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श्रेया

अंशु प्रजापति
पौड़ी गढ़वाल(उत्तराखण्ड)
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सारे काम निपटा कर जब थकी-हारी रात को आँखें बंद करने की सोचती हूँ तो यूँ ही कई बार अनायास ही कई स्मृतियाँ,कई चेहरे सिरहाने आकर खड़े हो जाते हैं। थकान से चूर मैं उनींदी-सी कितना भी प्रयास करूँ,एक निश्चित अन्तराल के बाद दो-तीन रातें मेरी,उन स्मृतियों में विलीन हो ही जाती हैं।
जब भी ऐसा होता है तो एक चुभन-सी होती है हृदय में,बस वही क्षण होते हैं जब मुझे पता होता है मेरा पाषाण हृदय अब भी कुछ भावनाएं सहेजे हुए हैं।
आज भी वही कोशिश कर रही हूँ,लेखन में कहीं स्याही फ़ैली मिले तो समझ जाइएगा…अतृप्त भावनाएं तुष्ट हो रही हैं…l
वर्षों पूर्व के वही महाविद्यालय के दिन आज मेरी आँखों के सामने हैं,फिर एक स्मृति सिरहाने है श्रेया..यही नाम था उसकाl नाम तक भूल नहीं सकी हूँ। भूरी आँखें,गेहुआँ रंग,समान्य कद,दुबली किंतु गठी हुई देह..यही थी श्रेयाl एक सम्मोहन था उसके व्यक्तित्व में,जो आकर्षित कर लेता थाl हर बात बहुत ही धीमे स्वर में कह कर मंद-मंद मुस्कुरा देना,ना चाहते हुए भी नजरें उसकी धवल दंत पंक्ति पर जाकर टिक जाती थी। हँस कर कुछ कहती और प्रयास करती स्वयं को बड़ा सयाना साबित करने का,तब मुझे उसकी मासूमियत पर बहुत हँसी आती थी।
मेरी उससे कोई विशेष मित्रता नहीं थी,हमारे विषय व विभाग भी अलग-अलग थे,वह जीव विज्ञान की छात्रा थी और मैं गणित की। महाविद्यालय के समारोह में भेंट के दौरान औपचारिक-सी बातचीत हुई थी,यह औपचारिकता धीरे-धीरे सरल-सी मित्रता में परिवर्तित होने लगी। मैं अक्सर अतिरिक्त समय में उसके पास जाकर बैठ जाती। मुझे अच्छा लगता था उसका शांत,किंतु प्रसन्न स्वभाव। कुछ समय बीता तो ज्ञात हुआ कि,बहुत सम्पन्न परिवार की इकलौती सन्तान थी। पिता आयकर विभाग में उच्च पद पर थे,मनुष्य की ८० प्रतिशत परेशानियां तो वैसे भी आर्थिक रूप सम्पन्न होने पर समाप्त हो ही जाती हैं,यही लगा मुझे उसकी प्रसन्नता का कारण,किन्तु मुझे जो विशेष मोह था वो उसकी वाणी से था। मैंने अपने जीवन में यह अनुभव किया है कि,मनुष्य सामान्यतः उस गुण की ओर आकर्षित होता है,जो स्वयं उसमें अनुपस्थित हो। मुझे अपनी वाणी बिल्कुल नहीं भातीl यही कारण है मैं आवाज सुन कर अपने मित्र चुन लिया करती हूँ।
श्रेया यूँ तो बन-ठन कर ही रहती थी,परंतु उस दिन कुछ तो विशेष था,गहरा गुलाबी रंग का कुर्ता उस पर बहुत खिल रहा था। मैंने पूछा-क्या बात है ? आज बहुत जम रही हो है..कुछ खास ?
