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मास्साब!!

कर्नल डॉ. गिरिजेश सक्सेना ‘गिरीश’
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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शिक्षक दिवस विशेष………..

        मास्टर शंकर प्रसाद एक गंभीर,सधे एवं साधारण व्यक्तित्व के धनी,५८  के होने में चंद दिन बाक़ी। `हर बात को अब जो होगा सो होगा`,कह कर हवा में उड़ा देने वाले `मास्साब` आज चिन्तित बैठे थे। उनकी मास्टर की नौकरी का अंतिम माह चल रहा था। मास्साब ने १८/२० की उम्र में आठ जमात पास कर मास्टरी की नौकरी पाई थी। दिन,महीने,साल-दर-साल ३८ बरस गुज़र गए तहसील बैरसिया के गाँव रतुआ,शुकलिया,हर्राखेड़ा,दिल्लोद और भी दीगर गावों की ख़ाक़ छानते। बच्चे से लेकर अधेड़ तक,उनके शिष्य हर गाँव में मौजूद थे। उनके पढ़ाए अब प्रौढ़ से आगे निकल गए थे। एक ज़माना वह भी था गुरु के सम्मान का,गाँव की हाट से गुज़र जाए तो बड़े-बड़े लोग भी रास्ते से हट कर मास्साब को रास्ता देते थे,पढ़ाए हुए लोग सामने आने से पहले जूते उतारते और ज़मीन पर साष्टांग दंडवत करते। पूरा जीवन मान-सम्मान और साख के साथ बिताया था मास्साब ने। ख़ैर,वख़्त अपनी रफ़्तार चलता है,गुनगा उनका आखरी पड़ाव था पिछले दस साल से,ऐसा लगता ही नहीं था,जैसे वे कहीं बाहर गाँव से आए थे।   

      अभी पिरभू आया था,पिरभू साहू;सरपंच है गाँव का पिछले तीन साल से। मास्टर शंकर प्रसाद पिछले बार जब गाँव में टीचर आ ए थे पिरभु स्कूल में सातवीं में पढ़ता था,फिर वे तबादला होने पर चले गए। दुबारा जब बदली हो कर आए तो पिरभू बड़ा हो गया था,उसके पिता रामनारायण शांत हो गए थे। सुबह बस से उतर कर सीधे स्कूल ही आ गए थे,वहीं एक कमरे में पेटी बिस्तर रख तैयार हुए और क्लास में आ गएl उनके आने कि खबर सारे गाँव में खुशबू-सी फ़ैल गयीl पिरभू उनके पास स्कूल में आया था,` मास्साब फिर आ गए`,गाँव के भाग खुल गए। मेरी कुटिया पवित्तर कीजो,डेरा किते और ना डरिओ। अम्मा (मास्टरनी अम्मा) अबे का उतै है का ? इते कबे आहें ? शंकर प्रसाद जी ने कहा-'हाँ घर ले लूंगा तब लाऊंगा।` 

मास्साब में तुमरो बक्सा बिस्तर ले जा रओ,रोटी उतई खइयो लुगाई बना ले हे कह कर वह बक्सा बिस्तर ले कर चला गया।

        मास्टर शंकर प्रसाद स्कूल की छुट्टी हुई तो चल पड़े पिरभू के घर की ओरl गुनगा उनका देखा भाला था,छोटा था गाँव। इतने दिनों में कोई खास बदलाव भी नहीं हुआ था। हर्षाये पिरभू ने आगे बढ़ कर अगवानी की,बाहर की टिपटरिया पर बिठाया,पैर से जूते निकाल पंजों को हौले-हौले दबाने लगा। पिरभू की पत्नी इतने में एक लोटा पानी ले आयी,साथ में तगाड़ी। पिरभू ने उनके पांव धोए और बोला-`चलो मास्साब,हमरी कुटिया पवित्तर करोl` दालान में ही बिस्तर बिछा था,बोला,-`थोड़ा आराम कल्लो, फिर भोजन करेंगे।` 

