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मजहब चलें मध्यम मार्ग पर

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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भारतीय विदेश मंत्रालय ने विशेष कूटनीतिक साहस और स्पष्टवादिता का परिचय दिया है। उसने एक बयान जारी करके तुर्की के राष्ट्रपति तय्यब एरदोगन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को आड़े हाथों लिया है। भारत सरकार ने फ्रांस के राष्ट्रपति इमेनुअल मेक्रो का खुलकर समर्थन किया है। मेक्रो ने इधर इस्लामी अतिवाद के खिलाफ अपने देश में जो अभियान चलाया है, उसका समर्थन सभी यूरोपीय देश कर रहे हैं। फ्रांस के एक अध्यापक की हत्या एक मुस्लिम युवक ने इसलिए कर दी थी कि,उसने अपनी कक्षा में पैगंबर मोहम्मद के कुछ कार्टून दिखा दिए थे। यहां असली सवाल यह है कि फ्रांस या यूरोप की घटनाओं से भारत का क्या लेना-देना ? वहां के अंदरुनी मामलों में भारत टांग क्यों अड़ा रहा है ? इसके कई कारण है। पहला यह कि भारत के विदेश सचिव हर्षवर्द्धन श्रृंगला फ्रांस,जर्मनी और ब्रिटेन की यात्रा पर जा रहे हैं। इन तीनों देशों से भारत के घनिष्ठ संबंध हैं और ये तीनों देश इस्लामी आतंकवाद की मार भुगत चुके हैं। इन देशों में पूछा जाएगा कि आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार भारत है और वह इस मामले पर चुप क्यों है ? दूसरा,तुर्की और पाकिस्तान दोनों ही मिलकर कश्मीर के सवाल पर भारत पर कीचड़ उछालने से बाज़ नहीं आते तो भारत भी उनकी टांग खींचने का मौका क्यों चूके ? तीसरा,यह यूरोप का आंतरिक मामला भर नहीं है। इस्लामी उग्रवाद ने दुनिया के किसी महाद्वीप को अछूता नहीं छोड़ा है। यदि भारत में आतंकवाद की कोई घटना होती है तो यूरोपीय राष्ट्र हमारे पक्ष में बयान जारी करते हैं तो अब मौका आने पर भारत भी अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है। २०१५ में फ्रांसीसी पत्रिका ‘चार्ली हेब्दो’ के १२ पत्रकारों की हत्या की गई थी, तब भी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस्लामी आतंकवाद की खुली भर्त्सना की थी। ‘इस्लामी’ शब्द का प्रयोग न तब किया गया था और न ही अब किया गया है। भारत सरकार का यह रवैया राष्ट्रहित और तर्क की दृष्टि से ठीक मालूम पड़ता है,लेकिन यह अधूरा भी लगता है। भारत जैसे महान सांस्कृतिक राष्ट्र से यह आशा की जाती है कि वह यह सीख उन्हें दे कि वे दूसरों की भावना का भी सम्मान करें। यदि पैगंबर मोहम्मद के चित्र या कार्टून से मुसलमानों को पीड़ा होती है तो ऐसे काम को टालने में कौन-सी बुराई है या हानि है ? कौन-सी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इससे खत्म होगी ? दूसरों का दिल दुखाना ही क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ? किसी भी संप्रदाय या मजहब के गुण-दोषों पर आलोचनात्मक बहस जरुर होनी चाहिए लेकिन उसका लक्ष्य उनका अपमान करना नहीं होना चाहिए। तुलसीदास जी का यह कथन ध्यातव्य है-‘परहित सरिस धरम नहिं भाई,परपीड़ा सम नहिं अधमाई।’ यह सही समय है जबकि यूरोपीय राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र अतिवाद को छोड़ें और मध्यम मार्ग अपनाएं। ईसा मसीह और पैगंबर मोहम्मद के प्रति सच्ची भक्ति इसी मार्ग में है।

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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