है। विभिन्न प्रकार के यान,घर,बिछौना, निद्रा आदि के विधि-निषेध भी इस ग्रंथ में समाहित हैं। इस ग्रंथ से स्पष्ट संकेत मिलता है कि भोज को विविध प्रकार के प्राकृतिक उपादानों,क्षेत्रीय वैशिष्ट्य और ऋतुओं का गहन अध्ययन है। उनका यह ग्रंथ उस युग का साक्षी है,जब मनुष्य की आदर्श जीवन चर्या और स्वास्थ्य में प्रकृति का महत्वपूर्ण योग था। जैसे-जैसे मनुष्य प्रकृति से दूर होता जा रहा है,समस्याएं बढ़ती जा रही हैं।
अपनी गहरी निरीक्षण दृष्टि,तथ्यों की प्रामाणिकता और सहज ग्राह्यता के कारण सदियों से चारुचर्या लोकप्रिय बना हुआ है। भारतीय वाङ्मय की परम्परा में यह ग्रंथ अपने ढंग का अकेला प्रयास है,जिसमें भोज राज जैसे आदर्श संकलन और सर्वेक्षणकर्ता के साथ एक गंभीर अन्वेषक और प्रयोगकर्ता की प्रतिभा का प्रतिबिम्बन हुआ है।
भारत के बहु विद्याविद् और ज्ञानाराधक शासकों की परम्परा में अनन्य राजा भोज ने स्वयं वास्तु,आयुर्वेद,साहित्य,जीवन विज्ञान सहित अनेक विद्याओं को समृद्ध किया,साथ ही ज्ञान की विविध शाखाओं से जुड़े मनीषियों को अपने आश्रय में स्थान देते हुए नवोन्मेष और नवाचार का वातावरण भी बनाया। भोज के सामने समस्त शास्त्र हस्तामलकवत् थे। अतः किसी भी विषय पर ग्रन्थ रचना में उन्हें देर नहीं लगती थी। प्रबंधचिंतामणि में कहा गया है,-‘सहसा दृब्धनानाप्रबंधः’ अर्थात वे सहसा विविध प्रकार के प्रबंध लिख लिया करते थे। भोज ने प्रायः ज्ञान के सभी क्षेत्रों में रचनाएँ की हैं। इन ग्रन्थों की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वे अपने अपने अध्ययन क्षेत्र में विश्वकोशीय भूमिका लिए हुए हैं। उदाहरणार्थ एक युक्तिकल्पतरु ग्रन्थ को ही लें,जो उनके समस्त ग्रन्थों में अद्वितीय है। २ हजार श्लोकों के इस ग्रन्थ में अनेक विषयों का समाहार है। राजनीति,वास्तु,रत्नपरीक्षा,विभिन्न आयुध, अश्व,गज,वृषभ,महिष,मृग,अज,श्वान आदि पशुओं की परीक्षा,द्विपदयान,चतुष्पदयान, अष्टदोला,नौका-जहाज आदि के सारभूत तत्वों का इस ग्रन्थ में संक्षेप में सन्निवेश है। विभिन्न पालकियों और जहाजों का वर्णन इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। विभिन्न प्रकार के खड्गों का सर्वाधिक विवरण इस पुस्तक में ही प्राप्त होता है। यह तद्युगीन राजवर्ग के लिए एक अत्यंत उपयोगी आधार ग्रन्थ है।
प्रभावक चरित के अनुसार,-उज्जैन के सरस्वतीकण्ठाभरण प्रासाद में स्वयं भोज के अनेक विषयों के ग्रन्थ पढ़े – पढ़ाए जाते थे। इनमें अलंकार,वास्तु, चिकित्सा विज्ञान,अंक, अर्थशास्त्र,तर्कशास्त्र,शब्द,राजसिद्धान्त, अध्यात्म आदि उल्लेख्य हैं। भोज की गुणग्राहकता की प्रसिद्धि इतनी अधिक थी कि ज्ञान की विविध शाखाओं से जुड़े लोग उनके साथ रहते हुए अत्यंत गौरव का अनुभव करते थे। भोज के इस योगदान पर मम्मट ने ‘काव्य प्रकाश’ में ठीक ही लिखा है:
यद्विद्वद्भवनेषु भोजनृपतेस्तत् त्याग लीलायितं। अर्थात भोजदेव के आश्रित विद्वानों का जो ऐश्वर्य दिखाई देता है, वह सब भोज की दान-लीला का प्रभाव है। भोजचरित में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि जब बात राजा भोज के गुणों के वर्णन की हो तो स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी स्वयं को अक्षम पाते हैं,
वर्णने भोजभूपस्य देवाचार्यो न क्षमः।
भोज श्रेष्ठ विद्वान,परम सामर्थ्यवान, सुयोग्य तथा लोकोपकारी राजा के रूप में अपने समय ही विख्यात हो गये थे। उनके ताम्रपत्र,शिलालेख तथा प्रतिमालेख बड़ी संख्या में प्राप्त होते है। अपनी विलक्षण प्रतिभा और सद्कर्मों के कारण राजा भोज अपने युग में ही कथा-कहानियों के चरित नायक के रूप में प्रसिद्ध होने लगे थे। बाद में सम्राट विक्रमादित्य के समान महाराज भोज भी भारत के ऐसे लोकनायक के रूप में मान्य हो गये कि उनकी कथा-गाथाएँ न केवल भारतीय जनता में,लोक में प्रसिद्ध हो गयी थीं, अपितु लंका,नेपाल,तिब्बत,मंगोलिया सहित कई देशो में भी फैल गयी थीं। मंगोली भाषा में ‘अराजि बुजि’ पुस्तक राजा भोज से संबंधित है। इसी प्रकार राजा भोज की ‘चाणक्यमाणिक्य’ पुस्तक का एक तिब्बती रूप भी प्राप्त होता है।