     घंटा बीत गया होगा,साँझ ढल रही थी दिया बाती का वक़्त हो चूका थाl पिरभू ने आकर बोला,-`मास्साब भोजन कल्लें का ?` मास्साब ने हाँ में सर हिला दिया। उन दिनों गोधुली में दिन सिमट जाता था,रौशनी के नाम पर कोने में लटकी लालटेन या ताख में रखी केरोसिन की टिमकी होती थी,अतः गोधूली के घंटे आधे घंटे में खाना-वाना निपट जाता थाl पिरभू ने सामने एक पटा चौकी रख दीl पिरभू की पत्नी घूंघट में लिपटी एक थाली में दाल-भात परोस लाई थी,एक कटोरी भर शुद्ध घी। मास्टर साहब ने कहा-`पिरभू तुम नहीं खाओगे ?` पिरभू बोला-`मास्साब आप खाओ,हम बाद में परसाद ले लेंगे।` 

        भोजन हुआ तो पिरभू बोला-`मास्साब ऊपरे चलो,तुमरो सोनो बिछौनो ऊपरे करो है।` मास्टर जी बोले-`पिरभू तुम्हारा रहना ऊपर हैl मैं यहीं ठीक हूँ,एकाध दिन में कहीं कमरे का बंदोबस्त करवा दो।`  

जै का बात भई ? उलाहने के साथ पिरभू बोला,-मास्साब तुमरो इत्तो बड़ो घर पड़ो है जे का लई ? ऊपर को कमरो अटारी तुमरे काजे खाली कर दओ हैl मास्साब को कुछ अटपटा लगा,ऊपर का हिस्सा ज़्यादा अच्छा थाl कायदे की बात उसमें घर मालिक को रहना चाहिए,सो बोले,-नहीं प्रभू तुम ऊपर रहो मैं नीचे रहूँगा,किराया कितना होगा ?. पिरभू कुछ खिस्सयाई-सी हँसी के साथ बोला,-कैसी बात करो हो मास्साब ? हम तुमरे चरनन में पड़े रहें हमरे भाग जगे,तुम्हें नीचे राख के का पाप के भागी बन्हें का ? और किराओ की का बात करहो तो सब तुमरे चरनन को परताप हैl' सब राजी-खुसी हैl खैर मास्साब की एक न चली,ऊपर गए तो देखा घर करीने से लीप-पोत कर उनके रहने को तैयार किया गया था।

        थोड़े दिन का वक्त बीता,मास्टर साहब छुट्टी लेकर दुसरे गाँव गए और पत्नी को ले आये,दो बैल गाड़ियों में सामान भी आ गया। मास्टर साब पहले यहाँ रह चुके थे , उन्हें और उनकी पत्नी को गाँव के बूढ़े-पुराने प्रौढ़ सभी जानते थे। 

      समय के पंख नहीं दिखते,एक पड़ाव से दुसरे पड़ाव कब निकल जाते हैं,पता ही नहीं चलता। दस साल कहाँ गये पता ही नहीं चला। यूँ तो नौकरी के अड़तीस-चालीस साल निकल गये पता नहीं चला,पर ये बरस गुनगा में कब,कहाँ कैसे गये क्या बतायें। बस हफ्ता-दस दिन ही तो रह गए फिर उसके बाद...? शून्य सा नज़र आ रहा था उन्हें। उस दिन जो पिरभू उन्हें पैरों में पड़ कर,बक्सा बिस्तर उठा कर अपने घर लाया था,ऊपर की मंज़िल पर बसाया था,आपके चरणों तले रहूँगा कह रहा था;आज इशारों-इशारों में `मास्साब रिटायर हो कर कहाँ रहोगे ?` कह गया। बात सच थी मास्टर साहब ने बच्चों को पढाने के अलावा इस विषय पर कभी सोचा भी नहीं था। मास्टर साहब सीधे- सादे,मास्टरनी बाई तेज़तर्रार;ज्वालामुखी की तरह फ़ट-फ़ट पड़ रही थी `किते जांगे इतै रेंगे पिरभू की छाती पे मूंग दलेंगे।` `

