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सुधि

डॉ.पूजा हेमकुमार अलापुरिया ‘हेमाक्ष’
मुंबई(महाराष्ट्र)

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बड़ी जोरों से गिरने की आवाज आई। इधर, निहारिका की माँ और भाभी दौड़ी,तो क्या देखती हैं-निहारिका नीचे गिरी पड़ी है। निहारिका की माँ से रहा न गया। कदमों को आगे बढ़ा तो रही थी,लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे पैर थम से गए हों। निहारिका औंधे मुँह पड़ी कमरे के बाहर एकटक निहार रही है। मदद के लिए उसकी उम्मीद भरी नजरें साफ दिख रही थी। भाभी ने भी अपने पैरों को आगे बढ़ाया,मगर फिर थम-सी गई। पता था कि ऐसी स्थिति होने पर भी निहारिका के मिजाज में ज़रा भी कमी न आई है । भाभी का हाथ लगाना उसे जरा भी न सुहाता,लेकिन विवश और लाचार-सी,दोनों हाथों से चौखट पकड़ वहीं थम-सी गई। कभी निहारिका की स्थिति को देखती,तो कभी अपनी सास को। निहारिका को यूँ जमीन पर पड़ा देख सुधि अवाक-सी रह गई थी । एक ओर निहारिका की हालत और दूसरी तरफ सास की चिंता। सब-कुछ समझ से परे था कि कैसे संभाल पाएंगी वह निहारिका को,बुढ़ापे का शरीर और घर पर अखिल भी नहीं है,जो माँ की मदद कर देते।

अचानक बेटी के यूँ बीमार पड़ जाने से निहारिका की माँ तो अंदर तक टूट-सी गई थी। अपनी पीड़ा कहे भी तो किसे ? पता नहीं इस मुकाम पर पहुँच कर भी अपनी गलतियों का आभास हुआ है कि नहीं। जब निहारिका के बाबूजी थे,तो उनसे अपने तन-मन की कह-कवा लेती थी,मगर असमय वे भी अलविदा कह हम सभी को अकेला छोड़ गए।

कितना समझाया करते थे,लेकिन जो बातें कभी पल्ले न पड़ी थी,आज रह-रह कर चीस-सी देती हैं। अब हाथों को मलकर भी क्या फायदा। अब तो तलवार म्यान से और तीर कमान से निकल चुके हैं। सब समय की माया है। आदमी अपने ही हाथों दूसरों की कठपुतली बन कर रह जाता है। सोचने-समझने का विवेक कहीं लुप्त हो जाता है।

भाभी ने अखिल को फोन लगाया,मगर फोन बजता और कट जाता। उसे समझते देर न लगी कि अखिल ऑफिस की मीटिंग में व्यस्त होगा। इधर,माँ निहारिका को उठाने का प्रयास कर रही है…मगर सभी प्रयास व्यर्थ…।

अखिल ने बीबी की कॉल्स देख मैसेज किया-थोड़ी देर में कॉल करता हूँ।

पति का मैसेज देख उसने मैसेज किया,-“निहारिका गिर गई है। डॉक्टर को कॉल कर दो,तुरन्त चले आओ।”

गिर गई…?

कैसे ?

“अखिल,मुझे नहीं पता। मैं अपने कमरे में थी…अखिल अभी इन बातों के लिए समय नहीं है। तुम तुरंत डॉक्टर को कॉल करो,और हाँ अगर मीटिंग से फ्री हो गए हो तो घर चले आओ। माँ अकेली पड़ गई हैं।”

“हाँ-हाँ,बस निकलता हूँ। तुम चिंता न करो।”

थोड़ी देर में डॉक्टर आ गया। निहारिका की जाँच कर एक इंजेक्शन दिया और कुछ दवाई मँगवाने के लिए कहा। डॉक्टर घर से बाहर निकल ही रहा था,तब तक अखिल भी पहुँच गया। डॉक्टर से हाल-चाल पूछ बहन की खबर ली।

“अखिल,निहारिका अंदर से टूट चुकी है। शायद उसे जीना ही नहीं…। दिन-ब-दिन उसकी तबीयत बिगड़ती ही जा रही है। इंसान तभी ठीक हो सकता है,जब उसमें जीने की चाह बची हो…मगर निहारिका तो…।”

“प्लीज़ डॉक्टर,कुछ तो कीजिए। कितने महीने बीत गए उसे इस हाल में।”

“अखिल अभी जो दवाइयां लिखी हैं,उन्हें दो। शायद कोई सुधार हो जाए। अच्छा चलता हूँ।”

