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बहुत मुमकिन

शंकरलाल जांगिड़ ‘शंकर दादाजी’
रावतसर(राजस्थान) 
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रचना शिल्प:क़ाफ़िया-अना,रदीफ़-मुमकिन मिरा,बहर २१२२,२१२२,२१२२,२१२


हो जुदा उनसे तड़पना है बहुत मुमकिन मिरा।
याद में उनकी मचलना है बहुत मुमकिन मिरा।

गर्म साँसों की चुभन आती है मुझको याद जब,
उसकी यादों से गुजरना है बहुत मुमकिन मिरा।

आलम-ए-तनहाई ने खामोश मुझको कर दिया,
हो दिवानावार अब है बहकना मुमकिन मिरा।

जिस तरह से जिक्र उनका गैर के मुँह से सुना,
लाजमी है ऐसे में यूं बिखरना मुमकिन मिरा।

हो गया दिल ज़र्रा-ज़र्रा ख़्वाब सारे ढह गये,
अब नहीं होगा दुबारा सँवरना मुमकिन मिरा।

इस ‘कोरोना’ सभी से कर दिया मुझको जुदा,
अलविदा सबको,नहीं है लौटना मुमकिन मिरा॥

परिचय-शंकरलाल जांगिड़ का लेखन क्षेत्र में उपनाम-शंकर दादाजी है। आपकी जन्मतिथि-२६ फरवरी १९४३ एवं जन्म स्थान-फतेहपुर शेखावटी (सीकर,राजस्थान) है। वर्तमान में रावतसर (जिला हनुमानगढ़)में बसेरा है,जो स्थाई पता है। आपकी शिक्षा सिद्धांत सरोज,सिद्धांत रत्न,संस्कृत प्रवेशिका(जिसमें १० वीं का पाठ्यक्रम था)है। शंकर दादाजी की २ किताबों में १०-१५ रचनाएँ छपी हैं। इनका कार्यक्षेत्र कलकत्ता में नौकरी थी,अब सेवानिवृत्त हैं। श्री जांगिड़ की लेखन विधा कविता, गीत, ग़ज़ल,छंद,दोहे आदि है। आपकी लेखनी का उद्देश्य-लेखन का शौक है

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