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शांति हेतु भगवान महावीर के उपदेश आज भी सार्थक

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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ढाई सौ साल से अधिक वर्षों के बाद भी भगवान महावीर के उपदेश आज भी क्यों सार्थक हैं ? इतने समय में कितनी परीक्षाएं न ली गई होंगी,कितने मनन-चिंतन नहीं हुए होंगे.. ? कितने युद्धों का सामना उनके विचारों ने नहीं किया होगा ? उसके बाद भी आज शाश्वत हैं,क्यों ?
किसी भी धर्म-दर्शन की किलाबंदी उसके सिद्धान्तों से होती हैं। सिद्धान्त यदि समय की धारा में,कसौटी में खरे उतरते हैं,तभी वे उपदेश-सिद्धान्त अमिट होते हैं। ऐसा नहीं कि,वर्तमान में ही ऐसी विषम परिस्थिति हुई है। पूर्व में भी बहुत उतार-चढ़ाव जाति,धर्म, संप्रदाय-सामाजिक व्यवस्थाओं में आए होंगे और तत्कालीन स्थितियों में कोई न कोई दर्शन ने सहायता की होंगी। जैन दर्शन में चिंतन की अपूर्व शक्ति है,जिसके कारण कोई न कोई सिद्धान्त,चिंतन ने मानव संस्कृति को सुरक्षित रखने का प्रयास किया होगा।
वर्तमान में भगवान् महावीर के सिद्धान्तों की क्यों आवश्यकता है ? इस समय सामाजिक,धार्मिक,राजनीतिक,आर्थिक,
मानसिक,चारित्रिक गिरावट की जितनी अधिक वृद्धि हुई है,जिसके कारण विश्व के साथ देश,समाज,परिवार और व्यक्तिगत संघर्ष का दौर चल रहा है। आज हिंसा,झूठ, चोरी,कुशील परिग्रह के कारण मानसिक, शारीरिक,आर्थिक नैतिकता का ह्रास होने से मानवता-मानवीय मूल्यों पर जो कुठाराघात हो रहा है,उसकी नींव में अहिंसा,सत्य, अचौर्य,ब्रम्हचर्य और अपरिग्रह को हमने अस्वीकार किया है। आज विश्व के अंदर जितने भी अपराध होते हैं,वे कुल पांच हैं। भगवान् महावीर ने पञ्च व्रत और महाव्रत के अलावा विश्व को तीन अद्वितीय सूत्र दिए,वे हैं-अनेकांतवाद-स्याद्वाद,अपरिग्रहवाद और अहिंसा। यदि आज इनके ऊपर चलना शुरू कर दें तो विश्व की अनेक समस्याएं समाप्त हो जाएँगी,बशर्ते उन्हें हम ईमानदारी से स्वीकारें।
आज हिंसा का बोलबाला इतना अधिक है कि,अहिंसा को साँस लेना मुश्किल हो रहा है। ये हिंसाएं शारीरिक,मानसिक,वाचनिक , आर्थिक हैं। आज के समय खून-खराबा बहुत सहज हो रहा,मानवीय मूल्यों का कोई स्थान नहीं,आतंकवाद,हथियारों का निर्माण,एक-दूसरे देशों पर आधिपत्य के कारण एवं नित्य नए हथियारों के निर्माण से पूरा विश्व भयग्रस्त है। इस कारण समाज में,व्यक्ति में तनाव और व्यर्थ कोशिश के कारण अवसाद हो रहा है। आज ग़लतफ़हमी एवं जलन आदि कितने प्रकार की हिंसाओं से हम जुड़े हैं,और इलाज़ बाहर ढूंढ रहे हैं जबकि हम यदि अहिंसा को अपने जीवन में उतार लें तो बहुत हद तक शांति स्थापित हो सकती है। आज जहाँ कहीं भी युद्ध-अशांति होती है,तो उसके बाद हमें अहिंसा-शांति की जरुरत पड़ती हैं। मानव जाति ने अभी तक लाखों युद्ध भोग लिए,उसके बाद अहिंसा ने ही हल निकाला,जिस कारण हम आज भी ज़िंदा हैं। आज भी मध्य एशिया में युद्ध हो रहे हैं,उसके बाद भी शांति वार्ता क्यों होती हैं ? संयुक्त राष्ट्र संघ क्यों शांति की पहल करता है ? इसलिए अहिंसा शांति का मूल आधार है।
अनेकान्तवाद समस्त विवादों की कारगर दवा है। बस एक-दूसरे के भावों को,विचारों को आदर दो। कोई भी वस्तु सर्वांगीण सत्य नहीं हैं। यदि व्यक्ति अपने जीवन में ‘ही’ शब्द की जगह ‘भी’ का उपयोग सीख ले तो समस्त विवाद स्वयं शांत हो जाएंगे। आप ही बड़े नहीं हैं,आप किसी की अपेक्षा बड़े हैं तो किसी की अपेक्षा छोटे हैं। आज अहमवादी भावना-प्रवृत्ति के कारण मनोमालिन्यता होती हैं और एक-दूसरे को ललकारते हैं। यदि यहाँ इस बिंदु पर आप ‘भी’ का उपयोग करेंगे तो शांति स्थापित होगी।
सरकार को ‘नोटबंदी’ का कदम क्यों उठाना पड़ा,कारण कुछ लोगों के पास असीमित धन संचय और किसी के पास अभाव। आज हथियारों की होड़ होने के बाद भी सब सीमितता पर अड़े रहते हैं। अपरिग्रहवाद संयम का पाठ सिखाता है।इसका सम्बन्ध समाज,देश में असंतुलन के कारण जो वैमनस्यता पैदा होता है,उस पर यह नियामक का काम करता है।
भगवान महावीर ने परिग्रह को अस्वीकार नहीं किया,पर एक सीमित स्थिति में रहे। आज कालाधन असीमित है,तो सरकार को कठोर कदम उठाने पड़े। इसका मतलब आज भी अपरिग्रहवाद की आवश्यकता है।
उपरोक्त परिप्रेक्ष्य से यह सन्देश मिलता है कि, यदि व्यक्ति,परिवार,समाज,देश और विश्व इन सिद्धान्तों का पालन उदारता के साथ विशुद्ध भावों से,विशालता का परिचय देकर करे तो बहुत हद तक हम समग्र शांति-अहिंसा स्थापित कर सकते हैं। इस कारण भगवान् महावीर के सिद्धान्त वर्तमान में भी उतने उपादेय हैं,जितने आज से पच्चीस सौ साल पहले थे,कारण ये पूर्ण शाश्वत और वैज्ञानिक हैं,और व्यवहारिक धरातल में उपयोगी हैं।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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