भोज के दौर में महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण हो रहे थे। उसके साथ अरबी विद्वान अलबरूनी आया था,जो मध्य एशिया के ख़्वारिज्म (खिवा) का निवासी था। वह स्वयं विज्ञान और साहित्य का अच्छा अध्येता था। भारतीय दर्शन,गणित,तर्कशास्त्र, राजनीति और विज्ञान में उसकी गहरी अभिरुचि थी। उसने भारतीय विद्याओं का ज्ञान अरबी में अनूदित ग्रन्थों से हासिल किया था। महमूद गजनवी जैसे असहिष्णु शासक के साथ रहने के बावजूद उसने किताबुल हिन्द या तहकीके हिन्द की रचना की थी,जिसमें भारत के ज्ञान-विज्ञान,समाज जीवन और दर्शन का लेखा-जोखा है। १०३० ई. में भोज के राज्यकाल में अलबरूनी धार आया था। उसने भोजराज की अत्यधिक प्रशंसा की है। साथ ही उसने कीमियागिरी से जुड़ी पूर्व काल के राजा विक्रमादित्य और व्याडि की एक रोचक कथा का भी वर्णन किया है। इस विद्या को वह भारतीयों का विज्ञान कहता है। उसने धार से जुड़ी एक और कथा का जिक्र भी किया है,जो उस वक्त के रसायन शास्त्र से संबंधित है।
राजा भोज इतिहास पुरुष होते हुए भी मिथक पुरुष हो गये। उन्होंने वैश्विक ख्याति प्राप्त की। विविधवर्णी उदात्त गुणों के कारण वे अपने युग के मित्र राजाओं के समान शत्रु राजाओं के भी आदर्श बन गये थे। यही नहीं,सदियों तक परवर्ती अनेक राजा भी स्वयं को लघु भोजराज,अपर भोजराज,नव भोजराज आदि कहने में गौरव का अनुभव करते रहे हैं। इसके पीछे उनका एक गहन अध्येता और लोकोपकारी निर्माणकर्ता रूप तो कारण है ही,विविध विषयों से जुड़े विद्वानों और रचनात्मक प्रतिभाओं को व्यापक प्रोत्साहन देना भी रहा है।
भोज ने विद्वानों को आश्रय देने के साथ स्वयं विविधविध विषय क्षेत्रों में वैदुष्य और दक्षता के साथ अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया था। वे अत्यंत प्रवीण शास्त्रकार,कवि और दार्शनिक होने के साथ ज्योतिर्विद् भी थे। शिक्षा,कल्प, व्याकरण,ज्योतिष,छन्द और निरुक्त – जैसे वेदांग के ६ अंगों में ज्योतिष को भी स्थान मिला है। ज्योतिर्विज्ञान की यात्रा में पुरातन काल के अनेक ऋषियों,जैसे वशिष्ठ,जैमिनी, व्यास,अत्रि,नारद,गर्ग,पराशर,कश्यप,शौनक, मनु,अंगीरा,लोमश,च्यवन,भृगु,लाट, विजयानंदि,श्रीषेण,विष्णुचंद्र आदि के साथ महान खगोलविद् आर्यभट्ट,वराहमिहिर, भास्कराचार्य,ब्रह्मगुप्त आदि का विशिष्ट स्थान रहा है। वराहमिहिर ने बृहज्जातक, बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों के माध्यम से ज्योतिर्विज्ञान को अत्यंत सुव्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप देने में अनुपम योगदान दिया। उनके बाद इसकी कई दिशाएँ खुलीं। वराहमिहिर के परवर्ती दौर के ज्योतिर्विज्ञान विषयक ग्रन्थों में भोजराज के ग्रंथों का भी विशेष महत्व है। खगोल एवं ज्योतिष से जुड़े भोजराज के महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं- आदित्यप्रतापसिद्धान्त,राजमार्तण्ड, राजमृगाङ्क और विद्वज्जनवल्लभ। इन ग्रन्थों में प्रश्न विज्ञान को लेकर लिखा गया ग्रन्थ विद्वज्जनवल्लभ अनेक दृष्टियों से अध्ययन और अनुसन्धान की नई दिशाएँ खोलता है।