अंदर आने पर अखिल काफी देर तक माँ और निहारिका के पास ही बैठा रहा। निहारिका बेसुध पड़ी थी।

“माँ चलो,कब तक बैठी रहोगी। चलो खाना खा लो और कुछ आराम कर लो।”

कैसा आराम ? मेरा तो जीना ही...।

“अब क्या हुआ ? निहारिका अब ठीक है। डॉक्टर ने इंजेक्शन दिया है,जल्दी नहीं उठेगी। तब तक तुम भी…।”

“अखिल निहारिका की चिंता…। चलो छोड़ो। तुम भी उठो,खाना खा लो।”

“माँ यूँ अधूरी बात न छोड़ो। जो दिल में है,उसे कह दो। न जाने कितनी ही ऐसी बातें हैं,जो तुम कभी ठीक से कह और समझ ही नहीं पाई हो। आज मन की बात कह लो।”

“अखिल,मैं कुछ कहूँगी तो तुम्हें अवश्य ही बुरा लगेगा।”

माँ मैंने कभी तुम्हारी किसी बात का बुरा माना है क्या ? जो आज...?

‘नहीं बेटा। समय और हालात की बात है और कुछ नहीं।’

‘माँ बातों को गोल-गोल न घुमाओ। जो कहना है …।’

‘आज निहारिका की जो हालत थी,क्या सुधि को जरा भी तरस न आया मेरी बेटी पर..। मैंने उसे कैसे उठाया,मैं ही जानती हूँ। तुम भी ऑफिस में थे। (अखिल माँ की बात को चुपचाप सुनता रहा।) क्या सुधि में जरा भी इंसानियत नहीं बची है! मानवता के नाम पर ही मेरी मदद कर सकती थी। क्या उसका दिल इतना पत्थर हो गया है…? हमारे दु:ख-सुख में अपना फ़र्ज़ निभाना जानती है या नहीं! अगर आज मेरी बेटी को कुछ हो जाता तो…? आज मैं हूँ,कल नहीं रही तो …क्या होगा निहारिका का…!’

‘माँ तुम भी किन बातों को लेकर बैठ गई हो। चलो खाना खाते हैं और रही बात निहारिका की तो मैं हूँ,आप चिंता न करें।’

‘अखिल तुम ही क्यों ? सुधि का कोई कर्तव्य नहीं है क्या ? वो भी इस परिवार का हिस्सा है ? यहाँ रहती है तो कुछ जिम्मेदारियाँ भी बनती हैं। तुम्हारे पापा तो इतनी तारीफ किया करते थे कि थकते ही न थे। पता नहीं कौन-से गुण दिखाई देते थे उन्हें…?’

‘माँ,अगर मन की भड़ास पूरी हो गई है तो चलें ?’

‘अखिल मुझे भूख नहीं है,तुम खाना खा लो। मैं खाना नहीं खाऊँगी। उसके रवैये से ही मेरा मन भर गया है।(माँ क्रोधित और उदास मन बना वहीं सोफे पर ही धँसी रहती है।)’

‘माँ इंसान की फितरत होती है कि,वह कभी अपने दोष की परख ही नहीं पाता। सदा दूसरों की कमियों को ढूंढने में ही अपना कीमती समय बिता देता है। अपनी अच्छाई के आगे दूसरों की अच्छाई कभी दिखती ही नहीं। मैं श्रेष्ठ,मैं गुणी, मैं अनुभवी,मुझ-सा कोई नहीं,मेरा परिवार,मेरी संतान आदि के मैं-मैं में कभी दूसरों की अच्छाई, हुनर,प्रतिभा,आदर, सम्मान,रुतबा आदि को समझने का प्रयास ही नहीं करते। माँ,मैंने सोचा था कि कभी इस विषय पर बात नहीं करूँगा,लेकिन आज मुझे अपने मन की बात कहनी ही पड़ेगी। आज पापा नहीं है,सुधि को सुनने और समझाने के लिए। सुधि ने जिस दिन से इस घर में क़दम रखा है,उसी दिन से हम सबको उसने पूरे दिलो- जान से अपना लिया है, लेकिन आज भी आप उसे अपना नहीं पाई हो…,क्योंकि वह बाहर की है। पराई है,आपने उसे जन्म नहीं दिया है। आपने अपने हाथों से उसका लालन-पालन नहीं किया है। बस इसलिए। यदि बेटा पत्नी के पक्ष में दो बात कर ले,तो दुनिया उस पर ‘जोरू का गुलाम’ का टैग लगा देती है। इतने सालों से सुधि ने ही मेरी जुबां पर ताला लगाया हुआ है। अपनी कसम दी थी कि,तुम आदमी हो। तुम्हारा कर्तव्य है अपना व्यापार संभालना और हम सबकी जरूरतों का ख्याल रखना। और रही बात घर की तो मैं और माँ मिल कर संभाल लेंगे। तुम्हें शोभा नहीं देता घर के पचड़ों में ताक-झाँक करो। माँ कुछ कह लेगी तो क्या फर्क पड़ जाएगा। हैं तो कह लेंगी। अन्यथा कौन किसकी सुनता है ? छोटा-सा परिवार है। मिल-जुल कर जिंदगी बिता लेंगे। आदमी औरतों की पंचायतों में न ही पड़े तो बेहतर होता है,लेकिन अब और नहीं।

