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संसार में कोई भी तत्व गुरु के समान नहीं

संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश) 
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गुरु पूर्णिमा ५ जुलाई विशेष….

गुरु को केवल परलोक तक पहुंचाने वाला ही नहीं,वरन इहलोक याने वर्तमान को सुधार कर भविष्य बनाने वाला कहा गया है। भारतीय दर्शन में गुरु को केवल एक व्यक्ति या पद नहीं माना,वरन एक तत्व माना गया है जो अगर मन में श्रद्धा और विश्वास के साथ स्थापित हो जाए तो इस संसार में शिष्य को अपने समान बना देता है। यही कारण है कि सनातन परम्परा में गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा स्थान दिया गया है। इसीलिए भारतीय वांग्मय में कहा गया है-

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

गुरु के महत्व को भारत के सभी धर्मों,परम्पराओं और व्यवस्थाओं ने स्वीकार किया है। आदर्श जीवन जीने के जो सूत्र आमजन की बोली और साधुक्कड़ी या खिचड़ी बोली में संत कबीरदास जी ने बताए थे,वे उस समय भी प्रासंगिक थे और आज तथा आने वाले काल में भी रहेंगे। कबीर रामानंद के शिष्य थे,पर वे निर्गुणी संत कहे जाते हैं। निर्गुणी परम्परा में गुरु ही सब कुछ होते हैं,और गुरु के प्रति समर्पण ही जीवन का सार और लक्ष्य होता है। गुरु के सम्मान में कबीरदासजी का एक दोहा बड़ा ही प्रसिद्ध है-

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागूं पाय।

बलिहारी गुरु आपने,गोविन्द दियो बताय॥

गुरु के प्रति एक अवधारणा जो जन-मन में है,वह यह है कि गुरु अपने शिष्य को संसार में बहुमूल्य बनाने का सामर्थ्य रखता है। चाहे शिष्य कैसा भी हो,लेकिन गुरु के सामर्थ्य पर कबीर दास जी कहते हैं-

गुरु पारस को अन्तरो,जानत हैं सब सन्त।

वह लोहा कंचन करे,ये करि लेय महन्त॥

अर्थात-गुरु में और पारस पत्थर में अन्तर हैl पारस पत्थर तो लोहे को सोना ही बनाता है,परन्तु गुरु अपने शिष्य को अपने समान बना देता है। गुरु में वो शक्ति है कि,जो उसका सानिध्य पाता है वह पारस पत्थर के स्पर्श से बनने वाले सोने की तरह मूल्यवान नहीं,बल्कि पारस पत्थर की तरह बेमोल हो सकता है।

गुरु किस तरह से शिष्य के दोषों को दूर करता है और किस तरह से उसे संसार में मूल्यवान बनाता है,इस पर कबीर कहते हैं-

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है,गढ़ि–गढ़ि काढ़ै खोट।

अन्तर हाथ सहार दे,बाहर मारे चोट॥

अर्थात-गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़े के समान है। जिस तरह घड़े को सुंदर और दोष रहित बनाने के लिए कुम्हार कच्चे घड़े को भीतर से हाथ का सहार देकर बाहर से चोट मारता है,उसी तरह गुरु भी अपने अंतर में प्रेम और शिष्य के सामने बाहरी कठोरता रखकर उसके दोषों को दूर करते हैं। शिष्य की बुराई को निकालते हैं,ताकि वो आदर्श समाज का हिस्सा बन सके।

सब धरती कागज करूँ,लेखनी सब बनराय।

सात समुद्र की मसि करूँ,गुरु गुण लिखा न जाय॥

अर्थात-सारी पृथ्वी को कागज बना ले,सारे जंगलों को कलम बना ले,और सातों समुद्रों के पानी को स्याही बनाकर लिखने लगे तो भी गुरु के गुणों पर लिख पाना संभव नहीं है। यहाँ कबीरदास जी ने जो ३ उपमाएँ दी हैं,वे संसार के विराट तत्व हैं। इनसे बड़ा संसार में कोई तत्व नहीं,पर गुरु के गुण के सामने ये भी छोटे पड़ेंगे। इतनी गुरु की महिमा है।

और भी कईं दोहे और साखियों के माध्यम से कबीरदास जी ने गुरु महिमा का वर्णन अपनी रचनाओं में किया है। गुरु की महिमा को स्वीकार करने वालों के लिए शब्दों की नहीं,भाव की प्रधानता होती है। गुरु पूर्णिमा एक अवसर होता है,जब हम गुरु के प्रति सम्मान,सत्कार और अपनी तमाम भावनाएँ उन्हें समर्पित करते हैं।

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