ग्रहों के आधार पर शुभ-अशुभ फल का निर्धारण सदियों से लोक विश्वास का अंग रहा है। इसी लोक विश्वास को शास्त्रीय आधार देता आया है-ज्योतिर्विज्ञान। यह व्यापक ब्रह्माण्ड के साथ मानव जीवन के सम्बन्धों का निरीक्षण-परीक्षण करने की विद्या है। इस शास्त्र में पिण्ड और ब्रह्माण्ड, व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। ज्योतिर्विद मानते हैं कि एक ओर विभिन्न ग्रह,नक्षत्र,राशियाँ,मन्दाकिनियाँ, दूसरी ओर मनुष्य,प्राणी,वनस्पतियाँ,खनिज, चट्टानें आदि ब्रह्माण्डीय घटक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक-दूसरे को प्रभावित-आकर्षित करते हैं। विविध ग्रह-नक्षत्रों का मानव- जीवन पर किस तरह समवेत प्रभाव पड़ता है या वे किस तरह कष्ट दूर करते हैं या कष्ट देते हैं ?,ऐसे तमाम प्रश्नों का समाधान पाने की पारम्परिक विद्या ज्योतिर्विज्ञान है। ज्योतिष में गणित, संहिता तथा होरा ३ स्कन्ध हैं। गणित में खगोल विज्ञान और ज्योतिष गणित का समावेश है। संहिता में प्राकृतिक प्रकोप,भूकम्प,मौसम,अकाल, महामारी आदि समाहित हैं। होरा के अंतर्गत जातक के जन्मकालीन फलित ज्योतिष का वर्णन होता है। परवर्ती काल में ज्योतिष को ६ स्कन्धों में बांटा गया-गणित,संहिता,होरा, शकुन,मुहूर्त और प्रश्न। चतुर्थ स्कन्ध शकुन में पूर्वाभास,भविष्य में घटने वाली घटनाओं और तथ्यों के प्रभाव का समावेश है। पंचम स्कन्ध मुहूर्त (नक्षत्र,तिथि,वार,योग,करण) अनुकूल समय ज्ञान करने के लिए अस्तित्व में आया। षष्ठ स्कंध प्रश्न में,घटना या विचार के समय कुंडली से जानकारी लेना शामिल है। प्रश्न शास्त्र से घटना की भविष्यवाणी की जा सकती है। जाहिर है कि प्रश्नशास्त्र ज्योतिर्विज्ञान का विशिष्ट अंग है। यह तत्काल फल बताने वाले शास्त्र के रूप में मान्य है। इसमें तत्काल लग्न और ग्रह स्थिति के आधार पर व्यक्ति के मस्तिष्क में पैदा होने वाले प्रश्न और उनके शुभाशुभ फल का विचार किया जाता है। इसके आधार पर कई तरह के ग्रंथ मिलते हैं। पाँचवीं – छठी शती में केवल प्रश्नकर्ता द्वारा उच्चरित अक्षरों के आधार पर फल बतलाना प्रश्न शास्त्र के अंतर्गत आता था। एक अनुसंधान के अनुसार ज्ञान प्रश्नचूड़ामणि जैसे ग्रंथों के आधार पर आधुनिक काल में केरल प्रश्न शास्त्र की निर्मित हुई। महान खगोलशास्त्री वराहमिहिर के पुत्र पृथुयश ने ‘षटपंचाशिका’ नामक प्रश्न ज्योतिष ग्रंथ की रचना की थी, एक मान्यता के अनुसार उसी के बाद प्रश्नलग्न वाले सिद्धांत का भारत में तेजी से प्रचार हुआ। ९ वीं से ११ वीं शती में इस सिद्धांत को विकसित होने के लिए पूर्ण अवसर मिला,जिससे अनेक स्वतंत्र रचनाएं भी इस विषय पर लिखी गईं। इस शास्त्र के स्वरूप में उत्तर मध्यकाल तक अनेक संशोधन और परिवर्तन होते रहे है। प्रश्नकर्ता की चर्या,चेष्टा,हाव-भाव आदि द्वारा मनोगत भावों का वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करना भी इस शास्त्र के अंतर्गत आ गया। भोज कृत विद्वज्जनवल्लभ इसी परम्परा का लघुकाय ग्रन्थ है। भोज ने प्रश्न लग्न के आधार पर मनुष्यों के शुभ-अशुभ कथन की पद्धति अपनाई है। वे जन्मकाल के सदृश प्रश्नकाल को भी फलादेश से युक्त मानते हैं। ग्रन्थारम्भ में भोज ने गणेश और शिव की स्तुति की है। अंत में भोज के विद्वज्जनों के प्रिय होने का संकेत मिलता है-
श्रीविद्वज्जनवल्लभाख्यमकरो च्छ्रीभोजदेवो नृपः।
भोज के विद्वज्जनवल्लभ में डेढ़ दर्जन अध्याय हैं। इनके अंतर्गत शुभ-अशुभ, आवागमन,जय-पराजय,सन्धि-विग्रह,रोग, वर्षा,बन्धमोक्ष,प्रवासी,कन्यावरण,गर्भवास, धन आदि विषयों के प्रश्नफल दिए गए हैं। ग्रन्थकार के सामने पूर्व के अनेक विद्वानों और प्रश्नशास्त्रियों के ग्रन्थ रहे हैं। वह अपने मत की पुष्टि के प्रमाण रूप में कश्यप,पराशर आदि का उल्लेख भी करता है,काश्यपाद्या मुनीन्द्राः,पराशराद्याः प्रथमे महर्षयः या फिर प्रश्नशास्त्रार्थविद्भिः।
भारत के गौरवशाली राजा भोज तथा अन्य परमार नरेशों का विद्याप्रेम सुस्थापित तथ्य है। उनकी विद्वत् सभा में उव्वट,धनपाल, हलायुध,पद्मगुप्त,चित्तप,अमितगति,धनंजय, केशव, निचुल,शुभचन्द्र,नेमिचन्द्र,प्रभाचंद्र जैसे मनीषी थे। ये सभी अलग-अलग ज्ञानानुशासनों से जुड़े मनीषी थे, जिन्होंने भारतीय विद्याओं के विकास में अविस्मरणीय योगदान दिया है।
