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महाराष्ट्र:सत्ता के लिए ‘अनैतिक सौदेबाजी’ और शर्मिंदा घोड़े…!

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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महाराष्ट्र में घोड़ों की कोई स्थानीय नस्ल नहीं पाई जाती,लेकिन राज्य में घोड़ा बाजार के नाम पर सत्ता की छीना-झपटी का जो खेल खेला जा रहा है,उससे सबसे ज्यादा शर्मिंदा अगर कोई है तो वो घोड़े हैं। घोड़े हजारों साल से मनुष्य की सेवा करते आ रहे हैं,लेकिन मानवीय दुर्गुणों और स्वार्थों का ठीकरा उनके सिर क्यों फोड़ा जा रहा है,यह स्वामी भक्त घोड़े भी समझ नहीं पा रहे हैं। महाराष्ट्र में सत्ता की दावेदार भाजपा और महाविकास आघाड़ी द्वारा सरकार बनाने के लिए विधायकों को अपने पक्ष में करने के लिए जो कुछ तिकड़मे हो रही हैं,उसे ही ‘हाॅर्स ट्रेडिंग’(अनैतिक सौदेबाजी या घोड़ा खरीदी-बिक्री) कहा जा रहा है। भाजपा और विरोधी शिवसेना तथा एनसीपी एक दूसरे पर हाॅर्स ट्रेडिंग का आरोप लगा रही हैं। यही सवाल जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से किया गया तो उन्होंने कहा कि लोग हम पर हाॅर्स ट्रेडिंग का आरोप लगा रहे हैं,लेकिन वो तो(विरोधी पार्टियां) तो अस्तबल ही ले उड़ी हैं। शाह के बयान पर कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने जवाबी टविट कर चुटकी ली कि जाॅकी (घुड़सवार)भाग गया है,घोड़े तो यही हैं। इस खेल को बारीकी से देख रही जदयू के प्रवक्ता ने ‘होई हैं वही जो राम रचि राखा’ के अंदाज में कहा कि मौजूदा (राजनीतिक) समय में हाॅर्स ट्रेडिंग सामान्य बात है।
यानी खेल सत्ता का हो तो इंसान को घोड़ा बनते और बिकते देर नहीं लगती। हालांकि, घोड़े और इंसानी तासीर में बुनियादी फर्क है। राजनीति करना और खेलना मनुष्य ने काफी देर से सीखा,लेकिन घोड़े तो इस दुनिया में साढ़े ५ करोड़ साल पहले ही आ गए थे। करीब ५ हजार साल पहले घोड़ों की काबिलियत को भांप कर मनुष्य ने उन्हें पालतू बनाना शुरू किया। तब से घोड़े मानव सभ्यता की गाड़ी अपने ढंग से खींचते आ रहे हैं। घोड़ों की खूबी यही है कि उनमें जबर्दस्त ताकत और दौड़ने का हौंसला (या ‘स्टेमिना’) होता है। घोड़े समझदार और स्वामी भक्त भी होते हैं। शासकों का वाहन होते हुए भी घोड़ों ने खुद कभी सत्ता पाने की हवस नहीं पाली। सौ साल पहले तक घोड़े युद्ध में जरूरी वाहन समझे जाते थे। घुड़सवारी तो आज भी एक कला है। घोड़ों की खासियत है कि उनकी नकेल कसी जा सकती है,बस उनकी लगाम थामे रखने की जरूरत है। लगाम सही हाथों में हो तो घोड़ा अपने मालिक के इशारों पर चलता है। इन तमाम खूबियों के बावजूद हमारे देश में घोड़ों की संख्या कम होती जा रही है,जबकि गधों के खाते में जमा बैलेंस बढ़ता जा रहा है। २०१२ की पशुगणना को सही मानें तो इस सवा सौ करोड़ आबादी के देश में घोड़ों की संख्या केवल ६२ हजार है,क्योंकि तांगों के इतिहास में जमा हो जाने से घोड़ों के पास बारात में नाचने के अलावा कोई खास काम नहीं बचा है। कुछ शौकीन लोग अभी महंगे घोड़ो को पालते हैं या फिर घुड़सवारी प्रतियोगिता में घोड़े अपना जौहर दिखाते हैं। इतना सब होते हुए भी घोड़ों के साथ हाॅर्स ट्रेडिंग जैसा नकारात्मक जुमला ऐसा चिपक गया है कि जैसे घोड़े की पीठ पर जीन,जबकि इसमें घोड़ों का स्वयं का कोई दोष नहीं है।