आप मुझे यह बताओ कि,उसने कभी आपके या घर के किसी भी काम को करने से इंकार किया हो। कभी पलटकर जवाब दिया हो ? कोई तो बात बताओ। पढ़ी-लिखी है। आपने शादी के बाद नौकरी के लिए मना किया,तो मुँह से उफ़ तक न की। नहीं तो आज वो भी…।

मैं ही बताता हूँ,सुधि के आने के बाद घर में एक रौनक-सी आ गई थी। जिसे देखो सुधि का ही नाम लेता। कुछ चाहिए तो सुधि,कहीं जाना हो तो सुधि,क्या बनेगा,लगभग घर के हरेक छोटे-बड़े कामों के लिए सुधि को ही पुकारा जाता था। वो पगली आप सबके काम कर बहुत खुश होती थी।सबको क्या अच्छा लगता है,कौन कितने बजे उठता है,कितने बजे सोता है ? ऑफिस,लंच, डिनर,धोबी,बाजार शायद कोई काम ऐसा न था जो उसने न संभाला हो। घर में उसके काम की सराहना होने लगी,जो कहीं-न-कहीं आपको खटक रही थी। घर में उसके नाम की दुदुंभी बजती देख आपको अपनी सत्ता छिनने का ख़ौफ सताने लगा। और ऐसे में तुमने निहारिका को अपनी शतरंज का मोहरा बनाया,क्योंकि तुम्हें पता था पापा तुम्हारी बातों में नहीं आने वाले हैं,तो तुमने अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से निहारिका के कान भरने शुरू कर दिए। बस फिर क्या था,सुधि का जैसा रूप आप निहारिका को दिखा रही थी,वो वैसा ही देख रही थी। सुधि और निहारिका के मधुर रिश्तों में फूट अपने ही डाली थी। आपको यह भी डर था कि सुधि ने मेरे बेटे पर तो कब्जा कर लिया है,कहीं मेरी बेटी पर भी अपना जादू न चला दे…। इससे अच्छी-खासी गृहस्थी में दरार पड़ गई।

आप जब बहू को अपनाना ही नहीं जानते हो तो बेटों की शादी ही क्यों करते हो ? हर माँ को एक बात स्वीकार कर लेनी चाहिए। जब तक बेटे की शादी नहीं होती तक तक बेटा सिर्फ बेटा होता है,मगर शादी के बाद बेटे की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। रिश्ते और रिश्तों के मायने बदल जाते हैं। जिस तरह से आप माँ से सास बन,बहू पर अधिकार जताने का प्रयास करती हो,उसी तरह पति का प्यार पाना हर पत्नी का अधिकार है। आखिर वो अपने पति के स्नेह से वंचित क्यों रहे ? पति,पत्नी के दो काम क्या कर दे,फिर तो घर-भर में बेटे को देखने का नजरिया ही बदल जाता है। ऊपर से दो-चार बात, सो अलग से। माँ की जगह कोई नहीं ले सकता है। कोई भी रिश्ता माँ से बढ़कर नहीं होता। फिर आपने क्यों सोचा कि,सुधि आपकी जगह ले लेगी…?