परमार वंश की विद्वत्सभा में धनपाल की प्रसिद्धि प्राकृत कोशकार के रूप में थी। उनके द्वारा रचित पाइय-लच्छी नाममाला सर्वप्राचीन कोश है। इस ग्रंथ की प्रशस्ति में ही ग्रंथकार ने सूचित किया है कि उन्होंने यह रचना अपनी कनिष्ठ भगिनी सुंदरी के लिए धारानगरी में वि. सं. १०२९ में की,जबकि मालव नरेंद्र द्वारा राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट को लूटा गया था। यह घटना अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों से भी सिद्ध होती है। धनपाल की यह नाममाला अमरकोश की रीति से २५० प्राकृत गाथाओं में रचित है। इसमें लगभग १ हजार प्राकृत शब्दों का उनके पर्यायवाची शब्दों सहित संकलन किया गया है। अधिकांश नाम और उनके पर्यायवाची तद्भव हैं। वास्तविक रूप में देशी शब्द अधिक से अधिक पंचमांश ही होंगे, लेकिन भारतीय शब्द कोश परम्परा में इसका विशेष महत्व है।
हलायुध या भट्ट हलायुध (लगभग १० वीं शताब्दी ई.) भारत के प्रसिद्ध ज्योतिर्विद, गणितज्ञ और वैज्ञानिक थे। उन्होंने ‘मृतसंजीवनी’ नामक ग्रन्थ की रचना की,जो पिंगल के छन्दशास्त्र का भाष्य है। यह पहले राष्ट्रकूट की राजधानी मान्यखेट में कृष्णा तृतीय के आश्रय में रहते थे। बाद में परमार वंश के आश्रय में उज्जैन में रहने लगे। यहीं उन्होंने मृतसंजीवनी की रचना की, जिसमें पास्कल त्रिभुज (मेरु प्रस्तार) का स्पष्ट वर्णन मिलता है।
हलायुध द्वारा एक कोश की भी रचना की गई थी,जिसका नाम अभिधानरत्नमाला है,लेकिन यह हलायुधकोश नाम से अधिक प्रसिद्ध है। इसके ५ कांड (स्वर,भूमि,पाताल, सामान्य और अनेकार्थ) हैं। प्रथम चार पर्यायवाची कांड हैं। पंचम में अनेकार्थक तथा अव्यय शब्द संकलित हैं। इसमें पूर्वकोशकारों के रूप में अमरदत्त,वरुरुचि, भागुरि और वोपालित के नाम उद्धृत हैं। इस कोश में रूपभेद से लिंग-बोधन की प्रक्रिया अपनाई गई है। ९०० श्लोकों के इस ग्रंथ पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव जान पड़ता है। कविरहस्य भी इनके द्वारा रचित है,जिसमें ‘हलायुध’ ने धातुओं के लट्लकार के भिन्न भिन्न रूपों का विशदीकरण भी किया है।
आचार्य अमितगति (ई. सन् ९८३- १०२३) जैन धर्म के महान विद्वान थे। उनके द्वारा संस्कृत छंदों में अमितगति श्रावकाचार ग्रन्थ की रचना की गई थी, जिसमें १५ परिच्छेद और १३५२पद्य हैं। यह ग्रन्थ धर्म विषयक है,जिसमें जैन श्रावकों के पालन के लिए विविध आचारों को वर्णित किया गया है। इस ग्रन्थ में उपदेशों के पहले पूर्ववर्ती आचार्य समंतभद्र,वसुनंदी,चामुंडराय आदि की पद्धतियों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु के अंतर्गत नरजन्म, धर्म का माहात्म्य, एकांतमतवाद का खंडन, पंच अणुव्रत-अहिंसा,सत्य,अचौर्य,परस्त्री त्याग एवं परिग्रहप्रमाण; तीन गुणव्रत-दिगव्रत,अनर्थदंड एवं भोगोपभोग परिणाम; चार शिक्षाव्रत-देशावकाशिक,सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य,व्रत माहात्म्य, दान,पूजा,शील,उपवास का स्वरूप,जिनेश्वर और सिद्धों की महिमा,बारह अनुप्रेक्षा, समाधि,मरण इत्यादि का विशद वर्णन किया गया है। उन्होंने धर्मपरीक्षा और सुभाषितरत्‍नसंदोह ग्रन्थों की भी रचना की थी।
अमितगति द्वारा रचित सुभाषितरत्‍नसंदोह ग्रन्थ अपने नामानुरूप सुभाषित श्लोक रूपी रत्नों से सम्पन्न रत्नाकर है। इसमें दृष्टांत और रूपकों के माध्यम से काव्यात्मक शैली में आत्मा या जीव को ग्रसित करने वाले विविध मनोविकारों-क्रोध,माया, अहंकार,लोभ,शोक और पंचेंद्रिय,जीव की अवनति करने वाले मद्य,मांस,मधु, काम,द्यूत आदि से मुक्ति की राह दिखाई गई है। सांसारिक विषय कितने क्षुद्र हैं,जीव के हितकारी मित्र सज्जन,दान, देव,गुरु,धर्म,चारित्र्य क्या हैं,इनकी विस्तृत विवेचना करते हुए श्रावक धर्म का निरूपण किया गया है।
