कुल पृष्ठ दर्शन : 328

महानायक का मौन-मुखर व्यक्तित्व

अवधेश कुमार ‘अवध’
मेघालय
**********************************************************

बोलने को तो सभी बोलते हैं। नदी,नाले,समंदर,झरने भी बोलते हैं। पशु-पक्षी भी बोलते हैं। महसूस करें तो विनाश के पूर्व और बाद का सन्नाटा भी बोलता है,किन्तु ये सब सिर्फ बोलते हैं या सिर्फ चुप रहते हैं। इंसान ही ऐसा है जो बोलकर भी चुप रह सकता है और चुप रहकर भी बोल सकता है। यह षोडस कलाओं वाले भगवान की सर्वोत्तम कृति जो है। यद्यपि,सभी इसमें भी दक्ष नहीं होते। देखिए न महानायक परिवार को। दुनिया में कौन नहीं जानता इन्हें! वैश्विक परिवार है इनका। ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है ?’ की तर्ज पर अपने अंगने में किसी को आने नहीं देते। अपने पूर्वजों के अंगने (प्रतापगढ़) में भी नहीं गए कभी। दूसरे शब्दों में कहें तो असामाजिक-सामाजिक प्राणी हैं। देश-दुनिया के बड़े-बड़े मुद्दे पचा लेता है यह परिवार। न डकार लेता है,न उबासी ही। पौने पाँच सौ साल बाद मंदिर बनता है बने,सुशान्त मरता है तो मरे,जीडीपी गिरती है तो गिरे, कोविड का ग्राफ चढ़ता है तो चढ़े,किसान आत्महत्या करता है तो करे। जब इन्हें कंगना के अंगना में नहीं जाना तो घर गिरने से क्या मतलब! जरा ठहरिए तो…मतलब है। खूब मतलब है,मतलब ही मतलब है। अगर कंगना मुम्बई पर अंगुली उठाएगी तो मतलब है। अगर कंगना के चलते बॉलीवुड का नंगापन उजागर होगा तो मतलब है। बॉलीवुड का आपराधिक जुड़ाव बेपर्दा होगा तो मतलब है। उड़ता पंजाब बनाने वालों का उड़ना दिखेगा तो मतलब है,मगर क्यों ? इसलिए कि उसी दलदल में इनका भी अंगना है,जिसके चप्पे-चप्पे से कंगना परिचित है। कंगना के पीछे से जाँच अभिकरण और उसके पीछे से जनता भी झाँककर वो सब देख लेगी,जो वर्षों से छिपाया गया है।
इसलिए ही संसद में माननीया सांसद जया बच्चन केवल बोलीं, बल्कि खिसियानी बिल्ली की तरह झपट्टा भी मारा। रविकिशन जैसा गवईं छोकरा उनकी दुखती रग पर हाथ जो रख बैठा था। सौ चूहे खाकर हज को जाने वाली हेमा मालिनी भी अपने झर-झर झरते रेतीले अंगने को बचाने के लिए जया के साथ हो लीं। बात थाली में छेद की है। साधारण जनता तो पत्तल,टीन,स्टील या फाइबर की थाली में खाती है जो अपनी कमाई से अर्जित की गयी होती है। छेद होने पर ठठेरे को देकर नई खरीद लेती है। संकट इन बड़े लोगों को है। ये अक्सर उपहार की थाली,चुरायी हुई थाली या फेंकी हुई जूठी थाली या दूसरों की झपटी हुई थाली झपटकर एवं छुपाकर उपयोग करते हैं, लेकिन थाली कीमती ही रखते हैं। अब सोचिए जरा…। ऐसी थाली में अगर छेद हो जाए तो…। तो न किसी से बता सकते हैं,न फेंक सकते हैं,न बदल सकते हैं…। फिर सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि खाएँगे किस थाली में!
हड़पी हुई थाली की सुरक्षा को खतरे में देखकर महानायक ने चुप्पी तोड़ी। अपनी सात दशकीय विशेषताओं को जग जाहिर कर दिया, जिसका जिक्र जरूरी है। सागर को घमंड था कि,वह किसी को भी डुबो सकता है। तेल की एक बूँद आयी और तैरकर चली गईll शायर ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके शेर को इतना बड़ा महानायक थाली के छेद को बंद करने में लगा देगा,ताकि फिर चैन से खा सके। इस परिवार की जीवनी देखें तो पाएँगे कि ये तेल की एक बूँद ही नहीं,बल्कि तेल के बैरल हैं…डिपो हैं। समयानुसार आकर्षण और विकर्षण के स्वाभाविक गुण से मनचाहा आकार ग्रहण कर लेते हैं। जैसी थाली,वैसा आकार। आनंद फिल्म में तो आपने मक्खन (तेल का सहोदर) लगाते देखा ही होगा,जिसमें राजेश खन्ना खन-खन बनकर रह गए। महमूद के घर से पाँव जमाने के बाद उन्हें दूध की मक्खी बना दिया। इंदिरा से फिल्में कर मुक्त और सफल करवाईं। रेखा,राखी और परवीन बॉबी को बिलखता छोड़कर किनारा कर लिया। राजीव को तेल लगाकर हेमवतीनन्दन बहुगुणा को पटकनी दी। इंदिरा गाँधी की हत्या पर ऐसे मुखर हुए कि सिक्खों के नरसंहार से जुड़ गए। आर्थिक रूप से डूबे तो अमर को मित्र बनाकर पीठ पर सवार होकर पार हो गए। खुद राजनीति से सन्यास ले लिया और जया को संसद में पहुँचा दिया। यह वही जया हैं जो जयाप्रदा के अन्तःवस्त्रों पर खुलेआम आजम खाँ की टिप्पणी पर खिलखिलाती रही हैं। २००७ में यह महानायक बाराबंकी में किसान बन जाता है लेकिन क्या मजाल कि किसी और के काम आ सकें हों!
महानायक बनने के लिए एक अच्छा अभिनेता ही नहीं,बल्कि एक अच्छा चरित्र भी होना चाहिए। अवसरवाद की ऐसी पराकाष्ठा भारत में ही देखी जा सकती है। हमारा देश इतना भावुक है कि माँ सीता के दुःख को भूलकर रावण की मृत्यु पर विलाप करती मंदोदरी के साथ भी खड़ा हो जाता है। बहुरुपियों को भी आदर्श मान लेता है। माटी को भी माधव समझने लगता है। नर को भी नारायण मान लेता है। ऐसे में मुट्ठी भर लोग भावनाओं से खिलवाड़ करके अपने नफे-नुकसान के अनुसार थाली-थाली खेलने लगते हैं। मौन-मुखर का दाव-पेंच लगाने लगते हैं,किन्तु मत भूलिए कि भारत बदल रहा है। अब कीचड़ में उपजी कंगनाओं को चुप नहीं कराया जा सकता। अब किसी हत्या को आत्महत्या कहकर मौन नहीं रहा जा सकता। आज का भारत चेहरे से नकाब नोंच लेगा।

