कुल पृष्ठ दर्शन : 4306

You are currently viewing केदारनाथ सिंह की काव्य संवेदना-विविध पक्ष

केदारनाथ सिंह की काव्य संवेदना-विविध पक्ष

डॉ. दयानंद तिवारी
मुम्बई (महाराष्ट्र)
************************************

केदारनाथ सिंह के काव्य में पर्यावरणीय चिंता, प्रकृति और जीवन के उल्लास का अहसास तो है ही,हिंदी काव्य धारा में गीतकार के रूप में कवि जीवन की शुरुआत करने वाले केदारनाथ सिंह की काव्य संवेदना अत्यंत विशिष्ट रही है। वे अपने समय के पारखी कवि हैं और उनका कालबोध ही उनके काव्य को हमेशा प्रांसंगिक बनाए हुए है।
जटिल विषयों पर बेहद सरल और आम भाषा में लेखन उनकी रचनाओं की विशेषता है। उनकी सबसे प्रमुख लंबी कविता ‘बाघ’ है। इसे ‘मील का पत्थर’ कहा जाता है। केदारनाथ सिंह के प्रमुख लेख और कहानियों में ‘मेरे समय के शब्द’,’कल्पना और छायावाद’,’हिंदी कविता बिंब विधान’ और ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ शामिल हैं।
केदारनाथ सिंह की कविताओं में सबसे अधिक आया हुआ बिंब वह है जो ‘जोड़ता’ है। उन्हें वह हर चीज़ पसंद थी जो जोड़ती है। वो चाहे सड़क हो या पुल,शब्द हो या सड़क,जो लोगों को मिलाती है, उनकी आँखों में एक छवि बनकर तैरती रहती और फिर पिघलकर कविता के माध्यम से ढल जाती है।
केदार जी ‘लोक’ की शक्ति को उजागर करते हैं। लोक की सामर्थ्य को उद्घाटित करने के उद्देश्य से वे लोक संवेदना को महत्व देते हैं। कवि के शब्दों में-
‘संतन को कहाँ सीकरी सों काम
सदियों पुरानी एक छोटी-सी पंक्ति
और उसमें इतना ताप
कि लगभग पाँच सौ वर्षों से हिला रही है हिंदी को।’
‘हिंदी’ शीर्षक कविता में कवि ने भाषा को भाषा के रूप में ही देखना चाहा है। भाषा सिर्फ भाषा होती है। ‘राज नहीं भाषा’ अर्थात भाषा के सामने राज की कोई महत्ता नहीं है। उसने लिखा भी है-
‘सारे व्याकरण में
एक कारक की बेचैनी है
एक तद्भव का दु:ख
तत्सम के पड़ोस में।’
अज्ञेय के ‘तीसरा सप्तक’ के सम्पादन के समय केदारनाथ सिंह ने अपने आत्म परिचय में लिखा था कि ‘कविता,संगीत और अकेलापन,तीन चीजें मुझे बेहद प्रिय हैं। हर लंबे दिन के बाद जब लौट कर घर आता हूँ तो कुछ देर तक कमरे के दानव से लड़ना पड़ता है। पराजित कोई नहीं होता,पर समझौता भी कोई नहीं करता। शायद हम दोनों को यह विश्वास है कि हमारे बीच एक तीसरा भी है जो अजन्मा है। कौन जाने यह संघर्ष उसी के लिए हो।’ उनकी कविता के प्रत्युत्तर सदैव इसके लिए खोजी बने रहे।
उनकी पूरी कविता पूरे कवि जीवन में इसी ‘तीसरे’ की खोज यात्रा की मजमून है। जब वे इस खोज यात्रा में क्लांत हो,तो हिंदी साहित्य जगत के आलोचकों,उनके पाठकों,उनके मित्रों सभी के लिए उनके तीसरे पात्र को खोजना ही होगा। उनके काव्य में ‘तीसरा’ अलग-अलग छवियों में जगह जगह लिपटा हुआ है,जिसे खोज पाना आसान नहीं है।
केदार नाथ सिंह वस्तुत: ‘बिंबों के कवि’ थे। तीसरे सप्तक में उन्होंने कहा भी था कि कविता की बनावट के स्तर पर वह इस पर सबसे अधिक ध्यान देते हैं। वे कहा करते थे कि ‘मेरा घर गंगा और घाघरा के बीच में है। घर के ठीक सामने एक छोटा सा नाला है जो दोनों को मिलाता है। मेरे भीतर भी कहीं गंगा और घाघरा की लहरें बराबर टकराती रहती हैं। खुले कछार,मक्का के खेत और दूर-दूर तक फैली पगडंडियों की छाप आज भी मेरे मन पर उतनी ही स्पष्ट है जितनी उस दिन थी,जब मैं पहली बार देहात के ठेठ वातावरण से शहर के धुमैले और शतशः खंडित आकाश के नीचे आया।’ उन मामूरों की ओर उन्होंने खुद इशारा कर दिया था। जहां वो शहर के धुमैले परिवेश में रहकर उस तीसरे की खोज शुरू करने वाले थे।
भाषा अपने वक्त के साथ क्यों बदलती है,यह आज भी शोध और बहस का विषय है। वह क्या है कि जो भाषा की न केवल बाह्य, बल्कि आंतरिक संरचना में भी इस कदर परिवर्तन करता चलता है कि दो पीढ़ियों के बीच की भाषा में हमें चौकानेवाले अंतर दिखाई देने लगते हैं। ऐसा क्यों है कि हर पीढ़ी के साथ भाषा की कहन,उसकी गंध, तासीर और असर में बदलाव नजर आने लगता है। जाहिर है,इस सवाल का जवाब मनुष्य को ही खोजना पड़ेगा। ऐसा इसलिए भी कि भाषा का सर्जन हमेशा से वही रहा है। इन कुछ जरूरी सवालों के जवाब हमें केदारनाथ सिंह की कविताओं में जगह-जगह पुरजोर तरीके से देखने को मिलते हैं। वस्तुत: केदारनाथ सिंह का डर ‘शब्द के ठंडे पड़ जाने’ का डर था। एक अंधेरी सड़क पर जब चेहरे ढके हुए और हाथों में कोई धारदार-सी चीज लिए पांच-सात स्वस्थ और सुंदर शब्दों ने उन्हें घेर लिया तो एक ‘एक हांफता हुआ कुबड़ा-सा शब्द न जाने कहां से आया और बोला,चलो पहुंचा दूं घर!’ शब्दों में उनकी अटूट आस्था थी। उन्होंने लिखा भी-