पद्मगुप्त धारा नगरी के सिंधुराज के ज्येष्ठ भ्राता और राजा मुंज (९७४-९९८)के आश्रित कवि थे। इनका समय ११ वीं शती ई के लगभग माना जाता है। पद्मगुप्त ने संस्कृत साहित्य के सर्वप्रथम ऐतिहासिक महाकाव्य की रचना की थी। इस महाकाव्य का नाम ‘नवसाहसाङ्कचरित’ है। अलंकृत शैली की यह रचना इतिहास एवं काव्य दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस महाकाव्य के १८ सर्ग हैं। इसमें काल्पनिक राजकुमारी शशिप्रभा के प्रणय की कथा स्पष्ट रूप से वर्णित है, परंतु यह काव्य मालवा के राजा सिंधुराज नवसाहसांक के चरित का भी वर्णन श्लेष के द्वारा उपस्थित करता है। इसमें सिंधुराज के पूर्वजों अर्थात् परमार वंश के यशस्वी राजाओं का वर्णन भी प्राप्त होता है। पद्मगुप्त की इस कृति पर महाकवि कालिदास के काव्य का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। कालिदास के अनुकरण पर इस ग्रंथ की रचना भी वैदर्भी शैली में हुई है। इसीलिए पद्मगुप्त को ‘परिमल कालिदास’ भी कहा गया है। धनिक और मम्मट ने अपने ग्रन्थों में इन्हें उद्धृत किया है।
ज्ञान की ऐसी कोई शाखा नहीं,जिससे धार के परमार वंश की विद्वत्सभा का संबंध न रहा हो। नाट्यचिंतन की भारतीय परम्परा के विलक्षण ग्रन्थ ‘दशरूपक’ के लेखक विष्णुपुत्र धनंजय परमार शासक मुंजराज (९७४-९९४ई.) के सभासद थे। दशरूपकम् नाट्य के दशरूपों के लक्षण और उनकी विशेषताओं को प्रस्तुत करने वाला विशिष्ट ग्रंथ है। अनुष्टुप छंद में रचित दसवीं शती के इस ग्रंथ में रचनाकार धनंजय ने भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से बहुत से विचार लिये हैं। दशरूपक में कुल चार अध्याय हैं,जिन्हें ‘आलोक’ कहा गया है। धनंजय कृत दशरूपक और उस पर धनिक कृत अवलोक टीका नाट्यालोचन पर सर्वमान्य ग्रंथ है। धनिक दशरूपक के रचयिता धनंजय के भाई थे। दोनों भाई मुंजराज की सभा के विदग्ध पंडित थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि राजा मुंज ने उन्हें एक ग्राम दान में दिया था। दशरूपक के प्रथम प्रकाश के अंत में ‘इति विष्णुसूनोर्धनिकस्य कृतौ दशरूपावलोके’ इस निर्देश से स्पष्ट संकेत मिलता है कि धनिक दशरूपक के रचयिता विष्णुसुत धनंजय के ही भाई थे। मुंज (वाक्पतिराज द्वितीय) और उसके उत्तराधिकारी सिंधुराज (९९४-१०१८) के शासनकाल के अनुसार इनका समय ईसा की दसवीं शताब्दी का अंत और ग्यारहवीं का प्रारंभ माना जाता है। दशरूपक को ‘मुंजमहीशगोष्ठी’ के विद्वानों के मन को प्रसन्नता और प्रेम से निबद्ध करने वाला कहा गया है। धनिक द्वारा इसकी ‘अवलोक’ नाम की टीका मुंज के उत्तराधिकारी सिंधुराज के शासनकाल में लिखी गई। अवलोक के अतिरिक्त दशरूपक पर एक और प्राचीन टीका बाहुरूप मिश्र द्वारा प्रणीत उपलब्ध है, जो अब तक अमुद्रित ही है।
धनंजय कृत दशरूपक में दिए हुए लक्षणों के उद्धरण प्राय: सभी प्राचीन व्याख्याकारों ने दिए हैं। दशरूपक मुख्यत: भरत के नाट्यशास्त्र का अनुगामी है और उसका एक प्रकार से संक्षिप्त रूप है। दशरूपक की प्रतिपादन शैली अत्यंत सुगम एवं सुस्पष्ट है। यह ग्रंथ संक्षिप्त होते हुए भी विषय का सम्यक् विवेचन करता है। इसके ४ आलोक और लगभग ३०० कारिकाएँ हैं। ४ प्रकाशों में से प्रथम ३ में क्रमशः वस्तु,नेता(नायक, नायिका आदि) एवं रसों का सविस्तार विवरण है। अंतिम आलोक में रसास्वादन की प्रक्रिया को प्रस्तुत करते हुए धनंजय ने रसप्रतीति को व्यंजना से गम्य नहीं माना है,वरन उसे वाच्यवृत्ति का ही विषय माना है (दशरूपकम् खण्ड ४-२७)। व्यंजनावाद के खण्डन के कारण ये भी ध्वनि विरोधियों में प्रमुख स्थान रखते हैं। काव्य नाट्य के साथ रसादि का संबंध भावक-भाव्य का है। इस दृष्टि से वे भावकत्ववादी हैं। दशरूपककार ने अभिनेता में भी काव्यार्थ भावना से जनित रसास्वाद की संभाव्यता स्वीकृत की है। मौलिक रूप से दशरूपक की यह सैद्धांतिक विशेषता है। नाट्य तत्वों की परिभाषा में भी दशरूपक के लक्ष्यलक्षण भरत के अभिप्राय से अनेकत्र भिन्न है, जिससे प्रतीत होता है कि धनंजय की उपजीव्य सामग्री भरत से इतर कहीं और होगी। आज दशरूपक नामक ग्रंथ अनेक संस्करणों में उपलब्ध है।