अरी भगवान चुप कर दस साल उसके घर में रहे उसका अहसान क्या ऐसे चुकाएंगे ? घर मकान उसका,उसकी मर्ज़ी।`

तो किते जांगे जेबी तो बताये कोई ? मास्टरनी के तेवर से ऐसा लग रहा था जैसे पिरभू को कच्चा चबा खायेंगी।

      प्रभू लाल साहू गाँव का  दबंग सरपंच,डर था या आदर पता नहीं पर हाँ उसके ख़िलाफ़ बोल पाए गाँव में ऐसा कोई ना था। आज उसने पंचायत बुलाई थी। सभी पंच गंभीर बैठे थे,चिंतन का विषय था रिटायरमेंट के बाद मास्टर साहब का बंदोबस्त क्या हो ? बोला-`भई कल मास्साब कने गओ थो,परेशान हैं,किते जाएँ ? का करें ? बिरजू पटेल ने सवाल दागा,-`फिर तुमने का कई ?` 

का केंगे हमइये करनो पड़े सब तो,जे पंचात का काजे बुलाई ? हम कहें पंच बोलें पंचन की मर्जी का है ? बोलो जो सबकी राय हो बताओ।

राम कोरी बोला-सरपंच जी गांव तो तुमरी मर्जी से चले हे,तुमने भी तो कछु सोचु हुए।

सो तो है पिरभू बोला,-हम पंचन की मर्जी जान लें तो अच्छो लगे,नइ तो सब कहें हम अपनी-अपनी धकात हैं। हम तो जे कहें मास्साब के गांव पे इतते उपकार हैं,बिन्ने गांव की पीढ़ियें तार दई,अब बुढ़ापे में किते जै हें। हम तो कहें बे गांव से कहीं भी ना जाएँ। बिन्ने हमरे काजे भोत करो हमरो कोई फरज नई बने का ? बिरजू पटेल,राम कोरी लखन पंडित प्रेम नाई ने सुर में सुर मिलाया,-जे कई ना बात,रे तो रये हैं तुमरे घरे और का। पिरभू पलटा और बोला,-हमरे घरे तो रे रय हैं पर उम्र गुजर गई बिनको अपनों भी तो कछु होने चय्ये।

        गांव के खेड़ापति के पुजारी जसलोक महराज इतने में आते दिखे। सभी उठ कर खड़े हो गए `पांय लागि महाराज` सबने जैसे एक स्वर में बोला। 

हाँ भैया सब लई राम राम सबको भलो करे श्री राम;और का हो रओ सरपंच जी,काय लाने पंचात बुलाई ?

प्रेम नाई बोला-पंडत जी! मास्साब लाने सोच रये,का करें ? सबई चाहें हैं मास्साब गांव छोड़ के ना जायें,पर मुश्किल जा है करीहें तो का करीहें।

पुजारी जी बोले-बात तो सौ टका सही है,का सोचे हो सरपंच जी ?

का सोचे पंडित जी,हम तो मूढ मति,तुमई कछु सुझाओ,हम तो सोच-सोच के थक गए। पंडित जी भी सोच में पड़ गए,चिंतन मुद्रा। पेशानी पर बल पड़ते घटते,ठोड़ी पर हाथ रखे सोचते-सोचते बोले-भैया हाट बाजार में थाना के सामने पंचायत की जमीन खाली पड़ी है,बई में दो कमरा काट दो। घर को घर हो जेहे बई में चार छोटी डब्बा बरनी रख लेहैं,गांव के लोगन को सौदा सुलफ मिल जेहे,मास्साब को रहबै को हीलो मिल जायगो।

प्रभु साहू बोला-पंडत जी पॉय लागूं! जे बात अक्कल की कई है। तुमने तो हमरी आँखें खोल दई हम मूढ़ मती काहे नईं सोच पाये,बोलो पंचो तुमरी का राय है ? सभी पंचों ने एक स्वर से समर्थन किया तो प्रभु साहू ने गांव के चौकीदार को कहा-रमुआ कल पटवारी भैया को बुला लियो,और सभी पंचन से बिनती है अबे मास्साब को कोई न बताइयो। काम पूरो हो जेहे तब हम मास्साब के चरणो में बिनती करहें।

