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‘आधा आदमी’ का समूचा आख्यान

संदीप ‘सरस’
सीतापुर(उत्तरप्रदेश)
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उफ़्फ़फ़….इतनी मानसिक,शारीरिक और सामाजिक यंत्रणा! यकीन नहीं होता,यह हमारी ही तरह मनुष्य योनि में जन्म लेने वाले किन्नर समाज के लोग हैं,जो किसी शारीरिक अक्षमता के चलते इतनी उपेक्षा,इतनी वितृष्णा झेलने के लिए अभिशप्त हैं। यकीनन सक्षम कलमकार ‘राजेश मलिक’ के उपन्यास का नाम भले ही ‘आधा आदमी’ है, लेकिन वह किन्नर समाज की विसंगतियों का मुकम्मल दस्तावेज है। ३०० पृष्ठ के इस उपन्यास को मनीष पब्लिकेशन(दिल्ली)ने प्रकाशित किया हैl आप आरोप लगा सकते हैं कि उपन्यास में अश्लील प्रसंगों,वीभत्स गालियों की भरमार है लेकिन आपको स्मरण रखना होगा कि,आप उस समाज की विद्रूपताओं को करीब से जानने की कोशिश कर रहे हैं जहां सलीका,शिक्षा,शिष्टाचार और सभ्यता जैसे शब्द मायने नहीं रखते,तथा हमारे सभ्य समाज ने किन्नरों के प्रति जैसा दुर्भावनापूर्ण व्यवहार सदैव किया है,उसमें आप उनसे इससे बेहतर की उम्मीद भी नहीं कर सकते।


इस उपन्यास को पढ़ते हुए कई बार `सारा आकाश` उपन्यास की यादें ताजा हो जाती हैं,जिसे वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी ने संयुक्त रूप से मिलकर लिखा था। एक ही पृष्ठभूमि पर विभिन्न संवेदनात्मक फ्रेमों में की गई दस्तानगोई एक अदभुत प्रयोग था। ऐसा ही प्रयास राजेश मलिक करने में काफी हद तक कामयाब रहे। उन्होंने किन्नरों के जीवन को शब्द स्वर देने का प्रयास किया,वहीं साथ-साथ वर्तमान सामयिक सन्दर्भों को भी विमर्श से रेखांकित करने में बखूबी सफल रहे।
यकीनन `आधा आदमी` उपन्यास लेखक की प्रखर संवेदनशीलता का नमूना है,और तृतीय लिंग(थर्ड जेंडर) के अभिशप्त जीवन की मुखर व्यथा-कथा है। एक अभागे `दीपक` के `दीपिका माई` बनने के सफर की दर्दनाक कहानी है। उपन्यास को पढ़ते हुए एक गिजगिजा-सा एहसास आपके जेहन में पैवस्त हो जाता है। यही है कलमकार की जीत,और यही है उसके लेखन का अभीष्ट। उपन्यास पढ़ते हुए जितनी घृणा आपको इनकी जीवन-शैली से होती है,उससे कहीं ज्यादा घृणा होती है उनके प्रति समाज के घटिया रवैए से।
किन्नरों के जीवन की पड़ताल करते हुए और दीपिका माई के जीवन के उतार-चढ़ावों को रेखांकित करते हुए यह उपन्यास तृतीय लिंग समुदाय के जीवन का जीवंत आख्यान कहा जा सकता है। सच तो यह है कि हमने हमारे समाज ने अपने और किन्नरों के बीच जितनी गहरी रेखा खींची है,उसी अनुपात में वह किन्नरों की जीवन-शैली,उनके रहन-सहन, उनके रीति-रिवाजों में झांकने के लिए उत्सुक भी रहता हैl
उपन्यास में दीपिका माई की डायरी के माध्यम से समलैंगिकता के आगाज़ से किन्नरत्व के अंजाम तक का वीभत्स सफर धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। आर्थिक विपन्नता में दीपक का संघर्ष,समाज के विभिन्न तबकों द्वारा उसका दैहिक शोषण,पारिवारिक दबाव में उसका विवाह और अंततः परिस्थितिजन्य किन्नरत्व की स्वीकार्यता। यकीन मानिए कि, उपन्यास आपको विद्रूपताओं और विसंगतियों के बीहड़ जंगलों में विचरण हेतु विवश कर देता है।
अंतिम दिनों में दीपिका माई का स्वास्थ्य खराब हो जाता है,और उसके सभी पूर्व प्रेमी, सारे चेले उसे छोड़कर चले जाते हैं। जिस दीपिका माई ने पहले अपने परिवार के लिए, अपने-अपनों के लिए अपना जीवन होम कर दिया,अंतिम क्षणों में अकेली रह गयी और बहुत ही दुःखद अंत हुआ।
हालांकि,दीपिका माई की लाश के साथ किया गया समाज द्वारा दुर्व्यवहार अतिश्योक्ति भरा असहज लगता है,क्योंकि समाज की संवेदनाएं भले ही इस वर्ग के लिए मर चुकी हैं,लेकिन कानूनी और व्यवहारिक रूप से ऐसा संभव नहीं दिखता,परंतु इतने मार्मिक चरमोत्कर्ष(समापन) के लिए लेखक की कल्पना शक्ति को इतनी छूट लेने की इजाजत मिलनी चाहिए।
उपन्यास के नायक दीपिका माई से आप एक क्षण को घृणा कर सकते हैं,दूसरे क्षण उससे सहानुभूति कर सकते हैं,लेकिन नजरअंदाज नहीं कर सकते। यह पात्र हमारे समाज का वह मवादभरा नासूर है,जिसे हम यूँ ही उपेक्षित नहीं कर सकते। उसकी साफ-सफाई और उपचार बेहद जरूरी है।
एक बात तय है कि संविधान में भले ही तृतीय लिंग के लिए कोई प्रावधान बना दिया जाए,लेकिन इस वर्ग को भारतीय समाज की स्वीकार्यता प्राप्त करने में अभी समय लगेगा। समाज के अवचेतन मस्तिष्क में बैठा गहरा उपेक्षा,हेयता भाव किसी कानूनी बैसाखी के सहारे किन्नर समाज के साथ न्याय नहीं कर सकता। जब तक सामाजिक-नैतिक मान्यताएं पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर मनुष्यता के धरातल पर सहज नहीं होती हैं,तब तक कोई कानून इस समस्या के व्यापक समाधान के लिए कारगर नहीं साबित हो सकता।
उपन्यास लेखक राजेश मलिक एक बहुआयामी व्यक्तित्व से संपृक्त हैं और कला, अभिनय व साहित्य में पूरी ऊर्जा-पूरी रचनात्मकता के साथ सृजनशील हैं। वे इस बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि,उन्होंने वंचित तबके की पीड़ा को शाश्वत स्वर प्रदान किया है। विश्वास है कि उनका यह उपन्यास ‘आधा आदमी’ तृतीय लिंग से जुड़े विमर्श में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा,और किन्नर समुदाय की विषमताओं से सीधा संवाद करने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा।