दशरूपक में रंगमंच पर विवेचन नहीं किया गया है और न धनिक ने ही इस पर विचार किया है। धनिक की टीका गद्य में है और मूल ग्रंथ के अनुसार ही है। अनेक काव्यों और नाटकों से संकलित उदाहरण आदि द्वारा यह मूल ग्रंथ को पूर्ण,बोधगम्य और सरल करती है। कुछ परवर्ती विद्वानों ने धनिक को ही ‘दशरूपक’ का रचयिता माना है और उन्हीं के नाम से ‘दशरूपक’ की कारिकाएँ उद्धृत की हैं,किन्तु यह भ्रमात्मक है।
धनिक अभिधावादी और ध्वनिविरोधी हैं। रसनिष्पत्ति के संबंध में वे भट्टनायक के मत को मानते हैं,पर उसमें भट्ट लोल्लट और शंकुक के मतों का मिश्रण कर देते हैं। इस प्रकार इनका एक स्वतंत्र मत हो जाता है। दशरूपक के चतुर्थ प्रकाश में धनिक ने इस पर विस्तृत रूप से विचार किया है। नाटक में शांत रस को धनिक ने स्वीकार नहीं किया है और ८ रस ही माने हैं। शांत को ये अभिनय में सर्वथा निषिद्ध करते हैं,अत: शम को स्थायी भी नहीं मानते।
धनिक कवि थे और इन्होंने संस्कृत – प्राकृत काव्य की रचना भी की है। ‘अवलोक’ में इनके अनेक ललित पद्य इधर – उधर उदाहरणों के रूप में बिखरे पड़े हैं। ‘अवलोक’ से ही यह भी ज्ञात होता है कि धनिक ने साहित्यशास्त्र का एक ग्रंथ और लिखा जिसका नाम ‘काव्यनिर्णय’ है। दशरूपक के चतुर्थ प्रकाश की ३७वीं कारिका की व्याख्या में धनिक ने ‘यथावोचाम काव्यनिर्णये’ कहा है और उसकी ७ कारिकाएँ उद्धृत की हैं। इनमें व्यंजनावादियों के पूर्वपक्ष को उद्धृत कर उनका खंडन किया गया है। भोज आदि परमार शासकों ने जहाँ अपने आश्रय में कवियों को प्रोत्साहित किया,वहीं काव्यशास्त्र को विकसित करने में भी अद्वितीय योगदान दिया। धनजंय और धनिक का महत्त्वपूर्ण कार्य इस बात का साक्ष्य देता है।
भोज सहित परमार वंश के विभिन्न शासकों ने प्रायः सभी धर्म और पंथों से जुड़े मनीषियों को राज्याश्रय दिया था। उनके यहाँ जहाँ वैदिक और आगमिक परम्परा के विद्वान प्रश्रय पाते थे,वहीं श्रमण परम्परा से जुड़े मनीषियों और साधकों ने भी अपना श्रेष्ठतम दिया। दिगम्बर जैन भट्टारकों का प्रमुख केंद्र और पट्ट स्थान होने के कारण उज्जैन नगर जैन मुनि और आचार्यों का निवास स्थान रहा है। परमार शासकों की सभा में जैन विद्वानों को भी सम्मान प्राप्त था।
भोजयुगीन धर्म मीमांसा से जुड़े लोगों में उव्वट विख्यात वेद-भाष्यकार थे। यजुर्वेद-मंत्र-भाष्य द्वारा विदित होता है कि इनके पिता का नाम वज्रट था। साथ ही वहीं इनका जन्मस्थान आनंदपुर कहा गया है। उव्वट ने भोज के शासन काल में उज्जयिनी में रहकर शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन वाजसनेयी संहिता का सम्पूर्ण चालीस अध्यायों वाला भाष्य किया था,जो उव्वट भाष्य के नाम से सुविख्यात है। उन्होंने ऋग्वेदीय शौनक प्रातिशाख्य नामक ग्रंथ की रचना की। कुछ लोगों का कहना है कि ऋग्वेदीय शौनक प्रातिशाख्य भाष्य करने के बाद इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य भी रचा था। ‘भविष्य-भक्ति-माहात्म्य’ नामक संस्कृत ग्रंथ इन्हें मूलतः कश्मीर देश का निवासी और मम्मट तथा कैयट का समसामयिक बताता है। उव्वट की उज्जैन में स्थिति बताती है कि भोज ने अपनी गुणग्राहकता और आश्रयदाता वृत्ति से मालवा क्षेत्र को ज्ञान-विज्ञान की विविध शाखाओं के साथ अध्यात्म विद्या का भी प्रमुख केन्द्र बना दिया था।