प्रतिउत्तर में फिर वही चिरपरिचित मुस्कानl उस क्षण मुझे आभास हुआ कि ये प्रसन्नता सम्पन्नता की नहीं,अपितु किसी विशेष प्रेम भाव की ही है।
बताऊंगी..फिर कभी...आज ज़रा जल्दी में हूँl कह कर मुझे रहस्य में छोड़ कर चली गई…l
ठीक है मैं इंतजार करूंगीl कहकर मैं भी अपने भौतिक विज्ञान के थिएटर की ओर मुड़ गई। याद आती रही उसकी आँखों की चमक…l
कक्षाएं बंद हो रही थी,वार्षिक प्रयोगात्मक परीक्षाएं शुरू हो रही थी। हम दोनों का फिर शीघ्र मिलना नहीं हुआ। परीक्षा खत्म हुई,नया सत्र आरंभ हुआ.. प्रिंसिपल ऑफिस की दीवार पर लगी दाखिले की मेरिट लिस्ट में अपना नाम ढूंढती हुई मेरी दृष्टि सहसा उन्हीं दुबली कलाइयों पर आकर रुक गई..
श्रेया-श्रेया... मैंने पुकाराl वह मुड़ी और हँस कर भीड़ को चीरती हुई पास आकर मेरे गले लग गईl मैंने उस पल कुछ अनुभव किया..कुछ बदल गई थी वोl वो स्पर्श उतना शान्त मुझे लगा नहीं,किंतु दो-तीन माह के बाद मिले थे तो मैंने भ्रम समझाl
कहां थी तू ? कहा उसने तो लगा जैसे शब्द किसी अंधेरी कोठरी से आ रहे हों…l रिक्त हृदय एक सूखा अंधा कुआं ही तो है…मैंने उसकी हथेलियां अपने हाथों में भींच लीं और खींचकर ऑडिटोरियम की सीढ़ियों पर ले जाकर बैठ गई।
बड़े दिन बाद मिली...पहले यह बता,उस दिन क्या बताना चाह रही थी...?? मैंने उसे कुछ सामान्य करने के उद्देश्य से कहा,परन्तु वह मौन रही..l
मैं इंतज़ार कर रही हूँl मैंने ठंडे स्वर में कहाl लंबे अंतराल के बाद बेहद संयम स्वर और सपाट भाव के साथ अन्ततः वो बोली..-वहम था मेरा.. सब-कुछ वहम। मेरी दृष्टि उसके मुख पर टिक गईl मैं खोज रही थी कोई सूत्र,जो मेरे हाथ आए और उसके मन के भाव जान सकूँl पुनः एक लम्बे मौन के बाद उसने स्वयं ही कहा-विवेक आया नहीं था उस दिन।
विवेक कौन ? किस दिन ? क्या बोल रही है...? मैं चौंकी,किसी अज्ञात आशंका से मेरा हृदय कांप रहा था। कहीं कोई अनर्थ तो नहीं कर बैठी नादान लड़की…समझती तो सयानी है,लेकिन कोई भी २ क्षण में बिना प्रयत्न के बहला सकता है,जानती थी मैंl
विवेक कौन है और कहां नहीं आया...? उसके चेहरे के भाव नहीं बदले,बस आँखों से आँसू बहने लगेl उस क्षण मुझे अनुभव हुआ कि,मात्र नेत्रों के और हृदय के रोने में क्या अंतर है ? मेरा मन फटा जा रहा था उसकी दशा देखकर,काँपते अधर,ठंडी पड़ी हथेलियां,बिल्कुल रिक्त नेत्र,निष्प्राण-सी देह और सपाट भावहीन चेहरा…l धीरे-धीरे वहीं बैठी हुई वो कहीं विलीन होने लगी,आँसू अविरल बह रहे थेl दोनों हाथों को आपस में जोड़ कर भींच कर मुठ्ठी बांध ली उसने,और धीरे-धीरे बुदबुदाने लगी-वो नहीं आया,लेकिन कोई बात नहीं...मैं ठीक हो जाऊंगी,मैं ठीक हो जाऊंगी। जैसे स्वयं को दिलासा देने का निष्फ़ल प्रयास कर रही हो…l मैंने कंधा पकड़ कर उसे लगभग झकझोर दिया-पागल है क्या ? क्या बोले जा रही है ?
