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‘वेदने तू धन्य है री!’ दर्द का दरिया

मनोज कुमार सामरिया ‘मनु’
जयपुर(राजस्थान)
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आधुनिक मीरा महीयसी महादेवी वर्मा को समर्पित यह गीतांजलि विरह गीतों का नायाब नमूना है। यह पुस्तक ६२ गीतों को समेटे हुए है। वेदना को संबोधित शीर्षक गीत ‘वेदना तू धन्य है री!’ महाकवि पंत की इन पंक्तियों को प्रमाणित करता जान पड़ा-
‘वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान।
निकलकर आँखों से चुपचाप,बही होगी कविता अनजान॥’
पुस्तक में समाहित गीतों को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत हुआ,मानों महीयसी महादेवी के श्री चरणों में बैठ कोई साधिका स्वयं को साध रही है। कवियित्री के जीवन में जो पीड़ा अब तक संचित हुई थी,वह शब्दाकार लेकर काग़ज़ पर घनिभूत होती है,और परिणामस्वरूप यह गीत संग्रह बना। आईए यात्रा करते हैं इस गीत संग्रह की। वेदना का धन्यवाद करते हुए कवियित्री लिखती हैं-
‘वेदने तू धन्य है री! काव्य का श्रृंगार करती।
जो न होता यह विरह तो,व्यंजना होती मुखर कब।
भाव के फिर पग न होते,शब्द मिलते ही सुघड़ कब ?
भावना मैं फिर हृदय की-खाक क्या साकार करती ? वेदने तू धन्य है री!…’
गीतों का अमर तत्व होती है सहजता। यदि वह सहजता को खो दे तो मृत हो जाते हैं। यहाँ पर सहजता सहज ही बन पड़ी है। बानगी देखिए-‘गा रहे हो व्यर्थ मुझको,गीत का लाँछित चरण हूँ…’ जो कि इन्हें प्राण पोषित कर रही है।
अपनी आराध्या को शब्द मोतियों का हार चढ़ाते हुए कवियित्री अनुराधा पाण्डेय (दिल्ली)लिखती हैं-‘हे महादेवी…
तुम नीर भरी दुख की बदली हो तो,मैं भी नीर बहा लेती हूँ।
रुद्ध कंठ से ही हो चाहे,पीर सतत मैं भी गा लेती हूँ॥’
छायावाद के रुद्र का स्मरण कराती एक गीत की कड़ी पर ध्यान चाहूँगा-
‘भूत के उन क्लांत क्षण के,क्लेश मय अनुवाद मत कर।
याद कर द्वय चाँदनी में,साथ मिल जब थे नहाए।
शांत नद एकांत तट पर,प्रेम धन जो थे लुटाए।
चित्र शुचि उनके बना ले,यंत्रणा कुछ याद मत कर।’
ये गीत महाकाव्य ‘कामायनी’ का क्षणिक चित्र खींचता है। जैसे जलप्रलय के बाद हताश,उदास मन रूपी मनु को श्रृद्धा संबल दे रही हो। श्रृंगार रस में करुणा को इस प्रकार गूँथा गया है जैसे वेणी में छदम केश गूँथे जाते हैं,जिन्हें वेणी से विलग देखा ही नहीं जा सकता।
विरह वर्णन का चिर प्राचीन स्वरूप गीत ‘डाल उर की रिक्त विहगे!’ ( पृष्ठ ५७) में झलक रहा है। मृतिका की देह का क्षण में रीत जाना सत्य है तो क्यों घुट-घुट कर जीया जाए ? निराश मन में आशा का संचरण करता यह गीत अभिनव प्रयोग का भी उदाहरण है।
कवियित्री को उद्बोधन और संबोधन शैली अत्यंत प्रिय है जिसके उदाहरण पुस्तकारंभ से लेकर अंत तक अनेक रूपों में अनेक स्थानों पर स्पष्ट हो रहे हैं। उदाहरणार्थ-‘गीत ऐसे रच दिए हैं!,प्रिय! तुम्हारे द्वार भूले अब न आऊँ…( पृष्ठ ७६)।’
इनके गीतों में शिल्प और काव्य सौंदर्य बेजोड़ है। बहुत कुछ सीखा जा सकता है इस गीत संग्रह से। गीतों की विविधता कवियित्री की अद्भुत कल्पना शक्ति का प्रमाण है। नितांत नवीन शब्द प्रयोग इनके गहन सुदीर्घ अध्ययन को भी इंगित करते हैं। शोधार्थी के रूप में भी आपने विशिष्ट अनुभव प्राप्त किया। यही अनुभव काव्य में मुखरित हो रहा है। एक गीत दृष्टांत रूप में-‘नेह की हविषा समेटे,यज्ञ हित अर्पित हवन मैं।
वर न माँगूगी मिलन का,मूर्त हूँ चित का दमन मैं।
जो न हिल सकता प्रलय में,चिर अखण्ड़ित वो भवन मैं। नेह की हविषा समेटे…(पृष्ठ ९०)।’
गीत संग्रह के अन्य गीत जो बार-बार गीत प्रेमियों का ध्यान आकर्षित करते हैं-‘प्राण से ही प्राण माँगूं, मोक्ष लेकर क्या करूँगा ?,प्रेम का सम्मान होगा’ आदि।
समग्र रूप में कहूँ तो इस संग्रह को पढ़ कर
आह्लादित हूँ। अनुप्रास,रूपक आदि अलंकारों से सुसज्जित व लय बद्ध गीत संग्रह के लिए अनेक शुभकामनाएँ। हिंदी गीति साहित्य में इस पुस्तक को विशिष्ट स्थान प्राप्त होगा।

परिचय-मनोज कुमार सामरिया का उपनाम `मनु` है,जिनका  जन्म १९८५ में २० नवम्बर को लिसाड़िया(सीकर) में हुआ है। जयपुर के मुरलीपुरा में आपका निवास है। आपने बी.एड. के साथ ही स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य) तथा `नेट`(हिन्दी साहित्य) की भी शिक्षा ली है। करीब ८  वर्ष से हिन्दी साहित्य के शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं और मंच संचालन भी करते हैं। लगातार कविता लेखन के साथ ही सामाजिक सरोकारों से जुड़े लेख,वीर रस एंव श्रृंगार रस प्रधान रचनाओं का लेखन भी श्री सामरिया करते हैं। आपकी रचनाएं कई माध्यम में प्रकाशित होती रहती हैं। मनु  कई वेबसाइट्स पर भी लिखने में सक्रिय हैंL साझा काव्य संग्रह में-प्रतिबिंब,नए पल्लव आदि में आपकी रचनाएं हैं, तो बाल साहित्य साझा संग्रह-`घरौंदा`में भी जगह मिली हैL आप एक साझा संग्रह में सम्पादक मण्डल में सदस्य रहे हैंL पुस्तक प्रकाशन में `बिखरे अल्फ़ाज़ जीवन पृष्ठों पर` आपके नाम है। सम्मान के रुप में आपको `सर्वश्रेष्ठ रचनाकार` सहित आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ सम्मान आदि प्राप्त हो चुके हैंL  

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