परमार राजाओं की सभा में अनेक जैन मनीषियों को सम्मानित किया गया था। जैनाचार्य महासेन,अमितगति और शोभन मुनि मुंज की सभा के प्रख्यात जैन विद्वान थे। भोज ने भी इस परम्परा का निर्वाह किया। भोज ने अनेक जैन आचार्यों को विशेष मान दिया,उनमें शुभचन्‍द्र,प्रभाचंद्र, धनपाल आदि का नाम उल्लेखनीय है। दिगम्बर आचार्य श्री शांतिसेन ने भोज की सभा के विद्वानों को वाद विवाद में परास्त किया था। आचार्य विशाल कीर्ति के शिष्य मदनकीर्ति ने अन्य मत के लोगों पर विजय प्राप्त कर महाप्रामाणिक की उपाधि प्राप्त की थी।
जैनाचार्य श्री शुभचन्द्र(ई १००३-११६८) द्वारा संस्‍कृत श्‍लोकों में रचित ज्ञानार्णव एक आध्‍यात्मिक और ध्‍यान विषयक ग्रन्‍थ है। इस तत्त्वविवेचनात्मक ग्रंथ में ४२ प्रकरण और कुल २५०० श्‍लोक हैं। इस ग्रन्‍थ पर कई टीकाएँ लिखी गयीं। आचार्य श्रुतसागर (ई.१४८१-१४४९) ने इसके गद्यभाग पर ‘तत्त्वत्रय प्रकाशिका’ टीका लिखी,जिसमें शिवतत्त्व,गरुडतत्त्व और कामतत्त्व इन तीनों तत्त्वों का वर्णन है। दूसरी टीका पंडित जयचन्‍द छाबड़ा (ई.१८१२) कृत भाषा वचनिका है। शुभचन्द्राचार्य ने अपने ज्ञानार्णव में ध्यान के पिण्डस्थ,पदस्थ,रूपस्थ और रूपातीत भेदों का वर्णन विस्तार के साथ करते हुए मन के विक्षिप्त, यातायात,श्लिष्ट और सुलीन इन चारों भेदों का वर्णन बड़ी रोचकता और नवीन शैली में किया है।
प्रभाचन्द्र जैन साहित्य में तर्क ग्रन्थकार के रूप में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। इनके निश्चित समय काल के बारे कुछ विद्वानों में मतभेद हैं। फिर भी यह प्रसिद्धि है कि प्रभाचन्द्राचार्य का सत्कार भोज की सभा में हुआ था। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं-प्रमेयकमलमार्तण्ड (परीक्षामुख व्याख्या),न्यायकुमुदचंद्र (लघीयस्त्रय व्याख्या),तत्त्वार्थवृत्ति पद विवरण (सर्वार्थसिद्धि व्याख्या), शाकटायनन्यास(शाकटायन व्याकरण व्याख्या),शब्दाम्भोजभास्कर(जैनेन्द्र व्याकरण व्याख्या),प्रवचनसार,सरोज भास्कर (प्रवचनसार व्याख्या),गद्यकथाकोष (स्वतंत्र रचना),रत्नकरण्डश्रावकाचार टीका, समाधितंत्र टीका,क्रियाकलाप टीका, आत्मानुशासन टीका और महापुराण टिप्पण।
आचार्य माणिक्यनन्दि के शिष्य और उन्हीं के परीक्षामुख पर विशालकाय एवं विस्तृत व्याख्या ‘प्रमेयकमलमार्त्तण्ड’ लिखने वाले अद्वितीय मनीषी के रूप में वे समादृत हैं। उन्होंने अकलंकदेव के दुरूह ‘लघीयस्त्रय’ नाम के न्याय ग्रन्थ पर बहुत ही विशद और विस्तृत टीका लिखी है,जिसका नाम ‘न्यायकुमुदचन्द्र’ है। न्यायकुमुदचंद्र अपने नामानुरूप न्याय रूपी कुमुदों को विकसित करने वाला चन्द्र है। इसमें प्रभाचन्द्र ने लघीयस्त्रय की कारिकाओं,उनकी स्वोपज्ञ वृत्ति और उसके दुरूह पद-वाक्यादि की विशद व्याख्या तो की ही है,किन्तु प्रसंगानुसार विविध तार्किक चर्चाओं द्वारा अनेक अनुद्घाटित तथ्यों एवं विषयों पर भी नया प्रकाश डाला है। इसी प्रकार उन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्ड में भी अपनी तर्कपूर्ण प्रतिभा का पूरा उपयोग किया है और परीक्षामुख के प्रत्येक सूत्र व उसके पदों का विस्तृत एवं विशद व्याख्यान किया है। प्रभाचन्द्र के ये दोनों व्याख्यान ग्रन्थ मूल जैसे ही हैं। इनके बाद इन जैसा कोई मौलिक या व्याख्या ग्रन्थ नहीं लिखा गया। समन्तभद्र,अकलंक और विद्यानन्द के बाद प्रभाचन्द्र जैसा कोई जैन तार्किक हुआ दिखाई नहीं देता।
प्रभाचन्द्र का उल्लेख दक्षिण भारत के श्रवण बेलगोला शिलालेखों में हुआ है। इनका कार्यक्षेत्र मध्य भारत में धारा नगरी थी। चतुर्भुज का नाम भी इनके गुरु के रूप में आता है।