शब्द नहीं थे उसके पास,बस वही यंत्रवत एक वाक्य दोहराए जा रही थी-मैं ठीक हो जाऊंगी...मैं ठीक हो जाऊंगीl
मैं छटपटा गई और उसे गले से लगा लिया…समझ रही थी मेरी भोली सखी छली गई है। विश्वास नहीं हो पा रहा था उसे,कि कोई उसे छोड़ गया है। उस समय मैंने उससे कुछ भी नहीं पूछा,उचित नहीं समझाl बस उसे घर छोड़कर अनमनी-सी मैं भी वापस आ गई।
कहीं देखा नहीं उसे फिर।
एक माह बाद कक्षाएं आरंभ होने से १ दिन पहले कुछ ज़रूरी पुस्तकें लाइब्रेरी से लेने जा रही थी,तब एक कोने में बैठी हुई देखा उसको,दौड़ कर उसके पास गई,स्वयं को संयत नहीं कर पा रही थी मैं।
बड़ी अधीरता से मैने पूछा-तू ठीक है...?
बदले में वही वाक्य-मैं ठीक हो जाऊंगी..तू चिंता मत कर...आज बहुत है,कल कम होगा...मेरा ये दर्द कभी तो ख़त्म होगा..l बस इतना ही कहा उसने। और ना जाने कब से बन्द भावनाओं के आवेग को उसने छोड़ दिया और बस बहती चली गई वो…संभाल नहीं पाई..मेरा हाथ अपने माथे से लगाकर फूट-फूटकर रोने लगी-अंशु! कुछ कर..कुछ कर..मुझसे सहन नहीं हो रहा...वो जानता है,मैं ठीक नहीं हूँ...मुझे धोखा कैसे दे सकता है...l
दोनों हाथ जोड़कर भीख ही मांग रही थी मुझसे। मैं पाषाण बनी निसहाय-सी समझ ही नहीं पा रही थी, क्या करूँ…उसकी पीड़ा देखकर मन कांप गया। लग रहा था जैसे उसकी देह पर असंख्य अप्रत्यक्ष घाव हैं,जिन पर उसके प्रेमी की स्मृतियां नमक का काम कर रही थी और रोम-रोम कराह रहा था उसका..लेकिन क्या करूं,मैं कुछ कर नहीं पा रही थी..l आहत भावनाएं किसी को किस सीमा तक तोड़ सकती हैं..मैं देख रही थी,कैसे किसी का व्यक्तित्व कुछ क्षणों में ही बदल जाता है।
मैं देख रही थी..किस प्रकार जब कोई ख़ास बना कर हमें आम भी नहीं रहने देता,तो आत्मा तक घायल हो जाती है। उसका रोम-रोम बिलख रहा था,मैं उसके साथ रो रही थी,मन ही मन ईश्वर के आगे हाथ जोड़कर आँख बंद कर बस यही कह पाई…-या तो उसे लौटा दो या इसको शांति दोl
बीएससी का अंतिम वर्ष था वो,श्रेया बहुत अधिक दिखी नहीं पूरे वर्ष,लेकिन मैंने खोज लिया विवेक को..l पता लगा कोई शर्त थी दोस्तों के बीच, जिसका मूल्य श्रेया ने चुकाया था।

ग्रेजुएशन पूरी हुई,फिर कभी वो नहीं मिली,किंतु आज भी,अब भी प्रार्थना करती हूँ वो जहाँ हो,ठीक हो क्योंकि आज भी कई रातों को मेरे सिरहाने आकर खड़ी हो जाती है और कानों में ठंडे स्वर में बुदबुदाया करती है-मैं ठीक हो जाऊंगी...!

परिचय-अंशु प्रजापति का बसेरा वर्तमान में उत्तराखंड के कोटद्वार (जिला-पौड़ी गढ़वाल) में है। २५ मार्च १९८० को आगरा में जन्मी अंशु का स्थाई पता कोटद्वार ही है। हिंदी भाषा का ज्ञान रखने वाली अंशु ने बीएससी सहित बीटीसी और एम.ए.(हिंदी)की शिक्षा पाई है। आपका कार्यक्षेत्र-अध्यापन (नौकरी) है। लेखन विधा-लेख तथा कविता है। इनके लिए पसंदीदा हिन्दी लेखक-शिवानी व महादेवी वर्मा तो प्रेरणापुंज-शिवानी हैं। विशेषज्ञता-कविता रचने में है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“अपने देेश की संस्कृति व भाषा पर मुझे गर्व है।”

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