परिचय-साहित्य जगत में संदीप मिश्र जाना-पहचाना नाम है,जो उत्तरप्रदेश के बिसवाँ(जिला-सीतापुर) में रहते हैंl सम्प्रति से कवि,साहित्यकार और समीक्षक के साथ ही संस्थापक-संयोजक(साहित्य मंच)तथा साहित्य सम्पादक (दैनिक समाचार-पत्र में) हैंl आपकी विशेष उपलब्धि कविता कोश व दोहा कोश में रचनाएँ सम्मिलित होना, राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं सहित टी.वी. चैनल,रेडियो से रचनाएं प्रकाशित-प्रसारित व पुरस्कृत होना हैl इनकी लेखन विधा-पद्य तथा गद्य भी हैl ५ जुलाई १९७५ को बिसवाँ में जन्मे श्री मिश्र ने एम.ए.(हिन्दी साहित्य)की शिक्षा हासिल की हैl प्रकाशन में आपके नाम-`कुछ ग़ज़लें कुछ गीत हमारे`(काव्य संकलन)तथा कई साझा संकलन भी हैंl ऐसे ही शीघ्र प्रकाश्य-गीत संग्रह एवं ग़ज़ल संग्रह आदि हैंl कार्यक्षेत्र-साहित्य तथा पत्रकारिता हैl कई अखबारों में नियमित स्तम्भ प्रकाशित कराते रहने तथा नियमित समीक्षा स्तम्भ में भी सौ से अधिक पुस्तकों की समीक्षा कर चुके `सरस` को सम्मान के निमित्त-उत्तर प्रदेश से बाल कविता हेतु पुरस्कृत(१९९४),साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए पुरस्कृत (१९९६),साहित्य गौरव सम्मान(१९९७),सृजन सम्मान(१९९८),युवा कवि पुरस्कार(१९९९) तथा नेपाल द्वारा सन्त तुलसी स्मृति सम्मान(२०१९) सहित अन्य से भी सम्मानित किया गया हैl

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