कहते हैं ‍कि अंग्रेजी का ‘हाॅर्स ट्रेडिंग’ जुमला भी अमेरिका में १८२० में जन्मा। वहां घोड़ों के व्यापारी कमतर किस्म के घोड़े भी बेईमानी से अच्छे बताकर दूसरों को ‍बेच देते थे। इस अनैतिक सौदेबाजी को ही ‘हाॅर्स ट्रेडिंग’ कहा जाने लगा। १८९३ में अमेरिका में न्यूयाॅर्क टाइम्स ने पहली बार ‘हाॅर्स ट्रेडिंग’ शब्द का इस्तेमाल करते हुए सम्पाद‍कीय लिखा। इसमें कटाक्ष था कि यदि कानून से झूठ का कारोबार रोका जा सकता हो तो देश में ‘अनैतिक सौदेबाजी’ का धंधा ठप ही हो जाएगा।
उधर दुनिया भर में ‘अनैतिक सौदेबाजी’ का धंधा बदस्तूर चलता रहा,लेकिन राजनीति में यही प्रवृत्ति मत हा‍सिल करने के लिए ‘अनैतिक सौदेबाजी’ या घोड़ा बाजार कहलाने लगी। सत्ता के लिए निर्वाचित प्रतिनिधियों के समर्थन के लिए बोलियां लगने लगीं। बस बिकने वाले को अपनी कीमत लगाते आना चाहिए। घोड़ों की अपनी तमाम खूबियों के बावजूद इंसानी समाज और भाषा में उन्हें कटाक्ष के तौर पर ही ज्यादा इस्तेमाल किया गया। मसलन ‘बूढ़ी घोड़ी,लाल लगाम’ या फिर ‘घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या ?’
ध्यान रहे कि घोड़ा खाता घास ही है, लेकिन बेईमानी से यारी नहीं करता। वह नेताअों की तरह रंग बदलना और उसूलों को निगलने या बदलने में विश्वास नहीं रखता। वह अपनी कोई कीमत नहीं लगाता,लेकिन सियासत में घोड़े की आड़ में सत्ता स्वार्थ की सौदेबाजी किस स्तर तक गिर सकती है,यह हम महाराष्ट्र में देख रहे हैं। यहां सत्ता पर येन-केन-प्रकरेण काबिज होना ही नैतिकता है। हर घोड़ा हर तरह की घास से यारी के लिए उधार बैठा है। हैरानी की बात यह है कि सत्ता की रस्सीखेंच में लगी भाजपा और शिवसेना-एनसीपी दोनों ही एक दूसरे पर विधायकों की ‘अनैतिक सौदेबाजी’ का आरोप लगा रहे हैं। सत्ता की लड़ाई को नैतिकता की रक्षा और लोकतंत्र की हत्या से जोड़ा जा रहा है। कुर्सी के लिए जहां एक तरफ नियम-कानून को अपने हिसाब से मरोड़ा जा रहा है,तो दूसरी तरफ सत्ता की खातिर किसी की भी कसम खाई जा रही है। यह भी कहा गया ‍कि ये महाराष्ट्र है,यहां ‘अनैतिक सौदेबाजी’ नामुमकिन है,पर पर्दे के पीछे वहां ‘अनैतिक सौदेबाजी’ चल रही है या नहीं,चल रही है तो कौन-सा घोड़ा किसके खेमे में जाने वाला है,यह अभी भी दावे के साथ कहना मुश्किल है। अलबत्ता दोनो खेमों को इस बात का डर सताए जा रहा है कि कौन किसके घोड़ो को घास डाल रहा है और कौन अस्तबल ही ले उड़ा है,पर नेता घोड़ों के नाम पर जो खेल खेल रहे हैं,उससे सबसे ज्यादा दुखी कोई है तो वो बेचारे घोड़े हैं,जिन्होंने उसूलों की पाबंदी की न तो कोई शपथ ली,न ही ऐसा कोई दावा किया बावजूद इसके उन्होंने कभी मालिक से बेईमानी भी नहीं की। दुखी वो आम जनता भी है,जिसने सत्ता की रस्सी यह सोचकर नेताओं के हाथ सौंपी थी कि वो घोड़ों से कुछ तो सीख लेंगे।

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