धनपाल और शोभन संकाश्य गोत्रीय सर्वदेव नामक ब्राह्मण के पुत्र थे। उन्होंने जैन धर्म का अंगीकार कर लिया था। धनपाल आरम्भ में जैन मत के विरोधी थे। कालान्तर में वे भाई शोभन से प्रभावित हुए और जैन वाङ्मय के प्रमुख मनीषी के रूप में स्थापित हुए। जाहिर है कि भोज प्रभृति परमार शासकों ने सभी मत-पंथों के विद्वानों को अपनी सभा में स्थान देकर समन्वय का परिचय दिया,जहाँ सभी सम्प्रदाय एक दूसरे को प्रेरित-प्रभावित करते हुए दार्शनिक परम्पराओं को गतिशील बनाये हुए थे।
लोक में भोज की प्रतिष्ठा सुविदित तथ्य है। उनकी तुलना पहले के समय के तीन प्रतिमानी व्यक्तित्वों से की जाती है-कर्ण,जो दानवीरता का श्रेष्ठतम प्रतिमान है। उदयन,जो चर्चित चरित नायक है और विक्रमादित्य,जो न्यायप्रियता,विद्वता और विद्याप्रेम के प्रतिमान हैं। भोज अपने विविधमुखी चरित्र और अवदान से एक तरह से इन तीनों को पीछे छोड़ते हैं। उनके सम्बन्ध में ठीक ही कहा गया है,कवियों में, शास्त्रार्थ करने वालों में, योगियों में, देहधारियों में,दानियों में,सज्जनों का उपकार करने वालों में,धनियों में और धनुर्धरों में-इस पृथ्वी पर भोज जैसा कोई अन्य राजा नहीं हुआ है।
कविषु वादिषु योगीषु देहिषु द्रविणदेषु सत्यमुपकारिषु।
धनिषु धन्विषु धर्म धनेष्वपि क्षितितले न हि भोजसमो नृपः॥
उन्होंने समरांगण सूत्रधार जैसे विशालकाय ग्रन्थ के जरिये शिल्प कला का विश्वकोशीय ग्रन्थ तो लिखा ही,उसके प्रतिमानों को साकार रूप देते हुए उज्जैन,धार और विदिशा (भाइल्लस्वामीपुर-परवर्ती भेलसा) जैसे पुरातन नगरों का नवीन नियोजन किया, वहीं भोजपुर (रायसेन),भोपाल (भोजपाल) जैसे उन्नत नगर भी बसाए। राजा भोज ने ही भोपाल में सुविशाल प्राकृतिक झील को बांधकर तालाब का रूप दिया,जो आज भी अस्तित्व में है। राजा भोज द्वारा भोपाल के निकट भोजपुर में निर्मित भोजेश्वर शिव मंदिर आज भी अतीत के वैभव की याद दिलाता है,जहां १८ फीट ऊंचा शिवलिंग प्रतिष्ठित है। मध्य प्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के प्रतीक अनेक स्मारकों में से अधिकांश राजा भोज की ही देन हैं। चाहे विश्व प्रसिद्ध भोजपुर का भोजेश्वर मंदिर हो या विश्व भर के शैव मतावलंबी लोगों की आस्था का केन्द्र उज्जैन स्थित ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर मंदिर हो या ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर,धार की भोजशाला हो या भोपाल के विशाल तालाब,ये सभी या तो राजा भोज द्वारा निर्मित हैं या उनका पुनर्निर्माण भोज ने करवाया है। उन्होंने देश के कई स्थानों,जैसे केदारनाथ,रामेश्वरम्, सोमनाथ,मुण्डीर आदि में मंदिर भी बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के अंग हैं। चित्तौड़ का समाधीश्वर मंदिर भी राजा भोज ने ही बनवाया था। इन सभी देवालयों और अन्य निर्माणों की स्थापत्य कला अद्वितीय है।
अकबर के समकालीन मुहम्मद कासिम, जिसका उपनाम फरिश्ता था,ने अपने इतिहास ग्रन्थ तारीख फरिश्ता में उल्लेख किया है कि खरकौन (खरगोन),बीजागढ़ और हिंदिया (हंडिया-हरदा) की बसाहट भोज के समय में ही की गई थी। इंसाफ़ और सखावत में राजा भोज विक्रमादित्य के तरीके पर चलता था,इस बात का जिक्र भी फरिश्ता ने किया है।
राजा भोज की कीर्ति कौमुदी यदि दिग्दिगंत व्यापी हुई तो उसके पीछे उनके सारस्वत अवदान के साथ लोक कल्याणकारी कार्यों के लिए तत्परता की भी अविस्मरणीय भूमिका रही है। भोजदेव सही मायने में एक ऐसे विद्यानुरागी थे,जिन्होंने भारतीय ज्ञान परम्परा का आलोड़न करते हुए अपनी ओर से उसे समृद्ध किया है,वहीं विविध ज्ञान शाखाओं में निपुणता लिए उनकी विद्वत्सभा ने भी इसे आगे बढ़ाया।

परिचय-आचार्य एवं विभागाध्यक्ष (हिंदी अध्ययनशाला कुलानुशासक,विक्रम विश्वविद्यालय) के रुप में कार्यरत प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का निवास उज्जैन (म.प्र) में है। आप हिंदी भाषा के लिए सक्रियता से प्रयासरत हैं।

Leave a Reply