‘ठंड से नहीं मरते शब्द
वे मर जाते हैं साहस की कमी से
कई बार मौसम की नमी से
मर जाते हैं शब्द।’
‘शब्द’ उनका प्रिय शब्द था,जो उनकी कई कविताओं में बार-बार आता है। उनके अवचेतन में ‘शब्द’ मानो कहीं गहरे धंस गया था। वे शब्द को ताकतवर बनाकर उसे सामाजिक जीवन का उत्कृष्ट हथियार बनाना चाहते थे।
केदारनाथ सिंह की कविताओं में प्रकृति के सबसे निर्मल बिंब मिलते हैं। नदी,नालों,खुले जुते पड़े हुए खेतों,पुरवा और पछुवा,चिड़िया,घास और फुनगी से वे कभी दूर नहीं जा पाए। ‘गंगा को देखते हुए’ उन्होंने सिर्फ गंगा को ही नहीं देखा,उसके किनारे खड़े एक थके बूढ़े मल्लाह को भी देखा,जो एक निष्कपट कृतज्ञता से गंगा के चंचल जल से यूँ विदा ले रहा था-
‘मानो उसकी आँखें कहती हों-
अब हो गई शाम
अच्छा भाई पानी
राम! राम।’
मुझे तो यह लगता है कि केदारनाथ सिंह की कविता बिंबों से आवेशित स्मृतियों का एक विराट तंतुमयी कोलाज है। एक के बाद एक चित्र। शब्द और संवेदना;दोनों को बचाए रखने की एक करुण जद्दोजहद। शहर में खोए इंसान को खोजने की लालसा। वही उनका ‘अजन्मा तीसरा’ है,जो शहर की रेलम-पेल में नदी की बीच धार में बने पुल को निहार रहा है।
केदारनाथ सिंह की एक कविता है ‘मुक्ति’ जो उन्होंने अपने निधन से लगभग ३१ बरस पहले १९७८ में लिखी थी। उन्होंने इस कविता में वह सारी बातें लिख दीं,जो उनके मरने के बाद भी कभी नहीं मर पाएंगी। ये बातें जिंदा रहेंगी उनके ही नहीं,बल्कि मानव मात्र की ‘परम मुक्ति’ तक-
‘मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला /
मैं लिखने बैठ गया हूँ /
मैं लिखना चाहता हूँ ‘पेड़’ /
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है / मैं लिखना चाहता हूँ ‘पानी’ /
‘आदमी’ ‘आदमी’- मैं लिखना चाहता हूँ /
एक बच्चे का हाथ /
एक स्त्री का चेहरा /
मैं पूरी ताकत के साथ /
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ /
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा /
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका /
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है /
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा /
मैं लिखना चाहता हूँ….।’
वे उन कवियों में से थे,जिन्होंने अपने ग्रामीण अंचल को कभी भुलाया नहीं। जैसे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को अपने बचपन की कुआनो नदी याद रही,वैसे ही केदारनाथ सिंह को माँझी का पुल कभी नहीं भुला। उनकी कविताओं में तालस्ताय से लेकर नूर मियाँ जैसे चरित्र आवा-जाही सहज भाव से करते रहे।
वे उन आधुनिकों में से भी थे,ख़ासे-बिरले, जिन्होंने अपनी आरंभिक गीतिपरकता को कभी छोड़ा नहीं और उसे आधुनिक मुहावरे में तब्दील किया। उनकी कविता का बौद्धिक विश्लेषण होता है,पर उन्होंने बौद्धिकता का कोई बोझ अपनी कविता पर कभी नहीं डाला।
वे ब्रिटिश कवि डाइलेन टामस,अमरीकी कवि वालेस स्टीवेन्स और फ्रेंच कवि रेने शा के प्रेमी थे। कुछ का अनुवाद भी उन्होंने किया था। अपने क़िस्म की सजल गीतिपरकता शायद उन्होंने इन कवियों की प्रेरणा में पाई थी। उनके पहले संग्रह का नाम(इलाहाबाद से कथाकार मार्कण्डेय ने अपने प्रकाशन से छापा) ‘अभी,बिल्कुल अभी’ था। उसकी ताज़गी और एक तरह की तात्कालिकता उनकी कविता में बाद में भी बराबर बनी रही। वे साधारण वस्तुओं,चरित्रों आदि को कविता में बहुत आसानी से लाकर काव्य भाषा से दीप्त कर देते थे। एक अर्थ में उनकी कविता हमेशा ही ‘अभी, बिल्कुल अभी’ बनी रही।
इसमें सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं है कि केदारनाथ सिंह की कविता राग,संसार से आसक्ति, उसे उसकी विडम्बनाओं के बावजूद उत्सव करने वाली कविता रही है। हिन्दी में उनकी पीढ़ी का शायद ही कोई और कवि ऐसा हो,जिसकी कविता शुरू से अन्त तक सुगठित कविता रही है।
अपनी कविताओं में उन्होंने मानवाधिकारों का ऐसा चित्र साझा किया है,जिसे कवि की आत्मा की आवाज कहा जाना चाहिए। उन्होंने अपनी कविताओं में कहा है कि-
‘अंत महज एक मुहावरा है’
अंत में मित्रों,
इतना ही कहूंगा
कि अंत महज एक मुहावरा है
जिसे शब्द हमेशा
अपने विस्फोट से उड़ा देते हैं
और बचा रहता है हर बार
वही एक कच्चा-सा
आदिम मिट्टी जैसा ताजा आरंभ
जहां से हर चीज
फिर से शुरू हो सकती है।’