परिचय-अवधेश कुमार विक्रम शाह का साहित्यिक नाम ‘अवध’ है। आपका स्थाई पता मैढ़ी,चन्दौली(उत्तर प्रदेश) है, परंतु कार्यक्षेत्र की वजह से गुवाहाटी (असम)में हैं। जन्मतिथि पन्द्रह जनवरी सन् उन्नीस सौ चौहत्तर है। आपके आदर्श -संत कबीर,दिनकर व निराला हैं। स्नातकोत्तर (हिन्दी व अर्थशास्त्र),बी. एड.,बी.टेक (सिविल),पत्रकारिता व विद्युत में डिप्लोमा की शिक्षा प्राप्त श्री शाह का मेघालय में व्यवसाय (सिविल अभियंता)है। रचनात्मकता की दृष्टि से ऑल इंडिया रेडियो पर काव्य पाठ व परिचर्चा का प्रसारण,दूरदर्शन वाराणसी पर काव्य पाठ,दूरदर्शन गुवाहाटी पर साक्षात्कार-काव्यपाठ आपके खाते में उपलब्धि है। आप कई साहित्यिक संस्थाओं के सदस्य,प्रभारी और अध्यक्ष के साथ ही सामाजिक मीडिया में समूहों के संचालक भी हैं। संपादन में साहित्य धरोहर,सावन के झूले एवं कुंज निनाद आदि में आपका योगदान है। आपने समीक्षा(श्रद्धार्घ,अमर्त्य,दीपिका एक कशिश आदि) की है तो साक्षात्कार( श्रीमती वाणी बरठाकुर ‘विभा’ एवं सुश्री शैल श्लेषा द्वारा)भी दिए हैं। शोध परक लेख लिखे हैं तो साझा संग्रह(कवियों की मधुशाला,नूर ए ग़ज़ल,सखी साहित्य आदि) भी आए हैं। अभी एक संग्रह प्रकाशनाधीन है। लेखनी के लिए आपको विभिन्न साहित्य संस्थानों द्वारा सम्मानित-पुरस्कृत किया गया है। इसी कड़ी में विविध पत्र-पत्रिकाओं में अनवरत प्रकाशन जारी है। अवधेश जी की सृजन विधा-गद्य व काव्य की समस्त प्रचलित विधाएं हैं। आपकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी भाषा एवं साहित्य के प्रति जनमानस में अनुराग व सम्मान जगाना तथा पूर्वोत्तर व दक्षिण भारत में हिन्दी को सम्पर्क भाषा से जनभाषा बनाना है। 

Leave a Reply