        दुसरे दिन सवेरे-सवेरे ज़मीन की नपती हुई,निशानदेही हुई और गाँव के कारीगर,बढ़ई,मिस्त्री सब लग गए।  इरादा पक्का था मास्टर साहब के रिटायरमेंट के दिन मास्टर साहब को स्कूल से सीधे नए घर में ही लाया जाए। दिन-रात सुबह-दोपहर शाम सब एक कर दिए। सात दिन में दो कमरे दालान रसोई परछट्टी आँगन और एक छोटी दुकान तैयार थे। उस दिन नए मकान में पंचायत की तरफ़ से भजन-भोजन का आयोजन था। स्कूल में मास्टर साहब को चाय-पान हार-फूल के साथ बिदाई दी तो बिरजू पटेल,राम कोरी,प्रभु साहू,यूँ  कहिये पूरी पंचायत स्कूल के बाहर खड़ी थी,मास्टर साहब को भजन-भोजन आयोजन में ले जाने के लिए। मास्टर साहब की आँखों से आँसूओं की धार बेज़ार बह निकली थी। पता नहीं,मुक्ति की ख़ुशी थी या बिदाई का ग़म,गाँव वालों को देखा तो जैसे बाँध ही टूट गया। सभी गाँव वाले स्कूल के लोग भजन-भोजन कार्यक्रम के लिए निकल पड़े। 

     बहुत जोश था भजन-भोजन कार्यक्रम में,सारा गाँव जैसे उमड़ पड़ा था। स्कूल,थाना,स्वास्थ केंद्र,गाँव पंचायत सभी थे। धीरे-धीरे आयोजन समाप्ति की और था,तभी पटवारी,थानेदार और पंचों के साथ प्रभु साहू आगे आया,मास्टर साहब के चरणों में कुछ कागज़ रखे और पैर छु कर हाथ बाँध कर खड़ा हो गया। `ये क्या है पिरभू ?` मास्टर साहब हतप्रभ थे। थानेदार रतनसिंह बोला-`कुछ नहीं मास्साब ये गाँव वालों की तरफ़ से गुरु दक्षिणा है,मना मत कीजिए। इनकी बिनती है कहीं मत जाइये,यहीं रह कर गाँव के बच्चों पर कृपा बरसाते रहिए।` मास्टर साहब उस भीड़ में अपने-आपको ढूंढ रहे थे।  

     दिन बरस साल गुज़रे,मास्टरनी बाई घर का काम निपटा कर दुकान में बैठ जातीं,गाँव वालों को सौदा सुलफ देती,चार पैसे आ जाते। मास्टर साहब का घर के दालान में निःशुल्क ज्ञान-दान चलता,रात दिन अविराम।  मास्टर साहब के कोई आस औलाद तो थी नहीं;सारा गाँव उनका वंश था,वे गाँव के पितामह,और मास्टरनी बाई गाँव की जगत अम्मा;सब उन्हें अम्मा बुलाते। 

     सुइयाँ न कभी रुकी थीं,न रुकी हैं,न रुकेंगी। काल के गाल में सभी समां जाते हैं। उस दिन मैं कार्यवश बैरसिया गया था,वापसी मैं सोचा गुनगा होता चलूँ,जहाँ मेरा बचपन बब्बा साहब(मास्टर शंकर प्रसाद)की गोद खेला,दादी के प्यार में नहाया।  साठ साल का अन्तर,वो गाँव गुनगा अब भी उतना ही जीवंत है;हाँ,वो पंचायत भवन ढह गया है,थाना खंडहर है उसके एक भाग में पंचायत लगती है।  पीपल के नीचे गाँव की चौपाल जहाँ अलमस्त लोग शाम ढले भजन गम्मत करते थे, अब भी वैसा खड़ा है,बस एक छोटा-सा मंदिर बन गया है उसके  नीचे। स्कूल,बब्बा साहब की कार्यस्थली,लीपा-पोती के अलावा इतने साल बाद भी वैसा ही है। हाट बाजार पक्की सीमेंट सड़क के दोनों ओर बसा बाज़ार है। एक सुखद आश्चर्य मास्टर साहब का मकान गाँव वालों ने अब भी उसी तरह सहेज कर रखा है पर आधा भाग दूकान ,रसोई और दालान जिसमें निजी डाक घर चल रहा है,आधे मकान पर किसी ने कब्ज़ा कर तीन मंज़िला पक्का मकान बना लिया है। ढूंढने पर एक पैंसठ वर्षीय उनका छात्र मिला-पूछने पर बताया,अच्छा बूढ़े मास्साब का मकान पूछ रहे हो।