‘छोटे शहर की एक दोपहर’
हजारों घर,हजारों चेहरों-भरा सुनसान
बोलता है,बोलती है जिस तरह चट्टान

सलाखों से छन रही है दोपहर की धूप
धूप में रखा हुआ है एक काला सूप

तमतमाए हुए चेहरे,खुले खाली हाथ
देख लो वे जा रहे हैं उठे जर्जर माथ

शब्द सारे धूल हैं,व्याकरण सारे ढोंग
किस कदर खामोश हैं चलते हुए वे लोग

पियाली टूटी पड़ी है,गिर पड़ी है चाय
साइकिल की छाँह में सिमटी खड़ी है गाय

पूछता है एक चेहरा दूसरे से मौन
बचा हो साबुत-ऐसा कहाँ है वह-कौन?

सिर्फ कौआ एक मँडराता हुआ-सा व्यर्थ
समूचे माहौल को कुछ दे रहा है अर्थ।’
इस प्रकार से लोक-विश्वास,लोक मूल्य,लोक रूढ़ियां और परम्पराओं का मनमोहक चित्रण केदारनाथ सिंह की कविताओं में देखने को मिलता है।कभी-कभी तो यह कवि बहुत बड़ी और बारीक बात कहने के लिए लोक विश्वास और लोक-संस्कृति का सहारा लेता है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि,इन लोक विश्वासों के बिना कविता की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इनकी कविता में लोक की शब्दावली का भी खूब प्रयोग मिलता है। यह कहना भी उचित होगा कि,उनकी एक कविता भी लोक शब्दावली के बिना पूरी नहीं होती। बिछल,बौर,छुअन,निहाई,दुधिया,पाहुन,
छलिया,ठनकी और हार आदि लोक शब्दों की भरमार मिलती है।

Leave a Reply