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पापड़ बेलने से ज्यादा मुश्किल अब ‘कचोरी’ बनाना-बेचना…

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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सरकार कर-चोरी सख्‍ती से रोके,कड़े कानून बनाए, लेकिन कचोरी के साथ तो ऐसा सलूक न करे। भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने हाल में नया फरमान जारी किया है कि,अगर आप छोटे कचोरी वाले हैं तो भी इसके लिए लायसेंस अब दिल्ली से मिलेगा। ऐसे दुकानदारों को अपने यहां बीएससी(रसायनशास्त्र)उत्तीर्ण युवक को तकनीकी प्रभारी के रूप में नियुक्त करना होगा। इसके लिए सरकार ने दुकान के स्वामित्व अधिनियम में बदलाव कर दिए हैं। नतीजतन अब कचोरी,पापड़,बड़ी,भजिए आदि बनाकर बेचना आसान नहीं रह गया है। अब कचोरी बनाने वाले बनाने वाले को ७५०० रुपए फीस देकर खाद्य अनुमति(लायसेंस)के लिए ऑनलाइन आवेदन करना होगा (अभी मात्र १०० रू. में जिला स्तर पर ही)। कचोरीवाले को बीएसएसी उत्तीर्ण युवक को नियुक्त करना होगा,जो उसके बने हर माल की जांच करेगा,साथ ही दुकान में नमकीन बनाने में इस्तेमाल किए जा रहे पानी की जांच ४-५ हजार रुपए देकर करवानी होगी। नई व्यवस्था १ नवम्बर २०२० से लागू होने के इस आदेश से परेशान देशभर के लाखों कचोरी वाले समझ ही नहीं पा रहे कि,यह सरकार का स्वच्छता आग्रह है या फिर कचोरी व्यवसाय के सफाए की योजना है ?

जो जानकारी सामने आई है,उसके मुताबिक कचोरी बनाकर बेचना अब पापड़ बेलने से भी ज्यादा मुश्किल होने वाला है,क्योंकि कचोरी की दुकान लगाना भी रेस्टारेंट खोलना समझ लिया गया है। मसलन नए नियमों के तहत हर दुकानदार को अपनी दुकान की हर खिड़की व दरवाजे पर पर्दा लगाना,६ फीट की ऊंचाई तक ग्लेज्ड टाइल्स लगाना,काम करने वाले आदमियों को हैंडकैप, एप्रन व दस्ताने पहनना अनिवार्य होगा। इनकी जांच दिल्ली वाला निरीक्षक करेगा। अहिल्या चेम्बर ऑफ कामर्स सहित कई व्यापारी संगठनों ने इस नियमावली का कड़ा विरोध ‍किया है। व्यापारियों को डर है कि यह सब कचोरी कारोबार के भी एकाधिकारकरण की तैयारी है। कल को कोई अंबानी कचोरी उत्पादन और बिक्री की श्रंखला डाल दे तो हैरान मत होइएगा।

बेशक खाद्य पदार्थों को बनाने और उन्हें बेचने के मामले में पर्याप्त स्वच्छता और साफ-सफाई का पालन हो,इससे कोई इंकार नहीं कर सकता,लेकिन कचोरियों के जिन ठेलो,गुमठियों या खोमचों पर दो हाथ ही सब-कुछ करने वाले हों,वो इतने ताम-झाम के चोचले किस बूते पर पाल सकेंगे। बीएससी उत्तीर्ण प्रभारी की नियुक्ति की सोच समझ से परे है,क्यों‍कि बीएससी में न तो कचोरी बनाने का कोई पाठ पढ़ाया जाता है और न ही स्वच्छता पाठ्यक्रम का हिस्सा है। हालांकि,एफएसएसएएल के ये नियम पहले भी थे,लेकिन सालाना २ हजार किलो से कम नमकीन बनाने वालों को इससे छूट थी। अब कचोरी सहित नमकीन का पूरा कारोबार नियमों की एक ही कढ़ाई में तला जा रहा है।

ऐसा लगता है कि,जिसने भी ये नियम बनाए हैं, उसने कभी सड़क किनारे किसी ठेले, गुमठी या खोमचे पर तली जा रही गरमागरम खस्ता कचोरियां न तो खाई हैं,न स्वाद महसूस किया है, वरना धधकती भट्टी के बगल में घान उतरने का इंतजार करते हुए गर्मा-गर्म उतरी कचोरी खाने का मजा ही कुछ और है।

कचोरियों के प्रति यह दीवानगी पूरे उत्तर-पश्चिम भारत में है,क्योंकि ये अपने भाई समोसे की तरह आयातित नहीं है। संस्कृत में कचोरी को कचपूरिया कहते हैं। कच अर्थात बंधन और पूरिया माने भरावन। इसी से कचोरी शब्द बना। उत्तर भारत में इसे कचौड़ी या कचउड़ी भी कहा जाता है।

अब सवाल यह है कि,ऐसी जनप्रिय और शुद्ध राष्ट्रवादी कचोरी को बनाने और बेचने के मामले में इतने कानूनी पेंच फंसाने का क्या मतलब ? क्या सरकार देसी नाश्ते की इस व्यंजन को पूरी तरह धोना चाहती है या फिर आम आदमी के धंधे पर बड़े सेठों की नजर है ? ऐसा हुआ तो यह लोगों के मुँह से कचोरी छीनने जैसा होगा। यूँभी ९५ फीसदी कचोरी वाले गरीब और खुद ही हलवाई होते हैं, गल्ला भी संभालते हैं और झूठी प्लेटें भी धोते हैं। इसी से उनका और परिवार का पेट पलता है। जिस कचोरी वाले की दिनभर की कमाई सौ-दो सौ रूपए हो,वह लायसेंस के लिए साढ़े ७ हजार रू. का कर्जा किससे लेगा ? ऐसे में दुकान में नियमानुसार वो सब ताम-झाम जमाना कैसे संभव है ? इससे भी बढ़कर मुद्दा यह है कि कचोरी बनाने और बेचने का इतना कानूनीकरण करने की मांग तो किसी ने नहीं की। यदि सरकार लायसेंस फीस बढ़ाकर पैसा ही कमाना ही चाहती है तो कचोरी वालों के बजाए कार वालों पर ध्यान दे। अगर नए नियमों का मकसद कचोरी व्यवसाय को कोविड- १९ से बचाने का है तो जब नेताओं को चुनावी धमा-चौकड़ी की छूट है तो फिर एक ठो कचौड़ी बिंदास तरीके से सूतने पर कौन-सी महामारी फैल जाएगी ? या फिर सरकार कचोरी के कारोबार को भी कारपोरेट में धकेलने की तैयारी कर रही है!

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