      मैं कृत कृत्य साठ साल पीछे,यादों के झरोखे से अपने बब्बा साहब,अम्मा जी का घर, आज भी वक़्त की गवाही देता शांति निकेतन और अपना बचपन देख आया।(बब्बा साहब शायद १९६८ में रिटायर हो कर अम्मा के निधन (१९८१) तक गुनगा रहे,उसके बाद १९९६ महाप्रयाण तक भोपाल रहे।)  

परिचय-कर्नल डॉ. गिरिजेश सक्सेना का साहित्यिक उपनाम ‘गिरीश’ है। २३ मार्च १९४५ को आपका जन्म जन्म भोपाल (मप्र) में हुआ,तथा वर्तमान में स्थाई रुप से यहीं बसे हुए हैं। हिन्दी सहित अंग्रेजी (वाचाल:पंजाबी उर्दू)भाषा का ज्ञान रखने वाले डॉ. सक्सेना ने बी.एस-सी.,एम.बी.बी.एस.,एम.एच.ए.,एम. बी.ए.,पी.जी.डी.एम.एल.एस. की शिक्षा हासिल की है। आपका कार्यक्षेत्र-चिकित्सक, अस्पताल प्रबंध,विधि चिकित्सा सलाहकार एवं पूर्व सैनिक(सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी) का है। सामाजिक गतिविधि में आप साहित्य -समाजसेवा में सक्रिय हैं। लेखन विधा-लेख, कविता,कहानी,लघुकथा आदि हैं।प्रकाशन में ‘कामयाब’,’सफरनामा’, ‘प्रतीक्षालय'(काव्य) तथा चाणक्य के दांत(लघुकथा संग्रह)आपके नाम हैं। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिका में प्रकाशित हैं। आपने त्रिमासिक द्विभाषी पत्रिका का बारह वर्ष सस्वामित्व-सम्पादन एवं प्रकाशन किया है। आपको लघुकथा भूषण,लघुकथाश्री(देहली),क्षितिज सम्मान (इंदौर)लघुकथा गौरव (होशंगाबाद)सम्मान प्राप्त हुआ है। ब्लॉग पर भी सक्रिय ‘गिरीश’ की विशेष उपलब्धि ३५ वर्ष की सगर्व सैन्य सेवा(रुग्ण सेवा का पुण्य समर्पण) है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-साहित्य-समाजसेवा तो सब ही करते हैं,मेरा उद्देश्य है मन की उत्तंग तरंगों पर दुनिया को लोगों के मन तक पहुंचाना तथा मन से मन का तारतम्य बैठाना है। आपके पसंदीदा हिन्दी लेखक-प्रेमचंद, आचार्य चतुर सेन हैं तो प्रेरणापुंज-मन की उदात्त उमंग है। विशेषज्ञता-सविनय है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“देश धरती का टुकड़ा नहीं,बंटे हुए लोगों की भीड़ नहीं,अपितु समग्र समर्पित जनमानस समूह का पर्याय है। क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ भाषा को हिन्दी नहीं कहा जा सकता। हिन्दी जनसामान्य के पढ़ने,समझने तथा बोलने की भाषा है,जिसमें ठूंस कर नहीं अपितु भाषा विन्यासानुचित एवं समावेशित उर्दू अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग वर्जित न हो।”

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