ये वही निहारिका है जो अपनी भाभी की बात करते कभी थकती नहीं थी,मगर सुधि के पिछले जन्मदिन पर बिना वजह का झगड़ा कर उसे भला- बुरा सुनाया। क्या आपने उसे रोका था ? क्या आपने एक बार भी कहा कि निहारिका ऐसे नहीं कहते,तुम्हारी भाभी है, नहीं..,आप तो सुधि को तमाशा बनते देख खुश हो रही थीं। निहारिका ने ही कहा था,-“आज के बाद मुझे अपना मुँह मत दिखाना और मेरे पास आने की कोई जरूरत नहीं,अगर तुमने ऐसा कुछ भी किया तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।”

कितना बर्दाश्त करेगी वो…। माँ क्या याद है आपको,निहारिका की बातें जो उसने सुधि से कही थी। नहीं-न! अगर यही बातें सुधि या मैंने कही होती तो शायद ही कोई रिश्तेदार या अड़ोसी-पड़ोसी बचता, जिन्हें इस बात खबर न होती।

उस दिन मैंने ही सुधि को कहा था कि आज के बाद तुम घर में किसी की मदद के लिए आगे नहीं आओगी। अगर तुमने ऐसा किया तो उस दिन से हमारे बीच कोई रिश्ता नहीं रहेगा। यदि कुछ हुआ तो तुम मुझे खबर करोगी,लेकिन…।आज अगर निहारिका ठीक है,तो सिर्फ सुधि की वजह से। उसने ही मुझसे घर जल्दी आने और डॉक्टर को फोन करने के लिए कहा था। तुम्हारे पीछे-पीछे वो आई थी,मगर निहारिका और मेरी बात ने उसके पैरों को रोक लिया। हर बात के दो पहलू होते हैं। सिर्फ एक को देख दूसरे को नजंदाज करना कहाँ की समझदारी है माँ ? कभी उसे भी निहारिका की तरह समझो। (निहारिका माँ और भाई की बातें सुन रही थी।)’

अखिल की बात सुन उसकी आँखें नम हो गई। माँ की चुप्पी ने सारी सच्चाई बयाँ कर दी। निहारिका आज तक जिस फरेब में जी रही थी,सच जान बहुत दुखी होती है।

निहारिका को रोते देख माँ को भी अपनी गलती का पछतावा होता है।

माँ कुछ कहती,उससे पहले ही अखिल ने सुधि को आवाज लगाई।

दोनों को रोता देख सुधि से रहा न गया। वह अखिल से इशारे में माजरा पूछती है।

अखिल कुछ कहता उससे पहले ही निहारिका सुधि से अपने बुरे बर्ताव के लिए माफी माँगती है। माँ कुछ कहती,उससे पहले ही सुधि माँ के गले लग जाती है।

परिचय-डॉ. पूजा हेमकुमार अलापुरिया का साहित्यिक उपनाम ‘हेमाक्ष’ हैl जन्म तिथि १२ अगस्त १९८० तथा जन्म स्थान दिल्ली हैl श्रीमती अलापुरिया का निवास नवी मुंबई के ऐरोली में हैl महाराष्ट्र राज्य के शहर मुंबई की वासी ‘हेमाक्ष’ ने हिंदी में स्नातकोत्तर सहित बी.एड.,एम.फिल (हिंदी) की शिक्षा प्राप्त की है,और पी-एच.डी. की उपाधि ली है। आपका कार्यक्षेत्र मुंबई स्थित निजी महाविद्यालय हैl रचना प्रकाशन के तहत आपके द्वारा ‘हिंदी के श्रेष्ठ बाल नाटक’ पुस्तक का प्रकाशन तथा आन्दोलन,किन्नर और संघर्षमयी जीवन….! तथा मानव जीवन पर गहराता ‘जल संकट’ आदि विषय पर लिखे गए लेख कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैंl हिंदी मासिक पत्रिका के स्तम्भ की परिचर्चा में भी आप विशेषज्ञ के रूप में सहभागिता कर चुकी हैंl आपकी प्रमुख कविताएं-`आज कुछ अजीब महसूस…!` ,`दोस्ती की कोई सूरत नहीं होती…!`और `उड़ जाएगी चिड़िया`आदि को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में स्थान मिला हैl यदि सम्म्मान देखें तो आपको निबन्ध प्रतियोगिता में तृतीय पुरस्कार तथा महाराष्ट्र रामलीला उत्सव समिति द्वारा `श्रेष्ठ शिक्षिका` के लिए १६वा गोस्वामी संत तुलसीदासकृत रामचरित मानस,विश्व महिला दिवस पर’ सावित्री बाई फूले’ बोधी ट्री एजुकेशन फाउंडेशन की ओर से जीवन गौरव पुरस्कार से सम्मानित किया गया हैl इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिंदी भाषा में लेखन कार्य करके अपने मनोभावों,विचारों एवं बदलते परिवेश का चित्र पाठकों के सामने प्रस्तुत करना हैl

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